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भारत में बेची जाने वाली 70% एंटीबायोटिक फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन दवाएं प्रतिबंधित हैं : स्टडी

शोधकर्ताओं का कहना है कि बेमतलब की फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेश पर अंकुश को लेकर सरकार के कदम अपर्याप्त और अमल में लाने को लेकर नाकाफी हो सकते हैं. यह अध्ययन जर्नल ऑफ फार्मास्युटिकल पॉलिसी एंड प्रैक्टिस में प्रकाशित हुआ है.

प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो : रायटर्स

नई दिल्ली : एक महत्वपूर्ण विश्लेषण में पाया गया है कि केंद्र द्वारा अस्वीकृत और प्रतिबंधित एंटीबायोटिक फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन (एफडीसी) दवाओं को हटाने की सरकारी पहल काफी हद तक अप्रभावी रही है, और 2020 में, भारत में बेचे जाने वाले ज्यादातर एंटीबायोटिक फॉर्मूलेशन अस्वीकृत या प्रतिबंधित थे.

एफडीसी दवाएं वे होती हैं जिनमें एक ही दवा में दो या दो से अधिक सक्रिय फार्मास्युटिकल इन्ग्रेडियंट्स (एपीआई) होते हैं, जो आमतौर पर एक निश्चित अनुपात (एक विशेष अनुपात में कण) में बने होते हैं.

विश्लेषण, जिसका शीर्षक ‘भारत में एफडीसी के विपणन का नियामक प्रवर्तन: सिस्टमेटिक एंटीबायोटिक दवाओं का एक केस स्टडी’ है और भारत, कतर और यूके के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, शुक्रवार को जर्नल ऑफ फार्मास्युटिकल पॉलिसी एंड प्रैक्टिस में ये प्रकाशित हुआ था.

इसमें पाया गया कि कुल एंटीबायोटिक बिक्री के अनुपात के तौर पर, एफडीसी की बिक्री 2008 में 32.9 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में 37.3 प्रतिशत हो गई है.

इसमें यह भी पाया गया कि हालांकि बाजार में एंटीबायोटिक एफडीसी फॉर्मूलेशन की कुल संख्या 574 (2008) से गिरकर 395 (2020) हो गई, लेकिन ज्यादातर विपणन फॉर्मूलेशन- 70.4 प्रतिशत या 395 में से 278 – अस्वीकृत या प्रतिबंधित थे.

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नई दिल्ली में पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया से जुड़ी स्वास्थ्य अर्थशास्त्री और पेपर की सह-लेखक आशना मेहता ने दिप्रिंट को बताया, “भारतीय एफडीसी समस्या जानी-पहचानी है.”

उन्होंने कहा, “नियामकों ने इस मुद्दे से निपटने के लिए कई पहल की हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिबंध लगे हैं. हालांकि, ऐसे प्रयासों के बावजूद, कई अस्वीकृत और प्रतिबंधित एफडीसी बाजार में बने हुए हैं.”

मेहता के अनुसार, वैश्विक स्तर पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध के बढ़ते स्तर की वजह से एंटीबायोटिक्स खासतौर से एक अहम सेगमेंट हैं.

उन्होंने आगाह किया, “बाजार का समय-समय पर सर्वेक्षण किया जाना चाहिए और प्रवर्तन को मजबूत किया जाना चाहिए.”

दिप्रिंट ने इन निष्कर्षों पर टिप्पणी के लिए भारत के औषधि महानियंत्रक राजीव सिंह रघुवंशी से टेलीफोन से संपर्क किया, लेकिन वह उपलब्ध नहीं थे. प्रतिक्रिया मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.


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भारत की एफडीसी समस्या

दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल से जुड़े एक फार्माकोलॉजिस्ट ने दिप्रिंट को बताया कि भारत में सभी दवाओं को राज्य दवा प्रशासन से मैन्युफैक्चरिंग लाइसेंस प्राप्त करने से पहले केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) से बेच जाने का अप्रूवल प्राप्त करना जरूरी होता है.

लेकिन एफडीसी के मामले में, उन्होंने कहा, कंपनियां सीडीएससीओ से बेचे जाने का लाइसेंस प्राप्त किए बिना राज्यों से मैन्युफैक्चरिंग लाइसेंस लेती हैं, जिसके लिए उन्हें दवा को लेकर चिकित्सीय जस्टिफिकेशन पेश करना होता है.

फार्माकोलॉजिस्ट ने कहा, “यह देखा गया है कि भारत में बेचे जाने वाले ज्यादातर एफडीसी में वैज्ञानिक तर्क का अभाव होता है, लेकिन एक ब्रांड बनाने के लिए उनका उत्पादन होता है और फिर आक्रामक तरीके से बेचा जाता है.”

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस साल जून में चिकित्सीय जस्टिफिकेशन की कमी और उनकी रोक को लेकर एक विशेषज्ञ समिति की सिफारिश का हवाला देते हुए 14 एफडीसी दवाओं पर प्रतिबंध के लिए एक गजट नोटिफिकेशन प्रकाशित किया था.

एफडीसी 344 दवा कॉम्बिनेशन के एक समूह का हिस्सा हैं, जिन्हें 2016 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित एक विशेषज्ञ पैनल के सुझाव के बाद सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, उन्हें “तर्कहीन” घोषित कर दिया गया था और पाया गया था कि उन्हें सुरक्षा और प्रभावशीलत पर वैज्ञानिक डेटा प्रूफ के बिना मरीजों को बेचा गया था.

चिंताजनक निष्कर्ष

ताजा विश्लेषण, जिसमें विभिन्न सरकारी दस्तावेजों और फार्मट्रैक डेटा को देखा गया, इसने पाया कि पिछले अध्ययनों से पता चला है कि भारत में दुनिया भर के बाजार में एंटीबायोटिक एफडीसी दवाओं की संख्या सबसे ज्यादा है और उनमें से कई संभावित रूप से अनुपयुक्त होने के कारण, एक विशेष और वैश्विक चिंता, जिसमें रोगाणुरोधी प्रतिरोध बढ़ जाने का जोखिम है.

भारत में, 2020 में बेची गई एंटीबायोटिक एफडीसी दवाओं की 4.5 बिलियन मानक इकाइयों में से, 41.5 प्रतिशत कॉम्बिनेश विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा “रिकमंडेड नहीं” के रूप में सूचीबद्ध थे.

शोधकर्ताओं ने लिखा है कि तर्कहीन एफडीसी दवाओं को हटाने की दिशा में सरकार और केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन ने अलग-अलग पहल के तहत दो महत्वपूर्ण उपाय किए थे, जो 2007 और 2013 में शुरू हुए थे, लेकिन उनके परिणामस्वरूप भारत की एफडीसी दवा मार्केट में थोड़ा ही बदलाव आया होगा.

शोधकर्ताओं के अनुसार, भारत ने लंबे समय से स्वीकार किया है कि इसकी बड़ी संख्या में केंद्रीय रूप से अस्वीकृत एफडीसी दवाएं हैं और इनमें से कई की भारी बिक्री सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता का विषय है क्योंकि सीडीएससीओ द्वारा सुरक्षा और प्रभावशीलता को लेकर उनका मूल्यांकन नहीं किया गया था.

विश्लेषण पत्र में कहा गया है, “हमारा अध्ययन स्थापित करता है कि बिक्री को नियंत्रित करने के लिए 2007 से नियामक पहल और उपायों के बावजूद, भारतीय बाजार में सैकड़ों अस्वीकृत एंटीबायोटिक एफडीसी फॉर्मूलेशन बने रहे, जो 2020 में बेची गई 4.5 बिलियन स्टैंडर्ड यूनिट्स में से 700 मिलियन से अधिक हैं.”

2020 में बेची गई अतिरिक्त एक तिहाई स्टैंडर्ड यूनिट्स (4.5 बिलियन में से 1.5) भारत में अप्रूव्ड एंटीबायोटिक, एफडीसी की थीं, लेकिन ये WHO द्वारा रिकमंडेड नहीं थीं. विश्लेषण के अनुसार, इस चिकित्सीय क्षेत्र में सीमित और देर से प्रगति हुई है.

इसमें कहा गया है कि 2020 में बेची गई औपचारिक रूप से अप्रूव्ड सिस्टमेटिक एंटीबायोटिक एफडीसी का हिस्सा लगभग 55 प्रतिशत था, जबकि 2008 में यह एक तिहाई से भी कम था.

साथ ही, शोधकर्ताओं ने पाया, फॉर्मूलेशन की संख्या कम होने के बावजूद, 2020 में लगभग दो-तिहाई (395 में से 239) बेचे गए फॉर्मूलेशन, मात्रा के हिसाब से एक-छठे (16 प्रतिशत) से अधिक थे, सीडीएससीओ द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र के साथ, जो अभी भी न तो औपचारिक रूप से स्वीकृत थे और न ही वास्तविक रूप से अप्रूव्ड.

विश्लेषण में पाया गया कि 2018 और 2019 में प्रतिबंधित 39 फॉर्मूलेशन 2020 में भी बाजार में बने रहे.

शोधकर्ताओं ने लिखा, “डब्ल्यूएचओ द्वारा रिकमंडेड न किए गए एफडीसी की 2019 में ऊंची बिक्री के हालिया शोध निष्कर्षों को देखते हुए और 2020 में 20 सबसे अधिक बिकने वाले सिस्टमेटिक एंटीबायोटिक एफडीसी में से 13 को डब्ल्यूएचओ द्वारा स्पष्ट रूप से अनुशंसित नहीं किया गया है, 2020 में सिस्टेमेटिक एंटीबायोटिक एफडीसी की कुल उच्च बाजार हिस्सेदारी 2008 की (33 प्रतिशत) की तुलना में (37 प्रतिशत) के साथ गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता का वजह है.”

पेपर में कहा गया है कि बेवजह की एफडीसी दवाओं को हटाने में धीमी और सीमित प्रगति “कमजोर, जटिल, बुरी तरह से टारगेटेड और अक्षम नियामक प्रवर्तन” का नतीजा थी.

(अनुवाद और संपादन : इन्द्रजीत)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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