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मनरेगा के शहरी संस्करण में दूर की सोच नहीं, मोदी सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डालकर समझदारी दिखाई है

शहरों में नहरों की खुदाई जैसे शारीरिक श्रम वाले कार्यों की गुंजाइश बहुत कम है. शहरी मनरेगा के लिए अपेक्षानुरूप रोज़गार प्रदान करना और बुनियादी सुविधाएं तैयार करना शायद संभव नहीं हो.

चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

ये प्रस्ताव कि सरकार को कोविड राहत के तौर पर शहरी क्षेत्र में रोज़गार का अधिकार लागू करना चाहिए, लॉकडाउन के दौरान नौकरी गंवाने वाले श्रमिकों के लिए एक तात्कालिक अस्थाई समाधान भर ही हो सकता है.

लेकिन यदि शहरी शासन की स्थिति तथा बुनियादी ढांचे, कानून व्यवस्था, जल, स्वच्छता, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, बिजली, सड़क, सार्वजनिक परिवहन, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए शहरों के पास उपलब्ध धन पर विचार किया जाए तो यह एक अदूरदर्शी विचार प्रतीत होता है.

समय बीतने के साथ, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का शहरी संस्करण ग्रामीण इलाकों के बेरोज़गारों को शहरों में, वहां के लिए ज़रूरी कौशल हासिल किए बिना, रोज़गार पाने के लिए प्रेरित कर सकता है. शहरी रोज़गार गारंटी के कारण वे इस बात की भी परवाह नहीं करेंगे कि शहरों में अतिरिक्त श्रमिकों की ज़रूरत है भी कि नहीं.


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शहरी मनरेगा के पक्ष में दलील

मनरेगा के तहत सरकार हर ग्रामीण परिवार के अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक वयस्कों को एक वित्तीय वर्ष में 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी देती है. रोज़गार के इच्छुक व्यक्ति को आवेदन करने के 15 दिनों के भीतर काम उपलब्ध नहीं कराए जाने पर वह बेरोज़गारी भत्ते का हकदार हो जाता है.

कोविड की वजह से हुए लॉकडाउन के कारण शहरी इलाकों में आर्थिक गतिविधियां ठप हो गईं और श्रमिकों के गांवों की ओर पलायन की उलटी प्रक्रिया शुरू हो गई. बड़ी संख्या में श्रमिकों की वापसी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में बने रोज़गार संकट को देखते हुए सरकार ने आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत मनरेगा के लिए अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपये आवंटित करने की घोषणा की.

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ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक संख्या में बेरोज़गारों की मदद सुनिश्चित करने के लिए मनरेगा में शामिल कार्यों के दायरे को भी बढ़ाया गया है. इन सबके परिणामस्वरूप मनरेगा ने ग्रामीण क्षेत्रों में आय बढ़ाने में योगदान दिया है. साथ ही, इसके कारण लोगों को ग्रामीण इलाकों में टिके रहने में मदद मिली, जोकि महामारी काल में भीड़ भरे शहरों के मुकाबले अधिक सुरक्षित साबित हुए हैं.

इसी पृष्ठभूमि में शहरी श्रमिकों के लिए रोज़गार गारंटी कार्यक्रम शुरू करने के विचार को आगे बढ़ाया गया है. इसके लिए ये दलील दी जा रही है कि शहरी क्षेत्रों के अनौपचारिक सेक्टरों में कार्यरत श्रमिकों की आय में भारी गिरावट देखने को मिली है. कहा जा रहा है कि चूंकि मज़दूरों के इस वर्ग के लिए सामाजिक सुरक्षा की कोई योजना नहीं है, इसलिए शहरी रोज़गार गारंटी कार्यक्रम के तहत मनरेगा का शहरी संस्करण शुरू किया जाना चाहिए.


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ग्रामीण बनाम शहरी

इरादे नेक होने के बावजूद यह प्रस्ताव अदूरदर्शितापूर्ण है.

ग्रामीण इलाकों में, आमतौर पर मनरेगा में नहर खोदने जैसे शारीरिक श्रम वाले ज़मीनी कार्यों को शामिल किया जाता है लेकिन शहरों में शारीरिक श्रम वाले अकुशल कार्यों की बहुत सीमित गुंजाइश है.

किसानों और खेतिहर मज़दूरों को फसल के दो मौसमों के बीच काम देने या रोज़गार की अस्थिर स्थिति से निपटने के लिए मनरेगा की परिकल्पना की गई थी ताकि उन्हें गरीबी की जकड़ में पड़ने से रोका जा सके. इस योजना में मज़दूरी पर अधिक ज़ोर दिया जाता है तथा सामग्रियों और प्रशासन को प्राथमिकता नहीं दी जाती है. श्रम केंद्रित कार्यों पर ज़ोर तथा ठेकेदारों और मशीनों के उपयोग की मनाही के कारण मनरेगा ग्रामीण बेरोज़गारी और आंशिक-रोज़गार जैसी समस्याओं के खिलाफ कारगर है. इस दलील में दम नहीं है कि शहरी क्षेत्रों में भी यह योजना रोज़गार देने के साथ-साथ सुविधाओं का सृजन कर सकेगी.

शहरों की बुनियादी सुविधाओं की लागत आमतौर पर अधिक होती है. इसलिए समान मात्रा में, उदाहरण के लिए निर्माण कार्यों में, श्रमिकों को रोज़गार देने पर कुल व्यय कहीं अधिक आएगा. यानि अपेक्षित व्यय और प्रति श्रमिक लागत का स्तर बहुत ऊंचा होगा.


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नगर निकायों की समस्या

शहरी मनरेगा के कारण श्रमिकों के ग्रामीण से शहरी इलाकों में पलायन ज़ोर पकड़ सकता है. ऐसा होने पर शहरी क्षेत्रों के पहले से ही खस्ताहाल बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा.

देश में मौजूद 4,000 से अधिक औपचारिक शहरों में से 10 प्रतिशत से भी कम में मलजल निकासी या सीवरेज लाइन व्यवस्था है. शहरों के 45 प्रतिशत से अधिक परिवार स्थानीय सफाई व्यवस्था पर आश्रित हैं. वहां सड़कों जैसी सार्वजनिक सुविधाएं अक्सर मानकों के अनुरूप नहीं होती हैं. छोटे कस्बों और शहरों का प्रशासन शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) के हाथों में होता है. लेकिन अधिकांश यूएलबी में ना तो पर्याप्त संख्या में कर्मचारी हैं, ना ही लोगों की बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं संबंधी मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त कुशल कर्मचारी. उनकी वित्तीय हालत भी अच्छी नहीं है— उनका खुद का राजस्व जीडीपी के मात्र 1 प्रतिशत के बराबर है.

माना जाता है कि पंद्रहवें वित्त आयोग ने स्थानीय निकायों और यूएलबी को धन का आवंटन बढ़ाए जाने की सिफारिश की है. यूएलबी के सशक्तिकरण के लिए स्मार्ट सिटी मिशन तथा अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत) जैसी योजनाएं ज़रूर शुरू की गई हैं लेकिन शासन और सेवा वितरण के संदर्भ में उनका प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं रहा है.

ग्रामीण इलाकों में मनरेगा के लिए जॉब कार्ड जारी करने का काम ग्राम पंचायतों का है लेकिन पहले से ही मौजूद प्रशासनिक समस्याओं के कारण यूएलबी के लिए ये काम चुनौती भरा होगा.

शहरों में रहने वाले हर वयस्क को साल में 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी देने वाला शहरी मनरेगा कार्यक्रम वित्तीय दृष्टि से भी चुनौतीपूर्ण होगा. अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक रिसर्च के मुताबिक ऐसी किसी योजना पर 4,50,000 करोड़ रुपये का खर्च आएगा.

रिपोर्टों के अनुसार धन की अनुपलब्धता के कारण शहरी मनरेगा शुरू करने के प्रस्ताव को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. सरकार ने पहले से ही इस साल अधिक उधार जुटाने की योजना बना रखी है और उसे जीएसटी संग्रह में कमी की भरपाई के लिए भी अतिरिक्त धन जुटाना पड़ेगा.

उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे भी समझदारी दिखाई जाएगी. शहरों पर अत्यधिक दबाव है और दिल्ली जैसे शहरों में कानून-व्यवस्था और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना पहले से ही एक बड़ी चुनौती है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि दीर्घकालिक समाधानों पर भी विचार किया जाएगा.

जब तक सुरक्षित रिहाइशी सुविधाओं, मज़बूत पारिस्थितिकीय आधार तथा जल और स्वच्छता जैसी बुनियादी सेवाओं की उपलब्धता के जरिए शहरों के निवासियों के जीवनस्तर में सुधार नहीं होता, मनरेगा के शहरी संस्करण की शुरुआत समाधान के मुकाबले कहीं अधिक समस्याएं पैदा करेगी. इसके लिए पहले शहरी स्थानीय निकायों के कामकाज में दूरगामी सुधारों की आवश्यकता है.

(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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