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भावनाओं और ‘सर्वाइवल थ्रिलर’ से भरपूर ‘मिली’ जिंदगी जीने का सबक देती है

2019 में निर्देशक मथुकुट्टी जेवियर मलयालम में अपनी पहली फिल्म ‘हेलन’ लेकर आए थे जिसे कई पुरस्कारों के अलावा दो राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे.

मिली फिल्म का पोस्टर | क्रेडिट : ज़ी स्टूडियोज

देहरादून में अपने पिता के साथ रह रही 24 साल की मिली नौडियाल कनाडा जाने वाली है. एक रेस्टोरेंट में काम करती है. उसका एक ब्वॉयफ्रेंड भी है. अचानक एक रात वह गायब हो जाती है. सब उसे तलाश रहे हैं लेकिन वह तो अपने ही रेस्टोरेंट के फ्रीजर रूम में बंद है. क्यों? किसने किया यह? ऐसा करने के पीछे क्या वजह थी? कैसे मिलेगी वह? किस हाल में? जिंदा या…!

2019 में निर्देशक मथुकुट्टी जेवियर मलयालम में अपनी पहली फिल्म ‘हेलन’ लेकर आए थे जिसे कई पुरस्कारों के अलावा दो राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे. बरसों से दक्षिण की फिल्मों के अधिकार लेकर उन्हें हिन्दी में बनाते आए निर्माता बोनी कपूर ने उस फिल्म के भी अधिकार खरीदे और उन्हीं मथुकुट्टी से अपनी बेटी जाह्नवी कपूर के लिए यह फिल्म बनवा डाली.


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फिल्म की ‘ताकत’

एक ही फिल्म को दूसरी बार बनाते समय जो सहजता होनी चाहिए, वह इस फिल्म में भी है जो इसे ताकत देती है. रितेश शाह ने हिंदी की स्क्रिप्ट सधे हाथों से लिखी है.

किरदारों को बहुत ही सहजता के साथ देहरादून में फिट किया गया है और इस शहर को शायद ही पहली बार किसी फिल्म में इस कदर ‘इस्तेमाल’ भी किया गया है. संवाद सरल हैं, प्यारे लगते हैं. इस किस्म की ‘सर्वाइवल थ्रिलर’ फिल्मों को देखना दर्शकों को इसलिए भी सुहाता है क्योंकि इसके मुख्य किरदार अकसर इंटेलिजेंट होते हैं. फ्रीजर में फंसने के बाद खुद को जिंदा रखने के लिए की जा रही मिली की तमाम कोशिशें इसकी गवाही देती हैं. ऐसी फिल्मों का ज़रूरी तनाव ही फिल्म को सफलता से रच पाती है. फ्रीजर का टेंपरेचर जैसे-जैसे कम होता जाता है, जैसे-जैसे उसके भीतर ठंडक बढ़ती है, वैसे-वैसे दर्शक की हथेलियों का पसीना भी बढ़ता है. यही इस फिल्म की सफलता है. अलबत्ता शुरूआती दृश्यों को थोड़ा और कसा जाना चाहिए था.

कैमरा, प्रोडक्शन और मेकअप का तालमेल

जाह्नवी कपूर अपने किरदार में पूरी तरह से समाई हैं. उनके काम में अनुशासन दिखाई देता है. सन्नी कौशल असर छोड़ते हैं. मनोज पाहवा वक्त आने पर बता जाते हैं कि वह कितने काबिल अभिनेता हैं. एक पिता जिसकी बेटी लापता है, उसके भावों और भंगिमाओं को वह सहजता से दर्शा पाते हैं. बुरे पुलिस वाले के रूप में अनुराग अरोड़ा और अच्छे पुलिस वाले के तौर पर संजय सूरी प्रभावित करते हैं. रेस्टोरेंट के मैनेजर के किरदार में विक्रम कोचर असरदार भी रहे और मजेदार भी. बाकी के कलाकार भी अच्छा काम कर गए.

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कैमरा, प्रोडक्शन और मेकअप मिल कर फ्रीजर के भीतर के दृश्यों को बेहद असरदार बना पाने में कामयाब रहे हैं. गीत-संगीत थोड़ा और बढ़िया होना चाहिए था. मिली की कहानी के बरअक्स यह फिल्म पिता-पुत्री के संबंधों पर भी बात करती है. फिल्म बताती है कि अपने बच्चों की कोई बात किसी तीसरे से पता चले तो मां-बाप को ठेस पहुंचती है. इस बहाने से यह फिल्म सीख भी दे जाती है, कोई लेना चाहे तो.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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