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इंडिया को पहले भी मिल चुका है ऑस्कर, लेकिन इस बार बात कुछ और है

इस साल मिले दोनों ऑस्कर इस मायने में खास हैं कि पहली बार किसी विशुद्ध भारतीय काम को ऑस्कर के मंच पर सराहा गया है.

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ऑस्कर अवार्ड, प्रतीकात्मक तस्वीर

13 मार्च की सुबह जब भारत में लोग नींद से जाग रहे थे सुदूर अमेरिका के एक ऑडिटोरियम में भारत और भारतीय सिनेमा को गौरवान्वित करने वाला इतिहास लिखा जा रहा था. लेकिन हैरानी है कि एसएस राजामौली की फिल्म ‘आरआरआर’ के गाने ‘नाटु नाटु…’ को सर्वश्रेष्ठ ओरिजनल गीत की श्रेणी में ऑस्कर से नवाजे जाने को लेकर लोग खुश भले ही हुए हों, हैरान नहीं हुए.

दरअसल कुछ महीने पहले 95वें ऑस्कर पुरस्कारों की सुगबुगाहटों के साथ ही यह माहौल बन गया था कि इस बार कम से कम दो ऑस्कर पुरस्कार तो भारतीय सिनेमा की झोली में आएंगे ही. इनमें से एक ऑस्कर ‘नाटु नाटु…’ और दूसरा शौनक सेन की डॉक्यूमैंट्री फीचर ‘ऑल दैट ब्रीथ्स’ के लिए सोचा जा रहा था.

हालांकि यह डॉक्यूमैंट्री तो अवार्ड नहीं ला पाई लेकिन कार्तिकी गोंजाल्विस के निर्देशन में बनी निर्मात्री गुनीत मोंगा की शॉर्ट डॉक्यूमैंट्री ‘द एलिफेंट व्हिसपरर्स’ के जीतने से भारतीय सिने उद्योग और सिनेप्रेमियों में हर्ष की लहर है. भारतीय सिनेमा के विश्व पटल और खासकर ऑस्कर के मंच पर इस कदर आत्मविश्वास भरे प्रदर्शन का माहौल इससे पहले कभी नहीं था.

पहली बार पूरी तरह भारतीय काम को मिला सम्मान

ये पल सचमुच खुशी मनाने के हैं. इस साल मिले दोनों ऑस्कर इस मायने में खास हैं कि पहली बार किसी विशुद्ध भारतीय काम को ऑस्कर के मंच पर सराहा गया है.

हालांकि ऑस्कर की सुनहरी मूरत ने इससे पहले भी भारत की मिट्टी को छुआ है पहली बार ऑस्कर का नाम भारत के साथ तब जुड़ा था जब फिल्म ‘गांधी’ के लिए भारतीय कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया को ऑस्कर मिला था.

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लेकिन इस फिल्म को एक विदेशी निर्माता के लिए एक विदेशी निर्देशक (रिचर्ड एटनबरो) ने बनाया था और मानने वाले आज तक यह मानते हैं कि वह एक ‘विदेशी’ फिल्म के लिए भारतीय प्रतिभा को मिला ऑस्कर था.

यही बात तब भी उछाली गई थी जब डैनी बायल की फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ के लिए अपने यहां के रसूल पुकुट्टी को साउंड डिजाइनिंग में और इसी फिल्म के लिए संगीतकार एआर रहमान व गुलजार को गाने ‘जय हो…’ के लिए ओरिजनल गीत व रहमान को ओरिजन संगीत की श्रेणी में ऑस्कर मिले थे.

यहां तक कि जिन गुनीत मोंगा की बनाई डॉक्यूमैंट्री ‘द एलिफेंट व्हिसपरर्स’ को इस साल ऑस्कर मिला है उन्हीं की एक अन्य डॉक्यूमैंट्री ‘पीरियड.एंड ऑफ सेंटेंस’ अभी चार बरस पहले ऑस्कर पा चुकी है.

पर चूंकि गुनीत उस डॉक्यूमैंट्री की सह-निर्मात्री थीं और उसकी डायरेक्टर रायका जेहताब्ची इरानियन मूल की अमेरिकी फिल्मकार, तो उस ऑस्कर को भी भारतीयों ने दिल से नहीं अपनाया था.

कह सकते हैं कि अभी तक आए ऑस्कर पुरस्कारों में कहीं न कहीं जुड़े रहे विदेशी नामों के चलते कदाचित एक कसक भारतीयों के मन में थी जो इस वर्ष दूर हुई है.


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लगान मूवी के बाद भारत में ऑस्कर का महत्त्व बढ़ा

हालांकि यह भी सच है कि हर साल जब भारत में ऑस्कर का शोर मचता है तो उसके पीछे का मूल कारण ‘अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म’ नाम की श्रेणी में किसी एक भारतीय फिल्म को भेजा जाना होता है.

इस पुरस्कार के लिए ऑस्कर वाले दुनिया के सभी देशों से वहां की किसी स्थानीय भाषा में बनी एक फिल्म चुन कर भेजने का आग्रह करते हैं. 1958 में महबूब निर्देशित ‘मदर इंडिया’ को भेजे जाने के बाद से शुरू हुए इस सिलसिले में अभी तक महज तीन बार हमारी कोई फिल्म अंतिम पांच फिल्मों में नामांकन ला सकी है.

इनमें से पहली ‘मदर इंडिया’ थी, दूसरी मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ और तीसरी आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’. यहां यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि ‘लगान’ के नामांकित होने के समय इसके निर्माता आमिर खान ने जिस तरह से अमेरिका जाकर वहां के लोगों और ऑस्कर अकादमी के सदस्यों के बीच अपनी फिल्म के प्रति हवा बनाने का काम किया था उसके बाद ही भारत में ऑस्कर को लेकर गंभीर माहौल बना और न सिर्फ भारतीय दर्शकों ने इस तरह उत्सुकता से देखना शुरू किया बल्कि भारतीय सिनेमा से जुड़े लोगों में भी इस दिशा में गंभीरता से प्रयास करने का जज्बा पैदा हुआ वरना एक मानद ऑस्कर तो 1992 में भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे को मिल ही चुका था जिसे देने के लिए खुद वे लोग कोलकाता तक आए थे.

हर साल होता रहा है विवाद

‘अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म’, जिसे पहले ‘विदेशी भाषा की फिल्म’ कहा जाता था, में फिल्म भेजे जाने को लेकर भी हर साल विवाद उठते हैं और आरोपों-प्रत्यारोपों के दौर चलते हैं. कभी किसी कमजोर फिल्म को भेजने पर विवाद होता है तो कभी किसी खास व्यक्ति या विषयवस्तु की फिल्म भेजे जाने को लेकर.

लेकिन पिछले साल इस बहस का एक नया रूप तब देखने को मिला था जब गुजराती की ‘छेल्लो शो’ को भारत से आधिकारिक तौर पर ऑस्कर की दौड़ में भेजा गया था. पिछले साल यह बहस ‘सही फिल्म बनाम अच्छी फिल्म’ को लेकर हो रही थी.

‘छेल्लो शो’ को सभी लोग अच्छी फिल्म तो कह रहे थे लेकिन बहुत सारे लोग इसे ऑस्कर के लिए ‘सही फिल्म’ नहीं मान रहे थे. बहुत सारे लोगों का यह कहना था कि ‘आरआरआर’ को भेजा जाना चाहिए था.

यहां तक कि एक प्रमुख विदेशी पत्रिका ने तो इस फिल्म को तीन-चार श्रेणियों में ऑस्कर दिए जाने की भविष्यवाणी भी कर डाली थी. खुद इस फिल्म को बनाने वाले भी अमेरिका में इसे मिले रिस्पांस को लेकर काफी उत्साह में थे.

अब जब इस फिल्म के गाने को ऑस्कर मिला है तो ये स्वर फिर से उठे हैं कि इस फिल्म को भेज कर हम सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म का वह पुरस्कार भी कब्जा सकते थे जिसे पाने की आस पिछले 65 बरसों से हर भारतीय सिनेप्रेमी के मन में है. वरिष्ठ फिल्म आलोचक पंकज शुक्ल कहते हैं कि ‘छेल्लो शो’ कथ्य के आधार पर अनुपम फिल्म है लेकिन ऑस्कर में दूसरे देशों के सिनेमा को टक्कर देने के लिए ‘आरआरआर’ या ‘रॉकेट्री’ को ही भेजना बेहतर होता.

संयोग है कि ‘आरआरआर’ व ‘रॉकेट्री’ दोनों ही दक्षिण भारतीयों द्वारा बनाई गई फिल्में हैं और गुनीत मोंगा की पुरस्कृत डॉक्यूमैंट्री ‘द एलिफेंट व्हिसपर्स’ भी दक्षिण भारतीय समाज को ही दिखाती है.

बहरहाल, समारोह खत्म हो चुका है. पुरस्कार बंट चुके हैं. अब सिर्फ दो बातें हो सकती हैं. पहली तो यह कि भारतीय सिनेमा और इससे जुड़े लोगों के ऑस्कर पाने पर खुशी मनाई जाए, गर्व किया जाए और दूसरी यह कि अपने यहां की किसी फिल्म को अभी तक ऑस्कर न मिल पाने को लेकर भारतीय दर्शकों के मन में बैठ चुके मलाल को भी आने वाले समय में भारतीय सिनेमा दूर कर पाए, ऐसी तैयारी और कोशिशों में तेजी लाई जाए. यह समय नशे में चूर होने का नहीं, उत्सव मना कर आगे की तैयारियों में लगने का है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)


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