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‘विधानसभा के बजाय BJP ने 2024 पर अधिक ध्यान दिया’— उर्दू प्रेस ने 5 राज्यों के चुनावों पर क्या छापा?

पेश है दिप्रिंट का राउंड-अप कि कैसे उर्दू मीडिया ने पिछले सप्ताह के दौरान विभिन्न समाचार संबंधी घटनाओं को कवर किया और उनमें से कुछ ने इसके बारे में किस तरह का संपादकीय रुख इख्तियार किया.

रमणदीप कौर | दिप्रिंट

नई दिल्ली: भारत के सबसे प्रमुख उर्दू अखबारों में से एक सियासत के एक संपादकीय में कहा गया है कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने मतदान होने से पहले ही तेलंगाना में हार मान ली. यह संपादकीय पांच राज्यों में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों पर आधारित था.

28 नवंबर के संपादकीय में – तेलंगाना में 119 विधायकों को चुनने के लिए मतदान से दो दिन पहले – इस निष्कर्ष को निकालने के लिए तर्क भी दिया गया: इसमें कहा गया है कि सरकारें लोगों की समस्याओं को हल करने के लिए चुनी जाती हैं, लेकिन बीजेपी ऐसा करने को तैयार नहीं है. इसके बजाय, वह मंदिरों के नाम पर या मुफ्त राशन का लालच देकर वोट मांगती है.

संपादकीय में कहा गया है, “इन भाषणों और बीजेपी नेताओं के रुख से यह स्पष्ट है कि पार्टी ने तेलंगाना में चुनावी प्रक्रिया में समय से पहले हार मान ली है.” इसमें कहा गया है कि चूंकि बीजेपी “कुछ सीटें भी जीतने की स्थिति में नहीं थी, इसलिए अब यह कांग्रेस पार्टी और भारत राष्ट्र समिति के बीच सीधा मुकाबला है”.

सियासत इस सप्ताह चुनावों पर ध्यान केंद्रित करने वाला एकमात्र उर्दू अखबार नहीं था. जैसे-जैसे मतगणना का दिन नजदीक आया, इंकलाब और रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा ने चुनावों के बारे में कई संपादकीय प्रकाशित किए.

लेकिन चुनाव पर ध्यान केंद्रित करने के बावजूद, उर्दू अखबारों ने उत्तराखंड की सिल्कयारा सुरंग में बचाव अभियान और चीन में चल रही सांस की बीमारियों के “रहस्यमय” मामलों को महत्वपूर्ण स्थान दिया.

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यहां वे सभी समाचार हैं जो इस सप्ताह उर्दू प्रेस के पहले पन्ने और संपादकीय में शामिल हुए.

चुनाव

तीनों अखबारों ने उन पांच राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के लिए एग्जिट पोल प्रकाशित किए. अधिकांश एग्जिट पोल दिखाते हैं कि कांग्रेस छत्तीसगढ़ में सत्ता बरकरार रख सकती है और सत्तारूढ़ बीआरएस को हटाकर तेलंगाना में भी सरकार बना सकती है, जबकि बीजेपी मध्य प्रदेश में सत्ता बरकरार रख सकती है और राजस्थान में जीत की प्रबल दावेदार है.

30 नवंबर को, सियासत के संपादकीय में वही दोहराया गया जो उसने पहले कहा था. इसके अनुसार, ऐसा लगता है कि बीजेपी ने अगले साल होने वाले संसदीय चुनावों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, तेलंगाना में विधानसभा चुनाव को पूरी तरह से छोड़ दिया है. इसमें कहा गया है कि ऐसा मुख्य रूप से कर्नाटक चुनाव के कारण हुआ, जिसके कारण लगता है कि कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी गिरा है.

संपादकीय में कहा गया है कि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) को भी हैदराबाद के कुछ हिस्सों में प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है, तेलंगाना में बीआरएस और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है.

इसमें कहा गया है कि दोनों पार्टियों ने अपने चुनाव अभियानों में आक्रामक रणनीति अपनाई थी और एक-दूसरे पर हमला करने के हर मौके का फायदा उठाया था. संपादकीय में कहा गया है कि कांग्रेस अपनी छह गारंटियों पर ध्यान केंद्रित कर रही है – जिसमें किसानों, गरीब परिवारों और छात्रों के लिए कल्याणकारी योजनाएं शामिल हैं. बीआरएस राज्य में लगातार तीसरा कार्यकाल सुरक्षित करने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है.

29 नवंबर को इंकलाब ने कहा कि कांग्रेस ने राजस्थान चुनाव यथासंभव “सुखद और प्रभावी तरीके” से लड़ा.

संपादकीय में कहा गया है कि बीजेपी के भीतर असंतोष दिखाई दे रहा है. इसके अलावा, जबकि कांग्रेस के पास सीएम अशोक गहलोत के रूप में एक क्षेत्रीय नेता था, बीजेपी के पास ऐसा कोई क्षेत्रीय चेहरा नहीं था, इसके बजाय वह पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर निर्भर थी. इसमें कहा गया, “यही बात कर्नाटक में भी लागू की गई, जहां बीजेपी ने खराब प्रदर्शन किया था.”

संपादकीय में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को पार्टी के सीएम चेहरे के रूप में पेश नहीं करने के बीजेपी के फैसले के बारे में भी बताया गया है. इसमें कहा गया, “वह पार्टी का चेहरा हो सकती थीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.”

अपने 28 नवंबर के संपादकीय में, इंकलाब ने बीजेपी शासन के तहत दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों के खिलाफ अत्याचार में बढ़ोतरी के बारे में बात की. इसमें कहा गया है कि चुनावी सफलता की तलाश में बीजेपी समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों को महज वोट बैंक के रूप में देखती है.

संपादकीय में कहा गया, “हाल के सालोंं में एक प्रवृत्ति देखी गई है जहां दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय राजनीतिक रूप से बीजेपी के समर्थन में एक साथ आए हैं. हालांकि, साथ ही दलितों को दबाने और विरोध करने के ठोस प्रयास भी किए गए हैं.” इसमें आगे कहा गया है कि इस मार्च में संसद में गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने कहा था कि पिछले चार साल में दलितों के खिलाफ अत्याचार के 1,89,945 मामले दर्ज किए गए थे.


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अपने 27 नवंबर के संपादकीय में, सियासत ने पीएम मोदी और बीजेपी द्वारा किए गए वादों पर सवाल उठाया. इसमें कहा गया है कि जनता अब इन आश्वासनों पर विश्वास नहीं करती. यह महिलाओं के बीच विशेष रूप से सच था, यह जोड़ा गया.

संपादकीय में काला धन वापस लाने और प्रत्येक नागरिक के बैंक खाते में 15 लाख रुपये जमा करने के मोदी के वादे का जिक्र किया गया है.

इसमें पूछा गया, “लोग पूछ रहे हैं कि क्या नरेंद्र मोदी, जिन्होंने 2014 के संसदीय चुनावों से पहले हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये जमा करने का वादा किया था और सालाना दो करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था, अपने वादे पूरे किए या भूल गए.” 

इस बीच, सहारा के संपादकीय में कहा गया है कि इस बार उच्च मतदान राजनीतिक दलों की गणना में गड़बड़ी पैदा कर सकता है. इसमें कहा गया है, क्योंकि यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है कि जब मतदाता मतदान 70 प्रतिशत से अधिक हो जाता है तो चुनाव किस दिशा में जाएगा.

गौरतलब है कि चुनाव आयोग के अनुसार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम और राजस्थान में 70 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ. हालांकि, तेलंगाना में कम मतदान प्रतिशत दर्ज किया गया. चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में 64.12 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया.

अखबार के 26 नवंबर के संपादकीय में देश में बिगड़ते राजनीतिक विमर्श पर चिंता व्यक्त की गई है. इसमें कहा गया है कि राजनीतिक मतभेद और प्रतिद्वंद्विता व्यक्तिगत होने की एक सामान्य प्रवृत्ति है.

इसमें कहा गया है कि भारतीय राजनीति को ऐसी चीजों से मुक्त रखा जाना चाहिए, “राजनीतिक मतभेद किसी के निजी जीवन का हिस्सा नहीं बनना चाहिए. हालांकि किसी के विचारों से असहमत होने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन उनके नजरिए को खत्म करने की दिशा में काम करना गलत है.” 

इसमें आगे कहा गया, “सभी दलों को न केवल यह याद रखना चाहिए कि वे दूसरों का अनादर न करें बल्कि किसी को भी ऐसा करने की अनुमति न दें.”

उत्तराखंड सुरंग बचाव अभियान

समाचार पत्रों ने उत्तरकाशी की निर्माणाधीन सिल्क्यारा सुरंग में बचाव प्रयासों की कवरेज जारी रखी. 28 नवंबर को बचाव प्रयास सफल हुआ था. सुरंग का एक हिस्सा ढह जाने के बाद 17 दिनों तक फंसे 41 मज़दूर अंततः मुक्त होकर बाहर निकले.

अपने 1 दिसंबर के संपादकीय में, इंकलाब ने रैट माइनर्स फ़िरोज़ क़ुरैशी और मुनु कुमार और 12सदस्यीय बचाव दल के नेता वकील हसन को मान्यता देने का मामला बनाया.

इसमें कहा गया है, “इन तीन व्यक्तियों को भी वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए.” यह मांग इसलिए की गई क्योंकि “ये व्यक्ति सरकारी कर्मचारी नहीं हैं”.

चीन सांस संबंधी बीमारियों से जूझ रहा है

चीन में श्वसन संबंधी बीमारियों में वृद्धि, जिसमें बच्चों में निमोनिया के मामले भी शामिल हैं, ने उर्दू प्रेस को भी चिंतित कर दिया है. उर्दू प्रेस ने इसपर सवाल किया है कि वहां अज्ञात बीमारियां क्यों उभर रही हैं. पिछले महीने, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा था कि अस्पताल में भर्ती होने वालों की संख्या में बढ़ोतरी के पीछे सामान्य सर्दियों के संक्रमण हैं, जो गंभीर नहीं हैं.

अपने 30 नवंबर के संपादकीय में, सहारा ने कहा कि ठीक उसी तरह जैसे कि COVID-19 महामारी के मामले में, चीन जानकारी छिपा रहा था, हो सकता है इसबार भी ऐसा हो.

संपादकीय में कहा गया है, “जब डब्ल्यूएचओ ने रहस्यमय बीमारियों के बारे में पूछताछ की, तो चीन ने यह कहकर जवाब दिया कि स्थिति असामान्य नहीं है और स्वास्थ्य विभाग में सब कुछ सामान्य है.” इसमें कहा गया है कि चीन के स्वास्थ्य मंत्रालय का स्पष्टीकरण कोई नई बात नहीं है.

(संपादन: ऋषभ राज)

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