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गोवा के बच्चों ने जाना श्रम का महत्व, जीते 60 पार 60 से ज्यादा दादियों के दिल!

यह आयोजन जिस दृष्टिकोण के तहत किया गया था उसे 'मूल्यवर्धन के समग्र शाला दृष्टिकोण' नाम दिया गया है. इस दृष्टिकोण का अर्थ है स्कूल में स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों का प्रतिबिंबित होना

60 साल की उम्र पार कर चुकी आनंदी नाईक को याद नहीं कि वे अपनी उम्र के किस साल से खेतों में काम कर रही हैं. वे बस इतना जानती हैं कि उन्होंने पहले पिता और बाद में पति के खेत में लंबे समय तक काम किया है. वे कहती हैं, ‘सालों तक खेतों से गाड़ियां भर-भरकर धान उगाने पर भी पैसों के लिए मेरा हाथ हमेशा तंग रहा. पर, बिना हारे-थके मैं अपने दोनों बेटों को पालती-पोसती रही, पढ़ाती-लिखाती रही. आज उन्हें इस लायक बना दिया कि दोनों सरकारी नौकरी कर रहे हैं.’

पूछने पर उन्हें साल 2019 की वह तारीख भी याद नहीं, जब अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस के मौके पर पणजी से करीब 40 किलोमीटर दूर पेडणे तहसील में हसापुर गांव के सरकारी माध्यमिक स्कूल के बच्चों ने उन्हें सम्मानित किया गया था. लेकिन, आनंदी नाईक 8 मार्च को हुए इस समारोह की एक-एक बात अच्छी तरह से बता सकती हैं. उस समय के दृश्य को याद कर उनकी आंखे भर आती हैं. वे कहती हैं, ‘ये मेरे खुशी के आंसू हैं. मेरे जिस काम को किसी ने नहीं समझा, उसे छोटे बच्चों ने जाना. मेरा सत्कार किया. मुझे एक नारियल और साल दिया. मुझे आनंद आया, बहुत आनंद आया.’


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इस दृष्टिकोण से मिली नई दृष्टि

यह आयोजन जिस दृष्टिकोण के तहत किया गया था उसे ‘मूल्यवर्धन के समग्र शाला दृष्टिकोण’ नाम दिया गया है. इस दृष्टिकोण का अर्थ है स्कूल में स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों का प्रतिबिंबित होना. ये मूल्य कक्षा के वातावरण, स्कूल के वातावरण, स्कूल की दैनिक कार्य-प्रणाली और वर्ष भर होने वाले कार्यक्रमों की योजना में दिखना चाहिए.

इसमें विद्यार्थी, केंद्र प्रमुख, स्कूल प्रबंधन समिति, प्रधानाध्यापक और शिक्षक स्कूल के वातावारण के प्रमुख शिल्पकार होते हैं. स्कूल में सामाजिक वातावरण को बनाए रखने के लिए इन सभी के योगदान को शामिल किया जाता है. इस दृष्टिकोण को किसी स्कूल में कैसे अच्छी तरह से लागू किया जा सकता है, इसके लिए यह सरकारी स्कूल आदर्श साबित हो सकता है.

बता दें कि इस मराठी माध्यम की स्थापना वर्ष 1963 में की गई थी. मराठा समुदाय बहुल हसापुर करीब डेढ़ हजार की आबादी वाला गांव है. यहां के अधिकतर लोग किसान हैं, जो अपने खेतों में मुख्यत: धान और गन्ना उगाते हैं.

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यहां के स्कूल में वर्ष 2016 से मूल्यवर्धन कार्यक्रम चल रहा है. इसके तहत यहां पहली से चौथी तक के बच्चों की गतिविधियां आयोजित हो रही हैं. पहली से चौथी तक कुल 43 बच्चे हैं. इन कक्षाओं के लिए प्रधानाध्यापक नारायण मोर्जे सहित कुल चार शिक्षक-शिक्षिकाएं नियुक्त हैं.

इन्हीं में से एक शिक्षिका हैं- रजनी चोदणकर, जिन्होंने जून 2018 को पर्वरी में मूल्यवर्धन के समग्र शाला दृष्टिकोण का प्रशिक्षण लिया था. उनकी मानें तो इसके तहत स्कूल ने बच्चों के सहयोग से पूरे साल होने वाले कार्यक्रमों की योजना को सूचीबद्ध किया है. सूची में कुल 10 कार्यक्रम हैं. इसी कड़ी में महिला दिवस के मौके पर स्कूल ने बच्चों और उनके परिजनों के साथ मिलकर बुजुर्ग महिलाओं को सम्मानित करने का कार्यक्रम किया गया.

बता दें कि इसमें 60 से 90 साल तक की उम्र की उन महिलाओं को सम्मानित किया गया, जो पूरी जिंदगी घर, खेत, खलिहान और दुकानों पर काम करती हैं, फिर भी आमतौर पर उनके काम को काम नहीं माना जाता. परिवार की आर्थिक गतिविधियों में हाथ बंटाने के बावजूद ऐसी महिलाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता. यहां तक कि कई बार खुद उन्हें भी लगने लगता है कि उन्होंने अपने परिवार और समाज के लिए कुछ विशेष नहीं किया.

रजनी की मानें तो यह कार्यक्रम कई मायनों में अनूठा था. वे बताती हैं, ‘मैं पहले से महिला संगठन से जुड़ी रही हूं. एक शिक्षिका और खास तौर पर मूल्यवर्धन की शिक्षिका होने के नाते भी मुझे लगा कि हमारे बच्चे हमारे समुदाय की उन बुर्जुग महिलाओं के प्रति आदर भाव रखें, जिनके काम को महत्त्वहीन समझा जाता है.’

मूल्यवर्धन की गतिविधि से आया विचार

इस समारोह को आयोजित करने के बारे में रजनी मूल्यवर्धन की एक गतिविधि से जुड़ी घटना सुनाती हैं. वे कहती हैं कि उस दौरान कैसे कुछ बच्चों ने उन्हें बताया था कि उनके परिवार के ही कुछ सदस्य उन्हें दादी से बात करने से रोकते हैं. बच्चों की ऐसी प्रतिक्रियाओं ने रजनी को भावुक कर दिया. इसके बाद वे सितंबर, 2018 में बच्चों को हसापुर से 10 किलोमीटर दूर पिर्णा नाम की जगह पर स्थापित एक वृद्धाश्रम ले गईं.

वृद्धाश्रमों के वृद्धों से उनके पिछले काम और परिवार के लिए उनके योगदान को समझने के लिए बच्चों ने समूह बनाकर उनसे साझात्कार लिए. रजनी के शब्दों में, ‘बुजुर्गों के मुंह से उनकी कहानियां सुन बच्चे बहुत भावुक हो गए थे और वहां से लौटते हुए हमने तय किया कि हम कुछ करेंगे.’

पहले यही काम इसलिए लगा था मुश्किल

नारायण मोर्जे को इस काम के बारे में पहले लगा था कि यह आसान नहीं होगा. उनका मानना था कि विचार के स्तर पर यह उनके लिए एकदम नई और बड़ी चुनौती होगी. यह पूरा कार्यक्रम समुदाय की भागीदारिता और चंदे पर होना था. इसलिए, आशंका थी कि इस मुद्दे पर समुदाय से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली तो! लेकिन, जब कार्यक्रम हुआ तो उन्हें यह देख अच्छा लगा कि पूरा गांव इस आयोजन में शामिल हुआ.

नारायण कहते हैं, ‘अक्सर देखा गया है कि ऐसी बुजुर्ग महिलाओं को वैसा आदर नहीं मिलता, जिसकी वे हकदार होती हैं. बहुत मेहनत करने के बावजूद कई बार उनके पति शराब पीकर उन्हें पीटते हैं. इसलिए, इस कार्यक्रम के दौरान कुछ महिलाएं मंच पर ही रोने लगी थीं.’

रजनी बताती हैं कि जब उन्होंने पालकों की बैठक बुलाई तो पालकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर उन्होंने राहत महसूस की. फिर आयोजन के लिए हर पालक और बच्चे को जिम्मेदारी सौंपी गई. बुजुर्ग महिलाओं की सूची और उनके लिए निमंत्रण-पत्र बनाने, उन्हें बुलाने तथा पूरे कार्यक्रम को संचालित करने का काम बच्चों और उनके पालकों ने मिलकर सम्पन्न किया.

समाज-सेविका प्रतिभा बापट के मुताबिक, ‘कार्यक्रम में कई महिलाएं बीमार होने के कारण आ नहीं सकी थीं. इसलिए, हम लोग इसी दिन दोपहर बच्चों के साथ उनके घर गए और उन्हें सम्मानित किया.’

इस आयोजन के बारे में बच्चों से चर्चा करने पर वे पूरी जिम्मेदारी से अपनी बात रखते हैं. चौथी के सोहम मलिक कहता है, ‘हमने गांव की दादियों जो नारियल दिए गए थे, वे हमारे स्कूल के झाड़ से ही तोड़े गए थे.’

इसी तरह, तीसरी के आशुतोष नारुलकर की दादी को उसी के सामने सम्मानित किया गया था. वह अपना अनुभव सुनाते हुए कहता है, ‘उस दिन घर पहुंचकर मैंने दादी से बात की थी. उन्होंने कहा था, उन्हें पूरा गांव परिवार जैसा लगने लगा है.’

महिलाओं ने बढ़-चढ़कर लिया हिस्सा

इस कार्यक्रम की विशेषता यह थी कि बुजुर्ग महिलाओं को सम्मान देने के मुद्दे पर बच्चों की माताएं सबसे आगे रहीं. इस बारे में सुहानी नाईक बताती हैं, ”इसमें उन महिलाओं के सम्मान की बात थी, जो हमारे आस-पड़ोस रहती हैं, पर उन्हें हमने कभी सार्वजनिक रूप से सम्मानित नहीं किया था.”

नेहा मलिक के मुताबिक ऐसी महिलाओं को घर-घर जाकर मंच तक लाना उनके नए नया अनुभव था. गीतांजलि गवस के लिए यह पहला मौका था, जब उनकी सास को गांव के सरपंच ने फूल मालाओं से सम्मानित किया था. विजया मलिक के शब्दों में, ‘मैं भावनात्मक तौर पर पहले से ही अपने बुजुर्गों से जुड़ी रही हूं, पर इस कार्यक्रम से पता चला कि अपनी भावनाओं को जताना भी जरूरी होता है.’ वहीं, रुचिका नाईक की मानें तो, ‘मैंने ऐसे कार्यक्रम से जाना कि समूह में कैसे काम करते हैं. इससे महिलाएं संगठित होंगी.’


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अब घर-घर जाकर करेंगे बात

‘हमारे बड़े क्या काम करते हैं’, ‘देखभाल करने वाली लड़की’, ‘महिलाओं का योगदान’, ‘महिलाओं का आदर करना’ और ‘महिला नेतृव्य’- ये मूल्यवर्धन की वे गतिविधियां हैं, जिसे रजनी ने सूचीबद्ध किया है. उनके मुताबिक वे इन गतिविधियों के माध्यम से बच्चों में सक्रिय योगदान, दूसरों के प्रति चिंता और जिम्मेदारी जैसे मूल्यवर्धन के मूल्य आत्मसात कराने की कोशिश कर रही हैं.

आगे उनके पास ऐसी योजना है जिसमें बच्चे घर-घर जाकर बुजुर्ग महिलाओं का साक्षात्कार लेंगे और उनकी जीवनी लिखेंगे. स्पष्ट है कि मूल्यवर्धन के समग्र शाला दृष्टिकोण के कारण बच्चों को मूल्यवर्धन के मूल्य आत्मसात करने का मौका तो मिल ही रहा है, स्कूल और समुदाय के बीच मजबूत और जीवंत संबंध भी बन रहा है.

अंत में रजनी सिर्फ इतना कहती हैं, ‘इस तरह के काम करते हुए मुझे खुद बहुत आनंद आया, पर यह पर्याप्त नहीं है.’

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