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लिपस्टिक और लो नेकलाइन- महिला विरोधी कुप्रथाओं से सराबोर है महिला वकीलों की योग्यता

पुणे की एक अदालत द्वारा जारी नोटिस की काफी आलोचना हो रही है, मगर महिला वकीलों का कहना है कि उन्हें पुरुषों की तुलना में बहुत कठोरता के साथ आंका जाता है और अक्सर उनके रूप-रंग तक ही सीमित कर दिया जाता है.

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सुप्रीम कोर्ट | मनीषा मोंडल, दिप्रिंट

नई दिल्ली: ‘हेयर स्टाइल किसी भी महिला को छिछोरा बना देती हैं.’

आप बहुत प्यारी और छोटे कद की दिखती हैं, क्या जज आपकी बात सुनते भी हैं?’

आप लिपस्टिक लगाकर बहस क्यों नहीं करतीं हैं?’

हाल ही में पुणे जिला न्यायालय में महिलाओं को ‘खुली अदालत में अपने बालों को संवारने से ‘बचने’ का निर्देश देने वाले एक नोटिस ने हंगामा खड़ा कर दिया है. हालांकि, देशभर में महिला अधिवक्ताओं के अनुभव यह बताते हैं कि उनकी बहस करने की क्षमता का आकलन अक्सर इस आधार पर किया जाता है कि वे कैसी ‘दिखतीं’ हैं.

20 अक्टूबर को जारी पुणे की अदालत के इस नोटिस में कहा गया था कि यह ‘अदालत के कामकाज में व्याधा डालने वाला है.’  हालांकि. काफी सारी तीखी प्रतिक्रिया के उपरांत दो दिन बाद ही इस नोटिस को वापस ले लिया गया था. वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह, जो ट्रिपल तलाक जैसे कई ऐतिहासिक मामलों का हिस्सा रही हैं और जिन्होंने सबसे पहले अदालत के इस नोटिस के बारे में ट्विटर पर लिखा था, उनका कहना है कि यह नोटिस उनके लिए सबसे अलग दिखने वाला मामला था, क्योंकि ‘अदालतों में स्त्री विरोधी भावनाओं का सामान्य माहौल इतना अधिक है’ और इसलिए भी कि वह इसे ‘महिला वकीलों के ताबूत में एक और कील’ के रूप में देखती हैं. यह नोटिस इस ‘स्त्री विरोधी माहौल’ में योगदान देने वाली एकमात्र अकेली घटना नहीं थी. महिला वकील अक्सर अपने काम के बारे में अधिक ‘गंभीर’ दिखने के लिए सीधे-सादे कपड़े या फिर साड़ी पहनती हैं.

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बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने वकीलों के लिए ड्रेस कोड निर्धारित किया है. महिला अधिवक्ताओं के मामले में इस ड्रेस कोड में ‘काली पुरे बांह वाली जैकेट या ब्लाउज, सफेद बैंड के साथ सख्त या मुलायम सफेद कॉलर और अधिवक्ताओं के लिए बनाया गया गाउन’, या ‘सफेद बैंड के साथ कॉलर वाला या बिना कॉलर के सफेद ब्लाउज और काले रंग का ओपन ब्रेस्ट कोट’ शामिल है. इसके अलावा ‘साड़ी या लंबी स्कर्ट (सफेद या काली या बिना किसी प्रिंट या डिज़ाइन के कोई भी हल्का रंग) या फ्लेयर (सफेद, काली या काली-धारीदार या भूरी) या पंजाबी पोशाक चूड़ीदार कुर्ता या (सफेद या काले) दुपट्टे के साथ अथवा इसके बिना सलवार-कुर्ता. या काले कोट और बैंड के साथ पारंपरिक पोशाक, पहनने की भी अनुमति है. महिला वकीलों का कहना है कि अदालत में उनके पहनावे को उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में बहुत अधिक निष्ठुरता के साथ आंका जाता है. उनकी योग्यता और बहस करने की क्षमता अक्सर उनके कपड़ों और बालों तक सीमित रह जाती है.

दिल्ली की विभिन्न अदालतों में श्रम और सेवा कानून से जुड़े कई मुकदमें को संभालने वाली एक वकील ने उनका नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘दुर्भाग्य से, हमारे पेशे में, आपके शरीर पर जितने कपड़े हैं, वह इस बात के अनुरूप होते हैं कि लोग आपको कितनी गंभीरता से लेंगे और यही यह तय करेगा कि आप अपने काम में कितनी अच्छीं हैं.’


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गंभीरता के लिए सादेकपडे़ पहनना 

पुणे में रहने वाली आपराधिक मामलों की वकील विजयलक्ष्मी खोपड़े ने नोटिस को ‘बेहद दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया, खासकर उस दिन जब हर कोई दिवाली का जश्न मनाने या छुट्टियों के लिए तैयार हो रहा था.

हालांकि, खोपड़े इस बात से खुश हैं कि इस नोटिस को आखिरकार वापस ले लिया गया, लेकिन उन्हें भी लगता है कि महिलाओं को ‘बहुत निष्ठुरता के साथ आंका जाता है’ और ‘इसलिए ज्यादातर मामलों में  महिलाएं सीधे सादे कपड़े पहनना पसंद करती हैं.’

कई अन्य महिला वकील भी यह स्वीकार करती हैं कि अधिक गंभीरता से लिए जाने के प्रयास में वे जानबूझकर सीधे सादे कपड़े पहनती हैं.

बेंगलुरू की एक वकील, जिनके ब्लॉन्ड हाइलाइट्स हैं,  उस घटना को याद करती हैं जब वह ट्रायल कोर्ट के समक्ष किसी मुकदमे के स्थगन की मांग करने के लिए पेश हुईं थीं. हालांकि उनके मामले में स्थगन आदेश नहीं दिया गया, मगर एक पुरुष वकील, जिसने समान आधार पर ऐसी ही राहत मांगी थी, इसे पाने में सफल रहा. उसके बाद एक वरिष्ठ महिला अधिवक्ता, जिन्होंने इस पूरे केस को देखा था,  ने उन्हें सलाह दी थी कि वो कुर्ता या साड़ी पहनती और बाल बांधती तो उससे फर्क पड़ता.

वह कहती हैं, ‘तब तक मैं यह नहीं जानती थी कि कपड़े और हेयर स्टाइल भी सम्मान देने के लिए कोई मानदंड थे.’

दिल्ली में रहने वाली एक अन्य वकील, जो बौद्धिक संपदा अधिकारों से जुड़े मामलों को देखती हैं, याद करते हुए कहती हैं कि कैसे बार की एक वरिष्ठ महिला सदस्य ने यह टिप्पणी की थी चूड़ियां पहनना किसी भी वकील को ‘अदालत में छिछोरा दिखाती’ हैं.

वह आगे कहती हैं, ‘दुर्भाग्य से, अगर आप मेकअप, स्ट्रीक्ड हेयर और, भगवान न करे, हील के साथ अदालत के अंदर जाने वाली महिला हैं, तो मेरे अनुभव में, आपको गंभीरता से लिए जाने की संभावना काफी कम है; क्योंकि धारणा यह होगी कि स्पष्ट रूप से आपके पास पर्याप्त काम नहीं है जो आपको व्यस्त रखे या आप सिर्फ दिखावे के आधार पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहीं हैं.’

मर्द तो मर्द होते हैं

हालांकि, पुणे की अदालत के नोटिस की व्यापक तौर पर आलोचना की गई थी, मगर कुछ महिला अधिवक्ताओं ने महिला वकीलों के ड्रेस कोड में ‘बदलाव’ पर अफसोस जताया और वे इस नोटिस के प्रति पूरी तरह से उपेक्षापूर्ण रुख नहीं रखती है.

वरिष्ठ अधिवक्ता महालक्ष्मी पावानी, जो सुप्रीम कोर्ट महिला वकील संघ की अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट की जेंडर सेंसीटाइजेशन एंड इंटरनल कम्प्लेंट्स कमिटी की सदस्य भी हैं, ने दिप्रिंट से कहा, ’शायद जब आप अपने बालों को संवार रहीं हों, तो यह सुनवाई करने वाले पुरुष को विचलित कर देता है. क्या यह उनके काम को प्रभावित नहीं करता है? मर्द तो आखिर मर्द ही हैं. वे भी विचलित हो जाते हैं. तो इस तरह की टिप्पणियों के लिए जगह ही क्यों दें?’ वह कहती हैं कि वैसे भी पुणे की अदालत द्वारा जारी नोटिस ‘अनावश्यक’ था और इस सारी बातचीत के तहत पूरे भारत की अदालतों में महिला वकीलों के लिए अधिक सुविधाओं दिए जाने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है.

वह इस बात की भी आलोचना करती हैं कि किस तरह से अब महिला वकील अदालत के लिए सजधज कर तैयार हो रही हैं, उन्होंने कहा कि ‘अदालत न्याय का मंदिर है और इस स्थान की पवित्रता और मर्यादा बनाए रखनी होगी. इस स्थान का सम्मान किया जाना चाहिए और इससे जुड़ी गरिमा को बनाए रखा जाना चाहिए.’

वह कहती हैं, ‘यह शो बिज इंडस्ट्री या फैशन उद्योग नहीं है जहां किसी महिला को खुद पर इठलाने या अपनी पोशाक दिखाने की जरूरत है.’ हालांकि. उनका यह भी कहना था कि उनकी यह सोच उनकी ‘रूढ़िवादी, पारंपरिक, ब्राह्मण परवरिश’ के कारण भी हो सकती है.

वह आगे कहती हैं, ‘हेयर स्टाइल और विभिन्न पोशाक सामाजिक कार्यक्रम के लिए सुरक्षित रखे जाने होते हैं, न कि कानून की अदालतों के लिए. इसके अलावा, पैंट अब टखने की लंबाई तक के ही होते हैं. कभी-कभी वे इससे ऊपर भी चढ़ जाती हैं. इसके अलावा वे लो नेकलाइन वाले कपडे़ या शॉर्ट टॉप या बिना किसी स्लिप (अस्तर) के लखनवी कुर्ते जैसी तंग पोशाकें भी पहनती हैं. यह सब कहने के बाद भी, पुरुषों और महिलाओं दोनों को कोर्ट रूम में अपनी प्रस्तुति के प्रति सावधान रहना होगा और इसे फैशन स्टाइल्स की परेड में नहीं बदलना होगा. ‘


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क्या आपके पास लिपस्टिक है?’

महिला वकील अदालतों में जो भी पहनती हैं, उस पर निंदा या छानबीन अक्सर उनकी अन्य साथी महिला वकीलों और न्यायाधीशों द्वारा भी की जाती है.

अप्रैल 2018 में, जस्टिस इंदु मल्होत्रा – जो सबरीमाला मामले में असहमति जताने वाली एकमात्र न्यायाधीश थीं – ने उस वक्त इतिहास रच दिया जब वह सुप्रीम कोर्ट में सीधे न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत होने वाली पहली महिला वकील बनीं. इसके एक ही महीने बाद, उन्होंने पलाज़ो पैंट और तीन चौथाई लम्बाई वाले ट्राउज़र पहनने पर अपनी नापसंदगी व्यक्त की और कहा कि ये वकीलों के लिए ‘पेशेवर पोशाक’ के रूप में माने जाने योग्य नहीं हैं. उनकी सलाह को कवर करने वाली कई ख़बरों में कहा गया है कि कैसे अन्य वकीलों ने जस्टिस मल्होत्रा की इस ‘सलाह’ के प्रति ‘शाबाशी’ जाहिर की. पिछले साल दिसंबर में, दिल्ली हाई कोर्ट की जज जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने भी महिला वकीलों को सलाह दी कि वे ‘सक्षम बनें, बॉलीवुड फिल्में देखना छोड़ दें, अपनी खरीदारी कम करें और ब्यूटी पार्लर में बिताए गए अपने समय का भी परित्याग करें.’.

श्रम और सेवा कानून से जुड़े मामलों को संभालने वाले दिल्ली के वकील ने भी महिलाओं की बात आने पर आतंरिक रूप से व्यापत ‘महिलाविरोधी भावनाओं’ के बारे में बात की.

एक बार जब वह दिल्ली हाई कोर्ट में एक मामले पर बहस करने के लिए तैयार हो रही थी उसी समय हुई एक घटना को याद करते हुए वे कहती हैं, ‘दिल्ली हाई कोर्ट में बार के कई वरिष्ठ सदस्यों ने अन्य महिलाओं की पवित्रता को बनाए रखने और नैतिक रूप से उन्हें शिक्षा देने, या कभी-कभी उन्हें उनके दिखावे तक सीमित कर देने की जिम्मेदारी को अपने ऊपर ले लिया है.’

वह बताती हैं, ‘मेरा मामला एक ऐसे न्यायाधीश के सामने सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया था जो बहुत सख्त माने जाते थे और मैं इस मामले में सरकार का प्रतिनिधित्व कर रही थी. मैं इसलिए थोड़ा डरी हुई थी क्योंकि सरकार ने वह नहीं किया था जो उसे करना चाहिए था.’

जब उन्होंने अपने एक साथी वकील,  जो उनसे कुछ साल वरिष्ठ थे, से इस बारे में बात की, तो उन्होंने सुझाव दिया, ‘क्या आपके पास लिपस्टिक है? फिर क्यों न आप इसे लगा लें और फिर वहां जायें?

कुछ भी साबित करने से पहले खुद को साबित करना होता है

इंदिरा जयसिंह बताती हैं कि महिला वकील अपने ड्रेस कोड के संबंध में इतनी गहन छानबीन के दायरे में इसलिए होती हैं कि वे इसे आत्मसात कर लेती हैं और इसके बारे में संकोच महसूस करती हैं. वह इसे महिलाओं को नीचा दिखाने के तरीके के रूप में भी देखती हैं.

वह कहती हैं, ‘मुझे इस बात से सिर्फ गुस्सा ही आता है कि महिलाएं उनकी योग्यता की अवहेलना करते हुए पुरुष की निगाह में बनी रहती हैं. इस तथ्य के बावजूद कि महिलाएं अब इतनी बड़ी संख्या में अदालतों में हैं, लिंगभेद बना हुआ है.’

दीवानी वाणिज्यिक मुकदमे पर ध्यान केंद्रित करने वाली दिल्ली की एक अन्य वकील याद करती हैं कि 10 वर्षों से अधिक का अनुभव होने के बावजूद, उन्हें अक्सर उनके रूप रंग के बारे में टिप्पणियां सुनने की मिलती हैं. वह अपने मुवक्किलों के साथ बातचीत के बारे में बताती है, जो अक्सर उनसे पूछते हैं, ‘आप इतनी युवा दिखती हैं, क्या आपको लगता है कि आप इस मामले को संभाल सकती हैं?’ या फिर ‘आप बहुत प्यारी और छोटे कद की दिखती हैं, क्या जज आपकी बात सुनते भी हैं या हमें किसी और के पास जाने की ज़रूरत है?’ एक बार उनके साथ उनका एक बहुत कनिष्ठ पुरुष सहकर्मी भी था क्योंकि उनके मुवक्किल को इस बात का भरोसा नहीं था कि कोई महिला स्थिति को संभाल पाएगी.

वह आगे कहती हैं, ‘हम हर दिन इसका सामना करते हैं, जीवन के सभी क्षेत्रों में चाहे वे पेशेवर हो या व्यक्तिगत. लेकिन कानूनी उद्योग में एक सक्षम महिला होने के बावजूद, आपके पास अपने काम के अलावा भी साबित करने के लिए हमेशा बहुत कुछ होता है. दरसअल मैंने तो अदालत में बिंदी पहनना शुरू कर दिया है क्योंकि यह मुझे गंभीरता से लेने लायक बड़ी आयु वाला बना देता है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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