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डिप्रेशन के मरीजों की देखभाल करने वालों की मेंटल हेल्थ पर भी पड़ता है असर

जो लोग मानसिक बिमारियों का शिकार होते हैं उनका ध्यान रखने वालों पर इसका काफी असर पड़ता है. उनका अपना जीवन और मानसिक स्वास्थ इस प्रक्रिया में बहुत प्रभावित होता है.

इलस्ट्रेशन- मनीषा, दिप्रिंट

नई दिल्ली: विश्व स्वास्थ्य संगठन का डेटा बताता है कि 2019 में लगभग एक अरब लोग मानसिक बीमारियों से जूझ रहे हैं. यानी दुनिया में हर 8 में से 1 व्यक्ति एंग्जायटी या डिप्रेशन का शिकार है. साल 2020 में आई कोरोना महामारी ने इस आंकड़े को बढ़ा दिया है.

टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक डिप्रेशन और एंग्जायटी के मामले 50 फीसदी महिलाओं में आम हैं. आंकड़ें बताते हैं कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं मानसिक बीमारियों के साथ ज्यादा जीती हैं.

भारत में आमतौर पर हम देखते हैं कि जब भी कोई बीमार पड़ता है तो घर की महिला पर उसकी देखभाल का बोझ बढ़ जाता है, लेकिन अगर बीमार होने वाली महिला ही हो तो? वो भी किसी मानसिक बीमारी का शिकार, ऐसे में स्थिति अलग हो जाती है.

अक्सर हम मानसिक बीमारियों से जूझ रहे लोगों की परेशानियों की बात करते हैं लेकिन उनकी देखभाल करने वाले लोग जिन समस्याओं से गुजरते हैं, उनका जीवन कैसे मानसिक रोगी की देखभाल करते हुए प्रभावित होता है, इस पर चर्चा नहीं होती है.

डिप्रेशन या किसी दूसरी मानसिक बीमारी से ग्रसित मरीज बहुत परेशान होता है, मरीज की अपनी चुनौतियां होती हैं लेकिन उसकी देखभाल करने वाले केयर टेकर को भी हर रोज चुनौतियों से जूझना पड़ता है.

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सोते समय अक्सर लोग अगले दिन की प्लानिंग करते हैं, दफ्तर में क्या पहनकर जाना है, उठकर खाना क्या बनाना है या फिर दूसरे इसी तरह के काम. लेकिन 26 साल की मनीषा (बदला हुआ नाम) के लिए जीवन थोड़ा अलग है. वह हर रोज यह प्रार्थना करके सोती है कि आने वाला दिन उसके लिए कम दिक्कतों भरा हो.

दरअसल मनीषा की मां को पैरानोया है. एक ऐसी मानसिक बीमारी जिसमें उन्हें लगता है कि सब उनके खिलाफ साजिश कर रहे हैं. वह ज्यादातर गुस्से में रहती हैं. मनीषा ही उनका ध्यान रखती हैं.

जो लोग मानसिक बिमारियों का शिकार होते हैं उनका ध्यान रखने वालों पर इसका काफी असर पड़ता है. उनका अपना जीवन और मानसिक स्वास्थ इस प्रक्रिया में बहुत प्रभावित होता है.

मनीषा पहले के मुकाबले भावनात्मक रूप से कमजोर महसूस करती हैं. वो कहती हैं, ‘कभी-कभी मां को संभालना इतना मुश्किल हो जाता है कि लगता है दीवार में अपना सिर मारने लगू.’

‘मैं जानती हूं वो कुछ भी खुद से नहीं कर रही हैं, लेकिन फिर भी एक समय पर आकर मेरी सहनशीलता जवाब दे जाती है. देखने वाले इस बात को नहीं समझ पाते हैं. उन्हें लगता है कि हम प्यार से स्थिति संभालें. मैं भी प्यार से ही संभालना चाहती हूं लेकिन कभी स्थिति ऐसी हो जाती है कि मैं अपना आपा खो बैठती हूं.’

मनीषा ने दिप्रिंट को बताया कि उनकी मां हमेशा घर के बाहर आने-जाने वालों लोगों के बारे में बात करती रहती हैं. पड़ोसी जो कुछ भी करते हैं उसे खुद से जोड़कर देखती हैं. कई बार मना करने के बाद भी वह नहीं मानती. और अगर उन्हें रोकने की कोशिश करते हैं तो चिल्लाने लगती हैं.

‘कई बार पड़ोसियों से लड़ाई हो चुकी है. लोग समझते नहीं है कि ये बीमार हैं.’

लेकिन इन सबका मनीषा पर क्या असर पड़ा?

वो कहती हैं कि मां की इस बीमारी को 8-9 साल बीत चुके हैं, मैंने काफी समय तक स्थिति को अच्छे से संभाला लेकिन अब मेरा भी ब्रेक डाउन हो जाता है.

‘मैं अक्सर टूट जाती हूं और चीखकर रोना चाहती हूं. मां की कमी तो महसूस होती ही है इसके साथ मानसिक तनाव भी रहता है जिसकी वजह से मुझे अब एंग्जायटी की शिकायत रहने लगी है. मुझे भी मां की तरह वहम होने लगा है. डर लगता है कि कहीं मुझे तो मां जैसी बीमारी नहीं हो जाएगी.’


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केयर गिवर बर्डन

दिल्ली में मौजूद मनौवैज्ञानिक डॉक्टर प्रवीण त्रिपाठी इस बारे में कहते हैं कि ऐसा होना बिल्कुल संभव है. हम ऐसे मामलों के लिए एक मेडिकल टर्म इस्तेमाल करते हैं- केयर गिवर बर्डन.

दिप्रिंट को त्रिपाठी बताते हैं, ‘मानसिक रोगी की देखभाल करने वालों पर एक समय के बाद एक तरह का बोझ आने लगता है. उनका जीवन भी काफी हद तक सीमित हो जाता है. घर पर मेहमानों को बुलाने में हिचकिचाने लगते हैं, बाहर जाने से बचने लगते हैं. त्योहार उतने अच्छे से नहीं मना पाते हैं.’

रिपोर्ट्स बताती हैं कि देखभाल करने की अनेक जिम्मेदारियों से लदे हुए लोग अक्सर कई वजहों से स्वयं डिप्रेशन की चपेट में आ जाते हैं. ऐसे केयर टेकर एंग्जायटी, गुस्सा और झुंझलाहट एक साथ महसूस करते हैं.

डॉक्टर त्रिपाठी बताते हैं, ‘एक समय पर आकर देखभाल करने वाले व्यक्ति के मन झुंझलाहट आ जाती है कि उनका जीवन भी इसमें खराब हो रहा है लेकिन इसी के साथ ऐसा सोचने का गिल्ट भी साथ आ जाता है. यह सब जब लंबे समय तक बढ़ता रहता है तो उनमें भी एंग्जायटी और डिप्रेशन के लक्षण आ सकते हैं. निर्भर करता है कि बीमारी कितनी गंभीर है और ध्यान रखने वाले कितने हैं.’

‘अगर आपके माता-पिता किसी मानसिक रोग का शिकार हैं तो 40 प्रतिशत तक चांस बढ़ जाता है कि आप भी उसकी चपेट में आ सकते हैं, इसके अलावा अगर आपका एक पैरेंट किसी बीमारी से जूझ रहा है तो आपके उससे ग्रसित होने का चांस 12 प्रतिशत तक बढ़ जाता है.’


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‘पहले फ्रस्ट्रेशन, फिर उदासी’

मानसिक बीमारियों से जूझ रहे मरीजों का ध्यान रखना अपन आप में एक चुनौती है. शारीरिक बीमारी से ग्रसित किसी व्यक्ति का ध्यान रखना और मानसिक बीमारी से ग्रसित किसी व्यक्ति की देखभाल करना, दोनों अलग-अलग चीजें है. दोनों ही तरह की स्थितियां किसी भी व्यक्ति के मेंटल हेल्थ पर अलग-अलग तरह का प्रभाव डालती हैं.

हरियाणा के रहने वाले 25 साल के रोहित तीन साल से अपनी मां का ध्यान रख रहे हैं जो डिप्रेशन की शिकार हैं.

रोहित इससे पहले अपनी दो ऐसी दोस्तों की देखभाल कर चुके हैं जो मानसिक बीमारी की चपेट में रहीं. वे बताते हैं, ‘पहले फ्रस्ट्रेशन होता था, फिर उदासी, उसके बाद गुस्सा आया और एंग्जायटी में बदल गया. अगर मरीज हमारा करीबी होता है और उससे हमारा कुछ रिश्ता होता है तो धीरे-धीरे इस प्रक्रिया में वह खत्म होने लगता है.’

दिल्ली में काउंसलिंग साइकॉलिजिस्ट के तौर पर काम कर चुकी हिमानी कुलकर्णी का कहना है कि जो लोग मरीजों के साथ लंबा समय गुजारते हैं उनके लिए ये उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाता है. ऐसे मामलों में मरीज का केयर टेकर्स के साथ रिश्ता एक जैसा नहीं होता.

वो कहती हैं, ‘देखभाल करने वालों के मन में गुस्सा आता है, उदासी होती है, कभी अपनी किस्मत को कोसने का मन करेगा, साथ में गिल्ट भी होगा. ऐसे भावों का मन में पैदा होना सामान्य है.’

रोहित अपनी मां की देखभाल करते हुए, घर से फ्रीलांस लिखने का काम करते हैं.

वो कहते हैं, ‘मुझे मां में मां नहीं दिखती. सिर्फ एक मरीज दिखता है. पहले मैं अपनी दोस्त को भी ऐसी स्थिति में संभाल चुका हूं. एक समय पर आकर मुझे अपनी फिक्र होने लगी थीं. अगर मैं खुद को बचा पाउंगा तभी किसी दूसरे का भी ख्याल रख पाउंगा.’


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केयर टेकर बर्न आउट

हिमानी बताती हैं कि यह एक ऐसी स्थिति होती है जब मरीज की देखभाल करने वाला व्यक्ति नंब पड़ जाता है. वह न तो खुशी के मौकों पर खुश हो पाता है और न ही दुख वाले समय पर दुख मना पाता है. किसी भी स्थिति में उसके भाव बंद हो जाते हैं. ऐसी स्थिति को हम केयर टेकर बर्न आउट कहते हैं.

रोहित की मां गंभीर डिप्रेशन से जूझ रही हैं. वे जब दिप्रिंट से फोन पर बातचीत कर रहे थे इसी बीच उनकी तबियत बिगड़ गई. रोहित की मां 22 दिन हरियाणा के एक एम्स अस्पताल में रहकर आई हैं और घर आने के बाद भी उनकी सेहत में कोई सुधार नहीं आया है.

इस दौरान एक वक्त ऐसा भी आया जब रोहित नए लोगों से बातें करने या मिलने-जुलने में संकोच करने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे वह खुद को बेहतर करने की कोशिश में लगे हैं.

काउंसलिंग साइकॉलिजिस्ट हिमानी कुलकर्णी बताती हैं कि भारत में मेंटल हेल्थ को लेकर स्थिति बेहद डराने वाली है. ऐसे में उनके केयर टेकर पर जिम्मेदारी का बोझ बढ़ जाता है. भारत में अक्सर ये परिवार वाले होते हैं जो मरीज की देखभाल करते हैं. चिंता तब बढ़ जाती है जब सारा बोझ एक ही व्यक्ति पर आ जाता है.

उन्होंने कहा, ‘अगर आप किसी केयट टेकर का बोझ कम करना चाहते हैं तो मरीज की जिम्मेदारी को बांट लेना चाहिए. ध्यान में रखना चाहिए कि सारा बोझ किसी एक व्यक्ति पर न आ जाए.’

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (निम्हंस) ने 2016 में देश के 12 राज्यों में एक किया था जिसके बाद सामने आए आंकड़े चिंताजनक हैं.

भारत के 15 करोड़ लोगों को किसी न किसी मानसिक समस्या की वजह से तत्काल डॉक्टर की सहायता की ज़रूरत है.

इसके अलावा साइंस मेडिकल जर्नल लांसेट की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 10 ज़रूरतमंद लोगों में से सिर्फ एक व्यक्ति को डॉक्टर की सहायता मिल पाती है.

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के आंकड़े बताते हैं कि लगभग 15% भारतीय वयस्कों को एक या अधिक मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता है और 20 में से एक भारतीय डिप्रेशन का शिकार है.

इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री के एक हालिया शोध से पता चला है कि भारत में प्रति 100,000 लोगों पर 0.75 मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक हैं.

हिमानी बताती हैं, ‘जब कोई मरीज मानसिक रोग के साथ डॉक्टर के पास आता है तो उसकी जिम्मेदारी बनती है कि मरीज की देखरेख करने वाले व्यक्ति से भी उसकी सेहत के बारे में पूछे, लेकिन भारत के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों पर पहले से ही इतना बोझ है कि यह संभव नहीं लगता, लेकिन ऐसी प्रैक्टिस को व्यवहार में लाने की जरूरत है.’


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