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पूर्व DGP बीएल वोहरा की नई किताब ने भारत में पुलिसिंग पर अहम सवाल उठाए

पत्रकार विजय क्रांति ने, जो वोहरा के साथ शरणार्थी शिविरों में पलकर बड़े हुए, उनकी जीवन यात्रा का सारांश कुछ यूं पेश किया: ‘भारतनगर के बेटे से बड़े होकर वो भारत के बेटे बन गए.'

(बाएं से दाएं) प्रवीण स्वामी, दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक; बी.एल. वोहरा, पूर्व आईपीएस अधिकारी; एन.एन. वोहरा, पूर्व राज्यपाल, जम्मू और कश्मीर; प्रकाश सिंह, पूर्व डीजीपी, यूपी और असम; भारत के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल सिद्धार्थ लूथरा और कोणार्क पब्लिशर्स के प्रबंध निदेशक केपीआर नायर शुक्रवार को नई दिल्ली में पुस्तक के विमोचन के अवसर पर | कोणार्क प्रकाशकों द्वारा फोटो

नई दिल्ली: पूर्व डीजीपी और रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी भूषण लाल वोहरा के पास भावी आईपीएस अधिकारियों के लिए एक सलाह है: ‘नियमों और अपने संविधान का पालन कीजिए और आपको असुविधा रहेगी.’

वोहरा अपनी आत्मकथा एन अनलाइकली पुलिस चीफ: फ्रॉम एंड टु जैसलमेर हाउस के लॉन्च के मौक़े पर बोल रहे थे.

उन्होंने कहा, ‘मुझे दिल्ली पुलिस से मणिपुर, फिर कश्मीर और दूसरी जगह (फेंका) गया, जबकि दूसरे लोग अपनी जगहों पर बने रहे. उसके लिए आपको कुछ उसूलों से समझौता करना होता है, जो मैं कभी नहीं करूंगा.’

कोणार्क पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक का शुक्रवार को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बहुत से प्रतिष्ठित अतिथियों की उपस्थिति में विमोचन किया गया, जिनमें पूर्व राज्यपाल जम्मू-कश्मीर एनएन वोहरा, यूपी और असम के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह, पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया सिद्धार्थ लूथरा, और दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक प्रवीण स्वामी शामिल थे.

आईपीएस बिरादरी में प्यार से ‘भूषी’ कहे जाने वाले भूषण लाल वोहरा 1967 में आईपीएस में शामिल हुए, और उनका एक उल्लेखनीय करियर रहा. भारतनगर के शर्णार्थी शिविर में पलकर बड़े हुए वोहरा ने आगे चलकर डीजीपी और मणिपुर तथा त्रिपुरा के गृह सचिव के रूप में काम किया, जहां उन्होंने विद्रोहियों के खिलाफ मोर्चा लिया.

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पत्रकार विजय क्रांति ने, जो वोहरा के साथ शर्णार्थी शिविरों में पलकर बड़े हुए, उनकी जीवन यात्रा का सारांश कुछ यूं पेश किया: ‘भरतनगर के बेटे से बड़े होकर वो भारत के बेटे बन गए.’

किताब पाठकों को वोहरा के दिलचस्प जीवना का सफर कराती है- दिल्ली के एक शर्णार्थी शिविर में एक विनम्र शुरुआत से- जहां 1947 के भयानक बटवारे के बाद उनके परिवार को नए सिरे से जीवन शुरू करना पड़ा- आईपीएस परीक्षा पास करने और 2004 में बतौर डीजीपी रिटायर होने तक. जैसलमेर हाउस में एक क्लर्क के तौर पर पहली नौकरी पाने से लेकर, इंसर्जेंसी के खिलाफ अपनी लड़ाई में बीएसएफ, सीआरपीएफ, और सीआईएसएफ जैसे विभिन्न केंद्रीय सशस्त्र बलों की अगुवाई, और अंत में 2002 में पुलिस महानिदेशक के तौर पर जैसलमेर हाउस में वापसी तक, पाठक वोहरा के पीछे पीछे चलता है, जब वो बहुत से संघर्षों का सामना करते हैं, पुलिस प्रणाली के बारे में सवाल उठाते हैं, और एक आईपीएस अधिकारी के नाते जीवन की जटिलताओं को खोजते हैं.

जैसलमेर हाउस ने वोहरी के जीवन में एक अहम रोल अदा किया. बिल्डिंग की अहमियत को याद करते हुए वोहरा ने कहा, ‘एक अवर श्रेणी लिपिक के तौर पर मेरी पहली नौकरी जैसलमेर हाउस में थी, और आईपीएस में शामिल होकर पुलिस महानिदेशक बनने के बाद मेरा ऑफिस फिर से जैसलमेर हाउस में था. बस पहले मैं ग्राउंड फ्लोर पर था, और बाद में फर्स्ट फ्लोर पर था. 36 सीढ़ियां चढ़ने में मुझे 38 साल लग गए.’

किताब के बारे में अपनी सराहना को साझा करते हुए, उत्तर प्रदेश और असम के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने कहा, ‘मुझे ये जानकर उत्सुकता हुई कि उनकी कहानी वास्तव में रंक से राजा बनने की दास्तान है’. उन्होंने आगे कहा, ‘हम में से कुछ के साथ वाक़ई ऐसा हो जाता है.’

सिद्धार्थ लूथरा ने कहा कि ये किताब ‘ईमानदारी, और साफ दिल की टिप्पणियों से भरी है, और इससे पुलिस के कामकाज की भीतरी बारीकियों का पता चलता है.’

प्रवीण स्वामी ने उन ‘दिलचस्प’ सवालों पर रोशनी डाली, जो वोहरा ने अपनी किताब में पूछे थे: एक अच्छे सिविल सेवक को कैसा होना चाहिए; उनकी पीढ़ी को किस तरह की मुश्किलात का सामना करना पड़ा; आज पुलिस में फंडिंग और संसाधनों की कमी, और देश की विभिन्न सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार.

लगभग सभी मौजूद मेहमानों ने वोहरा की दयालुता और उदारता पर रोशनी डाली. बहुत से मौक़ों को याद करते हुए, जब वोहरा लोगों की मदद के लिए आगे आए, लूथरा ने कहा, ‘उनके दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं, आप चाहे कोई भी हों और आपकी सामाजिक हैसियत चाहे कुछ भी हो.’

अपनी किताब के ज़रिए वोहरा का उद्देश्य ‘पुलिस अधिकारी के जीवन’ की वास्तविकताओं, कथित विलासिता के पीछे उनकी यात्रा और उससे जुड़े ड्रामे को दिखाना है, जिसे लोकप्रिय मीडिया उजागर करता रहता है.’

‘मैं मुश्किल से ही बॉलीवुड फिल्में देखता हूं जिनमें पुलिस अधिकारियों को दिखाया जाता है, और उन्हें बिरले ही पसंद करता हूं क्योंकि वो पुलिस के वास्तविक जीवन और उनके संघर्ष आदि को कभी नहीं दिखाते.’

अपनी आत्मकथा के अलावा, पूर्व डीजीपी ने 13 और किताबें लिखी हैं, जिनमें त्रिपुराज़ ब्रेवहार्ट्स: अ पुलिस सक्सेस स्टोरी ऑफ काउंटरइंसर्जेंसी और ह्यूमर इन ख़ाकी: एनेक्डोट्स, जोक्स एंड फनी साइड ऑफ पुलिस शामिल हैं.

वोहरा को 2018 में उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने विशिष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति पुलिस पदक ‘गुरू सम्मान’ से नवाज़ा था, और 2017 में अखिल भारतीय मानवाधिकार परिषद ने, मानवाधिकार संरक्षण के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था.

हालांकि वोहरा आख़िर में एक पुलिस अधिकारी बन गए, लेकिन उन्होंने कहा कि उन्होंने एक अध्यापक बनने का भी सपना देखा था. आज वो सिविल सेवा उम्मीदवारों को कोचिंग देते हैं, और व्यवहार कुशलता पर कॉर्पोरेट्स के लिए ट्रेनिंग वर्कशॉप्स आयोजित करते हैं.

जब उनसे पूछा गया कि सशस्त्र बलों के लिए हाल की अग्नीपथ भर्ती योजना, और उसके बाद हुए विरोध प्रदर्शनों पर उनके क्या विचार हैं, तो वोहरा ने कहा, ‘मुझे लगता है कि अग्नीपथ एक अच्छी स्कीम है, लोगों को नौकरियां मिलेंगी भले वो चार साल के लिए हों. वो अपने ख़ुद के और समाज के लिए उपयोगी बन जाएंगे. मेरा मानना है कि प्रदर्शन राजनीतिक ज़्यादा थे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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