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अक्टूबर में चैन की सांस नवंबर में हुई ज़हरीली – जानिए पांच साल में कैसे टूटा पराली जलाने का रिकॉर्ड

नासा के फायर इंफॉर्मेशन फॉर रिसोर्स मैनेजमेंट सिस्टम (एफआईआरएमएस) से मिले आंकड़ों के अनुसार, नवंबर महीने के पहले आठ दिनों में ही पंजाब और हरियाणा में 33,000 से भी अधिक अगलगी वाले स्थान (फायर स्पॉट) देखे गए हैं.

दिल्ली स्मॉग | प्रतिनिधि छवि | सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

नई दिल्ली/बेंगलुरू: आपने अक्टूबर के महीने में सामान्य से कम प्रदूषित और अधिक सांस लेने योग्य हवा का स्तर देखा. लेकिन नवंबर में शुरू हुई सर्दी के साथ दिल्ली में प्रदूषण रूपी जहरीला दानव एक बार फिर पूरे दम-ख़म के साथ लौट आया है. आखिर ऐसा क्यों हुआ?

नासा के फायर इंफॉर्मेशन फॉर रिसोर्स मैनेजमेंट सिस्टम (एफआईआरएमएस) के उपग्रहों से मिलने वाले तस्वीरों के आंकड़ों (सैटेलाइट इमेजरी डेटा) के अनुसार, नवंबर के पहले आठ दिनों में पंजाब और हरियाणा में 33,000 से अधिक फायर स्पॉट – संभवतः खेतों में लगाई गई आग – देखे गए है. यह नवंबर के महीने के लिए पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा संख्या है.

साथ ही, दोनों राज्यों ने अक्टूबर में 18,000 के करीब खेतों में फायर स्पॉट देखे गए थे, जो इस महीने के लिए 2012 के बाद से सबसे कम संख्या है.

पंजाब और हरियाणा के खेतों में लगाई जाने वाली आग – रबी की बुवाई के लिए खेतों को तैयार करने हेतु पिछली फसल के अवशेषों को जलाने और कीटों को समाप्त करने के उद्देश्य से – के परिणामस्वरूप उठने वाले धुएं को उस घने स्मॉग (धुंए और कोहरे का मिश्रण) को भड़काने वाले कारकों में से एक माना जाता है जो हर साल सर्दियों के मौसम में पूरे उत्तर भारत को अपनी चपेट में लेता है और यहां के निवासियों का सांस लेना भी दूभर कर देता है.

यह सामान्य रूप से उपस्थित वायु प्रदूषण में और वृद्धि करता है, जो उत्तर भारत के भूगोल की सहायता से स्मॉग के लिए आदर्श स्थिति पैदा करता है

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नवंबर के पहले 9 दिनों में दिल्ली का औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक (एयर क्वालिटी इंडेक्स- ए.क्यू.आई.) 378 था, जो ‘बहुत खराब’ की श्रेणी में आता है

हालांकि, दिल्ली में इस अक्टूबर अपेक्षाकृत स्वच्छ हवा का अनुभव किया गया. इस साल अक्टूबर में औसत ए.क्यू.आई. 173 था, जिसे ‘मध्यम’ श्रेणी के रूप में वर्गीकृत किया गया है. पिछले पांच वर्षों में अक्टूबर के लिए औसत ए.क्यू.आई. 265 – या ‘खराब’ श्रेणी वाला था – जिसे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार इतना ख़राब बताया गया है कि इसमें लंबे समय तक iरहने से यह सांस लेने में तकलीफ का कारण बनता है.

पराली जलाने के मामले में इस साल अक्टूबर में छायी शांति और नवंबर में हुई बेतहाशा वृद्धि के लिए अनियमित बारिश को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसने खेती के पुरे सालाना कार्यक्रम (कैलेंडर) में उथल-पुथल मचा दी है.


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क्लीन अक्टूबर

नासा द्वारा 2007 में विकसित किए गए एफआईआरएमएस का उद्देश्य ‘प्राकृतिक संसाधन का प्रबंधन करने वाले लोगों (नेचुरल रिसोर्स मैनेजर्स), जिन्हें समय पर उपग्रह द्वारा इकठ्ठा की गई अगलगी सम्बन्धी जानकारी को प्राप्त करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता था, को वास्तविक समय में सक्रिय फायर साइट्स की जानकारी प्रदान करना है.

एफआईआरएमएस की वेबसाइट में बताया गया है कि ज्यादातर मामलों में इसमें चिन्हित की जाने वाली आग ‘पेड़ पौधों में लगी आग होती हैं, लेकिन कभी-कभी यह ज्वालामुखी विस्फोट या गैस के कुएं से भड़काने वाली आग भी हो सकती है.

एफआईआरएमएस द्वारा जारी किए गए नक्शे में अक्टूबर के मध्य से नवंबर की शुरुआत के बीच की अवधि में उत्तर भारत की उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों में स्पष्ट से रूप से घने आग के धब्बों – जिन्हे लाल रंग में दर्शाया गया है – के बीच आया भारी बदलाव दिखता हैं.

एफआईआरएमएस के आंकड़ों से पता चलता है कि 1 अक्टूबर से 8 नवंबर तक इस दोनों राज्यों द्वारा खेतों में लगाई गयी आग का केवल एक तिहाई हिस्सा ही अक्टूबर में लगाया गया था. 2020 में इस अवधि में इसी क्षेत्र में लगभग 32,000 खेत में आग लगने के मामले की सूचना मिली थी और 2019 में यह आंकड़ा 22,000 था.

नवंबर के पहले 8 दिनों में, इस साल इस इलाके में करीब 33, 000 फायर स्पॉट्स देखे गए. इसी समय काल के दौरान 2020 में लगभग 32,000, 2019 में लगभग 18,000, 2018 में लगभग 25,000 और 2017 में 16,000 खेत में आग लगाए जाने की घटनाएं सामने आईं थीं.


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नवंबर में क्यों बढ़ीं आग लगाए जाने की घटनाएं?

भारत में फसलों के मुख्य रूप से तीन मौसम होते हैं – खरीफ (मानसून), रबी (सर्दी), और ज़ैद (गर्मी).

मक्का, चावल, सोया, बाजरा, चाय और कपास जैसी खरीफ फसलें सामान्यतः जून में बोई जाती हैं और अक्टूबर में काटी जाती हैं. इनके लिए बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है.

इसके बाद रबी का मौसम आता है, जिसमें गेहूं, सरसों, रेपसीड (राइ या तोरिया), जई (ओट्स) और जौ जैसी फसलें नवंबर के मध्य तक बोई जाती हैं और अप्रैल तथा मई महीने में काटी जाती हैं. इन्हें ठंडे तापमान और कम पानी की आवश्यकता होती है.

इस साल देरी से हुई मानसूनी बारिश के कारण धान की बुवाई के समय को पीछे करना पड़ा और अक्टूबर में हुई बेमौसम बारिश ने सरकार को कम-से कम 10 दिनों के लिए फसलों की खरीद को स्थगित करने के लिए मजबूर कर दिया, क्योंकि फसल में नमी की मात्रा इसके लिए पूर्व निर्धारित मात्रा से अधिक पाई गई थी.

इससे फसल की कटाई में देरी हुई और अगली फसल की बुवाई के लिए बचा हुआ समय काफी कम हो गया.

पंजाब के रहने वाले कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने दिप्रिंट को बताया, ‘पहले से ही इस सब के लिए बहुत कम समय होता है. कटाई में ही दो सप्ताह लगते हैं और, इसके अलावा, किसानों को मंडी में फसल की पैकेजिंग, परिवहन और बिक्री सम्बन्धी कार्यों से भी निपटना पड़ता है.’

उन्होंने बताया कि ‘अगली फसल की बुवाई के लिए कुछ खास स्तर तक नमी की आवश्यकता होती है, इसलिए किसानों में इसे जल्द-से-जल्द – आमतौर पर नवंबर के दूसरे सप्ताह तक- बोने की प्रवृत्ति होती है. देरी से हुई बारिश और खरीद का मतलब यह है कि पहले से ही कम समय अवधि और भी कम हो गई है.’

फसलों की कटाई के बाद इसका कुछ हिस्सा अवशेष पदार्थ के रूप में बच जाता है, और भारत के कृषि अवशेष में धान और अन्य अनाज की फसलों का 70 प्रतिशत तक हिस्सा होता है.

भारत में फसली अवशेषों का उपयोग ज्यादातर पशुओं के लिए बिस्तर बनाने की सामग्री, पशुधन चारा, बायोगैस उत्पादन, जैव खाद/कम्पोस्ट, बायोमास ऊर्जा उत्पादन, घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए ईंधन आदि के रूप में किया जाता है, लेकिन इसका अधिकांश भाग जला दिया जाता है क्योंकि इसे खेत से हटाए जाने के कार्य को एक महंगी प्रक्रिया माना जाता है.

इसके अलावा, इन अवशेषो के जलने को कीटों और कवक (फंजाई) द्वारा उत्पन्न की जाने समस्याओं के सरल समाधान के रूप में भी देखा जाता है.

इन फसली अवशेषों की आग से निकलने वाला धुआं, उत्सर्जन, बायोमास के जलने और घरेलू ईंधन से उत्पन्न सामान्य वायु प्रदूषण के साथ मिल जाता है और उत्तर भारत की भौगोलिक स्थित और हवाओं की दिशा के कारण तुरंत फ़ैल कर साफ़ नहीं होता है. बंगाल की खाड़ी के तरफ से आने वाली हवाएं उत्तर की ओर चलती हैं, जो देश के बाकी हिस्सों से धुएं को हिमालय की ओर ले जाती हैं, और फिर वहां एक अवरोध से टकराती हैं. यह इस पर्वत श्रृंखला से सटे उत्तरी राज्यों की पट्टी में धुएं और धूल सहित कणिकीय पदार्थ (पार्टिकुलेट मैटर) जमा करे देते है और इस क्षेत्र में इसके बिखराव के लिए कोई जगह नहीं होती है.

एक मौसमी घटनाचक जिसे विंटर इनवेरसिओं के रूप में जाना जाता है, भी काम करने लगता है, जिससे प्रदूषकों का बिखराब बाधित होता है.

चूंकि फसल जलने से निकलने वाले धुंए में काफी मात्रा में पार्टिकुलेट मैटर भरा होता है, इसलिए यह नीचे बैठ जाता है, जिससे बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है.

क्या है समाधान

पिछले कई वर्षों से, पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने इस प्रथा को रोकने के लिए कई अलग-अलग कदम उठाए हैं. इसमें जागरूकता अभियानों के अलावा दोनों राज्यों द्वारा उद्योगों को इन अवशेषों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहन देना, और किसानों के लिए मौद्रिक छूट प्रदान करना (पंजाब की अपनी वित्तीय समस्याएं इसमें एक बाधा साबित हुई हैं) शामिल हैं. इसके अलावा, केंद्र सरकार ने पराली से निपटने के लिए बनाई गई मशीनरी के लिए सब्सिडी देने की भी बात की है.

देवेंद्र शर्मा कहते हैं कि पराली के प्रबंधन के लिए आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाना मशीनों के उपयोग से बेहतर काम कर सकता है.

उन्होंने कहा, ‘पंजाब में सालाना लगभग 200 लाख टन पराली का उत्पादन होता है, जिसका रख-रखाव किसी भी सरकार के लिए मुश्किल कार्य है. हालांकि, अगर सरकार किसानों को वित्तीय प्रोत्साहन देती है, तो वे इस विकल्प को चुनेंगे क्योंकि वे भी इस प्रथा से पीड़ित ही हो रहे हैं.’

पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित थिंक टैंक द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) में पर्यावरण और अपशिष्ट प्रबंधन के निदेशक सुनील पांडे ने कहा कि पराली जलाने की समस्या के लिए उन राज्यों के बीच आपसी समन्वय की कमी को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जो इससे सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.

वे कहते है, ‘पराली के जलाये जाने से कई अन्य राज्यों की वायु गुणवत्ता प्रभावित होती है, जो इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए अंतर-राज्यीय समन्वय की मांग करती है. इसकी अभी काफी कमी है. प्रभावित राज्यों की सरकारों को एक साथ मिलकर बैठना चाहिए और इस मौसम के शुरू होने से बहुत पहले बेहतर तरीके से इस बारे में आपसी समन्वय करना चाहिए.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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