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भारत ने लद्दाख में चीन के लिए गतिरोध की स्थिति बना दी है, जो उसके लिए हार के समान है

चीन अपना राजनीतिक उद्देश्य हासिल करने के लिए सैनिकों को पीछे हटाने पर समझौता करना चाहेगा. भारत को सैनिकों को पीछे हटाने या तनाव घटाने की पहल पर सहमत होने की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए.

लद्दाख में भारतीय सैनिक टी-90 टैंक के ऊपर/ प्रतीकात्मक तस्वीर/फोटो: एएनआई

भारत और चीन ने पूर्वी लद्दाख में महीनों से चल रहे संकट का हल खोजने के लिए 18 दिसंबर को कूटनीतिक वार्ता दोबारा आरंभ की. विदेश मंत्रालय ने इस बारे में बताया, ‘दोनों पक्ष राजनयिक और सैन्य स्तर पर गहन विचार-विमर्श जारी रखने पर सहमत हुए हैं. इस बात पर भी सहमति बनी है कि वरिष्ठ कमांडरों की बैठक का अगला (9वां) दौर जल्दी आयोजित किया जाना चाहिए ताकि दोनों पक्ष मौजूदा द्विपक्षीय समझौतों और प्रोटोकॉल के अनुसार यथाशीघ्र एलएसी पर सैनिकों को आमने-सामने की स्थिति से पीछे हटाने की दिशा में काम कर सकें, और वहां पूरी तरह से शांति और सौहार्द बहाल हो सके.’

याद करें कि सीनियर कमांडरों की आठवें दौर की बैठक के पांच दिन बाद 11 नवंबर को भारतीय मीडिया ने कैसे बताया था कि कैलाश रेंज और पैंगोंग त्सो के उत्तर के इलाके से सैनिकों को हटाने को लेकर ‘समझौता’ बस होने ही वाला है. मैंने 13 नवंबर के अपने कॉलम में ऐसे किसी समझौते से जुड़े जोख़िमों पर प्रकाश डाला था — ‘अगर भारत कैलाश रेंज पर अपना नियंत्रण खोता है, तो पीएलए सुनिश्चित करेगी कि हम इसे कभी वापस हासिल नहीं कर सकें.’

हमारा मीडिया समय से पहले ही एक तरह से जीत का दावा करने लगा और उसके कारण ‘समझौते’ पर ग्रहण लग गया. मेरा आकलन है कि दोनों सरकारों की मुहर लगने से पहले सैन्य वार्ताओं के अगले दौर में इस समझौते को पुनर्जीवित और परिष्कृत किया जाएगा. इस तरह का कोई भी समझौता चीन को अपना राजनीतिक उद्देश्य प्राप्त करने में सक्षम बनाएगा, वो भी भारत की कीमत पर. इसके विपरीत, लद्दाख में गतिरोध चीन के लिए हार के समान है. मैं बताने की कोशिश करता हूं कि ऐसा क्यों है.


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चीन का सामरिक उद्देश्य

अप्रैल के अंत और मई की शुरुआत में, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने लद्दाख में कई स्थानों पर घुसपैठ करके ऑपरेशनल स्तर की चौंकाने वाली कार्रवाई की, और अपनी 1959 क्लेम लाइन पर दावा पेश करने के लिए दो मैकेनाइज्ड डिवीजनों को तैनात कर दिया. इसने भारत की अंतरराष्ट्रीय, क्षेत्रीय और सैन्य प्रतिष्ठा पर बट्टा लगाने का काम किया. इससे सीमावर्ती इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास का हमारा काम रुक गया, और चीनी तैनाती के कारण, तनाव के सीमित युद्ध का रूप लेने की स्थिति में एक बड़े इलाके की रक्षा हमारे सैनिकों के लिए संभव नहीं रह जाएगी.

रणनीतिक विश्लेषकों के लिए सबसे अधिक हैरान करने वाला सवाल ये है कि चीन ने कोविड महामारी के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर यथास्थिति को बदलने, पांच सीमा समझौतों को तोड़ने तथा साल भर खिंचे 1986-87 सुमदोरोंग चू संकट के बाद से 33 साल से जारी शांति को भंग करने का फैसला क्यों किया? विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भारत का आकलन पेश किए बिना 8 दिसंबर को बताया कि चीन ने सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा करने के पांच अलग-अलग कारण गिनाए हैं.

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प्रकट तौर पर, मौजूदा तनाव 1959 की क्लेम लाइन और ‘भिन्न धारणाओं’ पर केंद्रित है — जो शायद लंबे समय से बनी शांति को भंग करने का कारण नहीं हो सकता. खासकर, प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच ‘आमने-सामने’ की दो शिखर वार्ताओं के बाद, जिन्हें भारत-चीन संबंधों के लिए एक बड़ी प्रगति के रूप में देखा गया था. वास्तव में, भूभाग वेस्टफेलियन राज्य प्रणाली की बुनियाद होते हैं, लेकिन चीन ने 1950 के दशक में उन सभी सामरिक क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया था जिनकी कि उसे जरूरत थी, और 1962 के युद्ध में अतिरिक्त इलाकों पर नियंत्रण कर उसने इन क्षेत्रों को और अधिक सुरक्षित बना लिया.

तभी से ये अनसुलझी सीमा चीन के लिए अपना वर्चस्व जताने, भारत को शर्मिंदा/अपमानित करने तथा उसकी क्षेत्रीय, अंतरराष्ट्रीय और सैन्य प्रतिष्ठा को कमतर साबित करने का एक साधन रही है. इसका वास्तविक प्रभाव दोनों देशों की सैन्य क्षमताओं में ज़ाहिर अंतर और भारत की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है. 1962 में, इसने एक युद्ध का रूप ले लिया था, जबकि 1967 में नाथुला में और 1986-87 में सुमदोरोंग चू में विवाद गतिरोध की स्थिति में छूटा.

चीन चाहता है कि भारत एक जूनियर साझेदार के रूप में उसका साथ निभाए और अंतरराष्ट्रीय/क्षेत्रीय दायरे में उसका राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य प्रतिद्वंद्वी बनने की कोशिश नहीं करे. जब तक उसे स्थिति मनमाफ़िक नज़र आती है, सीमाओं पर शांति बनी रहती है. जहां तक भूभाग की बात है, तो चीन चाहता है कि 1959 की क्लेम लाइन प्रभावी हो, जिससे उसके द्वारा हड़पे गए इलाकों की सैन्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है. सीमावर्ती इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास के रूप में इस क्लेम लाइन पर बने किसी भी खतरे, को वह हदें पार किए जाने के तौर पर लेता है.

यह धारणा 2008 से 2020 के बीच धीरे-धीरे बदली है, जिसके कई कारण हैं:

  • अमेरिका के साथ भारत का रणनीतिक संबंध.
  • भारत का दक्षिण चीन सागर (एससीएस) और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी दृष्टिकोण को चुनौती देना.
  • भारत द्वारा आमतौर पर पूरी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) और खासतौर पर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपेक) का विरोध क्योंकि यह पाकिस्तानी कब्जे वाले भारतीय क्षेत्र से होकर गुजरता है.
  • डोकलाम में भारत की आक्रामक रणनीति.
  • जम्मू और कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में बदलाव, और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का आक्रामक बयान कि अक्साई चिन तथा पीओके/गिलगित-बाल्टिस्तान जम्मू कश्मीर/लद्दाख का हिस्सा हैं.
  • प्रधानमंत्री मोदी की एक अंतरराष्ट्रीय नेता की हैसियत राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए एक चुनौती के रूप में देखी जाती है.
  • लेकिन तात्कालिक कारण था भारत द्वारा देपसांग मैदान, गलवान घाटी, गोगरा-हॉट स्प्रिंग्स-कुगरंग नदी, पैंगोंग त्सो और चुमार के इलाकों में बुनियादी ढांचे का तेजी से विकास जोकि अक्साई चिन और चीन द्वारा हड़पे गए अन्य क्षेत्रों के लिए खतरे खड़े करता है.

इसीलिए चीन ने अपना वर्चस्व साबित करने के लिए एक रणनीतिक लक्ष्य तय किया, जिसमें शामिल हैं- एलएसी पर तनाव बढ़ाकर भारत को शर्मिंदा करना और उभरती शक्ति के रूप में भारत की अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय प्रतिष्ठा को कमजोर करना, मोदी के प्रभाव को कम करना, और अपनी शर्तों पर सीमाओं की स्थिति सुनिश्चित करना..

इसे कार्यान्वित करने के वास्ते चीन के सामरिक सैन्य उद्देश्य निम्नांकित थे:

  • भारत द्वारा सीमावर्ती इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास के कारण अक्साई चिन और अन्य क्षेत्रों के लिए बन रहे खतरे को बेअसर करना.
  • 1962 में छोड़ दिए गए या बाद में नहीं हड़पे गए क्षेत्रों में 1959 क्लेम लाइन तक स्थायी नियंत्रण स्थापित करना.
  • भारत को तनाव बढ़ाने के लिए बाध्य करना और ऐसा हुआ तो एक सीमित युद्ध थोपकर देसपांग मैदान-डीबीओ, गलवान-श्योक नदी जंक्शन तक के क्षेत्र, पैंगोंग त्सो के उत्तरी किनारे तक के सारे इलाके, कैलाश रेंज तथा लद्दाख रेंज तक सिंधु घाटी पर कब्जा करना.

क्या चीन अपने लक्ष्य हासिल कर पाया?

पीएलए ने चौंकाने वाली रणनीतिक पहल की और अचानक कार्रवाई करते हुए बिना कोई गोली दागे अपने सैन्य उद्देश्यों को हासिल कर लिया. भारत पीएलए की पहल को समय रहते नाकाम नहीं कर पाया तथा समस्या के स्वत: ही दूर होने की उम्मीद में या कम से कम इस आशा से कि पीएलए अतीत की तरह ही यथास्थिति के लिए सहमत हो जाएगी, इनकार, गोलमोल बयानों और तुष्टिकरण की नीति पर उतर आया. इस मोड़ पर, यही लगता है कि चीन ने अपने राजनीतिक और सैन्य उद्देश्य हासिल कर लिए हैं.

आखिरकार 15-16 जून की दरम्यानी रात की शर्मनाक घटना ने भारत की तंद्रा को तोड़ने और उसका सामरिक यथार्थ से साक्षात्कार कराने का काम किया, जब 20 भारतीय सैनिक लड़ते हुए शहीद हो गए. आगे और भूभाग गंवाना नहीं पड़े, इसके लिए भारतीय सशस्त्र बलों ने पीएलए की तैनाती के मुकाबले लगभग दोगुने स्तर की तैनाती को अंजाम दिया, साथ ही आक्रामक कार्रवाई के लिए रिज़र्व सैनिकों को भी तैयार रखने की पहल की. मोदी सरकार ने तनाव को नहीं बढ़ाने की समझदारी दिखाई, वरना पीएलए को आगे बढ़कर हासिल किए गए अहम इलाकों और अपनी अपेक्षाकृत मज़बूत सैनिक ताकत के कारण सामरिक बढ़त बनाने का बहाना मिल गया होता. सरकार राजनयिक और सैन्य वार्ताओं के दौरान यथास्थिति की बहाली को लेकर अपने रुख पर अड़ी रही.

29-30 अगस्त की रात जवाबी कार्रवाई के ज़रिए कैलाश रेंज पर नियंत्रण की भारतीय सेना की पहलकदमी ने पीएलए द्वारा हासिल फायदों को बेअसर कर दिया. इस समय, स्थिति अनिर्णायक नज़र आती है.


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गतिरोध चीन के लिए हार के समान है

इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन अपने वांछित उद्देश्य को हासिल करने में सक्षम नहीं हुआ है – कि भारत उसकी 1959 क्लेम लाइन को स्वीकार करे और बुनियादी ढांचे को विकसित करना बंद कर दे. भारत ने अपनी अंतरराष्ट्रीय और सैन्य प्रतिष्ठा को भी आंशिक रूप से बहाल कर पाया है. अपनी बात पूरी तरह थोपने के लिए अब चीन को तनाव को सीमित युद्ध का रूप देते हुए भारत की करारी हार सुनिश्चित करने की ज़रूरत पड़ेगी. श्रेष्ठतर ताक़त के रूप में, चीन युद्ध शुरू करने वाले देश के रूप में दिखना नहीं चाहता और भारत भी ऐसा नहीं करना चाहता है.

इसके अलावा, आगे भी गतिरोध की स्थिति बने रहने या नुकसान का डर भी चीन को आगे कदम बढ़ाने से रोकता है. जबकि कमतर सैनिक क्षमता और नुकसान का डर, जिसकी आशंका अधिक है, भारत को वर्तमान गतिरोध से परे किसी अन्य महत्वाकांक्षी सैन्य उद्देश्य की पहल करने से रोकता है.

हमें सैनिकों को पीछे हटाने या तनाव घटाने की पहल के लिए सहमत होने की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए. गश्ती/तैनाती/बुनियादी ढांचे के विकास की मनाही वाले बफर जोन के साथ या उसके बिना होने वाला कोई भी समझौता समग्र होना चाहिए, जिसमें काराकोरम से चुमार तक का पूरा एलएसी, और उसका सीमांकन भी शामिल हो.

सुमदुरोंग चू गतिरोध एक वर्ष से अधिक समय तक चला था और गतिरोध की स्थिति 1993 के सीमा समझौते की वजह बनी थी. आज हमारे पास वैसा ही अवसर है और हमें अपने रुख पर दृढ़ रहना चाहिए. कैलाश रेंज पर नियंत्रण के कारण, देपसांग मैदान और पैंगोंग त्सो के उत्तरी इलाके में भूभाग के सीमित नुकसान के बावजूद, हमने चीन को गतिरोध की स्थिति में ला खड़ा किया है. और गतिरोध एक श्रेष्ठतर ताकत के लिए हार के समान है!

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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