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डरने से हिचकिए मत और भरोसा रखिए निर्वाचित राजा लैला को ढूंढ़ लेगा

अमेरिका के विकास की कीमत आर्कटिक में वॉलरस को चुकानी पड़ती है और चीन का वाटर फुट प्रिंट पूर्वी अफ्रीका को अपना कचराघर बना रहा है.

भविष्य को जानने का बेहतर तरीका यह है कि उसे खुद लिखा जाए. दीपा मेहता को भविष्य का नर्क दिखाना था और उन्हें वो दिल्ली में नजर आया. तकरीबन उसी समय जब दीपा अपने नर्क की शूटिंग कर रहीं थी, दिल्ली में सर्वोच्च नेतृत्व संयुक्त राष्ट्र का पर्यावरण पुरस्कार ‘चैंपियन ऑफ द अर्थ ’ ग्रहण कर रहा था. दोनों के बीच अंतर्संबंध अपने–अपने चश्मे पर निर्भर करता है.

लेकिन पहले ये जान लीजिए कि लैला कौन है और क्या है

 लैला नेटफिल्क्स पर मौजूद एक वेबसीरीज का नाम है. वर्ष 2047 में घटने वाली इस कहानी में एक मां अपनी बच्ची (लैला) को ढूढ़ रही है जो स्वर्ग और नर्क की लड़ाई के बीच कहीं खो गई है. स्वर्ग यानी आर्यावर्त, विकास की चरम अवस्था और नर्क यानी दूष और मिश्रित रक्त वालों की बस्ती. आप इसे अपनी राजनीतिक सुविधा से दलित, मुसलमान, सर्वहारा कुछ भी कह सकते हैं.

इन सबके बीच है लैला जो मासूमियत का प्रतीक है. उसका बदलता और विकसित व्यवहार बताता है कि साफ पानी, साफ हवा, सुहावना मौसम यानी हर अनमोल चीज एक खास वर्ग के लिए है. लैला सुबह की हवा है जिसे हम पार्क में तेज – तेज सांस लेते हुए फेफड़ों में भर लेना चाहते हैं. वह गंगा के उद्गम की तरह है निश्चल और पवित्र.

लैला खो गई है और उसकी मां उसे ढूढ़ रही है. वह जानती है कि उसके भविष्य के लिए, समाज के जिंदा रहने के लिए लैला का मिलना जरूरी है. निर्वाचित सत्ता भरोसा दिलाती है लैला को ढूढ़ने का, वह भी उसकी पवित्रता के साथ. बस शर्त यह है कि पवित्रता की परिभाषा सत्ता तय करेगी. वैसे ही जैसे सरकारें तय करके हमें बताती हैं कि गंगा नब्बे फीसद साफ हो चुकी है.

निर्वाचित राजतंत्र लैला को ढूढ़ रहा है

निर्वाचित राजतंत्र को भी थोड़ा जान लीजिए. यह भविष्य की राजनीति में उपयोग होने वाला शब्द है जिसकी आहट हम आज सुन रहे हैं. निर्वाचित राजतंत्र में चुनाव होते हैं. लोग ही अपनी सरकार चुनते है और पूरे उत्साह के साथ चुनते हैं. बस संवैधानिक संस्थाए कुछ कमजोर हो जाती है जिनका काम सत्ता को रास्ता दिखाना है. निर्वाचित राजतंत्र में मीडिया की भूमिका नारे गढ़ने तक सीमित हो जाती है. और सामाजिक कार्यक्रमों को तीन तरह से लागू किया जाता है- झूठ बोलो, जल्दी-जल्दी बोलो और जोर-जोर से बोलो. इस सिस्टम में आम जनता डरने से हिचकिचाती नहीं है.

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तो यह निर्वाचित राजतंत्र लैला को ढूढ़ रहा है. केजरीवाल यमुना में, योगी गोमती में और केंद्र गंगा में.

प्रयाग अकबर के उपन्यास पर आधारित इस बेव सीरीज में पानी और प्रदूषण के अलावा राजनीति, जाति , धर्म और लिंग पर भी बात है. वैसे इस किताब को प्रयाग अकबर ने एकतरफा नीयत के साथ लिखा है और पानी-पर्यावरण को छोड़कर बाकि विषय उनकी कुंठा को ज्यादा दर्शाते है.


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बहरहाल निर्वाचित राजतंत्र और लैला को बड़े फलक पर देखने से तस्वीर साफ हो जाती है. अमेरिका के विकास की कीमत आर्कटिक में वॉलरस को चुकानी पड़ती है और चीन का वाटर फुट प्रिंट पूर्वी अफ्रीका को अपना कचराघर बना रहा है. चीन कांट्रेक्ट फार्मिंग के तहत उन फसलों को अफ्रीका के छोटे देशों में उगवाता है जिनमें पानी ज्यादा लगता है. यानी चीन उस फसल में लगने वाले पानी को अपने दूसरे कामों के लिए बचा लेता है और फसल का उपयोग भी करता है. इस प्रोसेस में किसी छोटे देश का भूजल तबाह होता है तो हो जाए.

लैला में भी तेजाबी बारिश दिखाई गई है वैसे ही जैसे बांग्लादेश में होती रहती है पर बांग्लादेश यह नहीं कह सकता कि किस वजह से उसके यहां यह कहर बरप रहा है. ठीक वैसे ही जैसे मध्यप्रदेश के अलीराजपुर की साण्डवा तहसील  के सरकारी अस्पताल में लगी पेट के मरीजों की भीड़. यहां के आदिवासी समझ ही नहीं पा रहे कि नर्मदा का बहता जल अब सरदार सरोवर का जलाशय कहलाता है, नाम ही नहीं बहुत कुछ बदल चुका है. उनकी नदी आर्यावर्त का हिस्सा है वे नहीं.

दीपा मेहता का आर्यावर्त उनके डर में समाया है और नर्क उन्हे दिल्ली के गाजीपुर और नेहरूप्लेस जैसी जगहों पर दिखा. लैला को ढ़ूढ़ना उनका उद्देश्य भी नहीं है वे इसे मुद्दा बनाकर ही संतुष्ट है. वैसे राजा लैला को ढूढ़ रहा है उसने दूध की थैली की कीमत में वृद्धि कर दी है (उत्पादन पर रोक नहीं है.), बाहर से आने वाली गाड़ियों पर हरितकर लगाया जा रहा है. पैसा देकर हवा साफ रखने की पूरी कोशिश की जा रही है वैसे ही जैसे गंगा को पैसा देकर साफ रखा जा रहा है हलांकि गंगा कई बार अपील कर चुकी है कि पैसा नहीं पानी चाहिए. उनकी कोशिशों का नतीजा है कि बारिश के दौरान कुछ दिन तक दिल्ली की हवा ‘साफ’ श्रेणी में थी.

बहरहाल भरोसा रखिए कि सबकुछ लील जाने से पहले राजा लैला को ढूंढ लेगा.

(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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