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Friday, 19 April, 2024
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ओवैसी की AIMIM फिर हुई UP की परीक्षा में फेल; 97 में से नहीं जीत पाई एक भी सीट, मिले 0.59% वोट

एआईएमआईएम ने 97 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उनके भाषणों को लोगों की ‘तारीफ’ तो खूब मिली लेकिन यह वोटों में तब्दील नहीं हुई और मुसलमानों ने सपा पर ही भरोसा जताया.

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हैदराबाद: पूरी आक्रामकता के साथ अपनी पार्टी के घरेलू मैदान हैदराबाद से आगे विस्तार की कोशिशों में लगे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुसलमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी हिंदी भाषी क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रहे हैं. 2017 की तुलना में 2022 के चुनाव में तीन गुना अधिक सीटों पर मैदान में उतरी उनकी पार्टी पिछली बार की तरह इस बार भी अपना खाता खोलने में नाकाम रही.

2017 में एआईएमआईएम ने यूपी की 403 सीटों में से 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था और लगभग दो लाख वोट हासिल किए, और उसका वोट-शेयर लगभग 0.2 प्रतिशत रहा था. इस बार, उसने 97 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन इस बार भी एआईएमआईएम एक भी सीट नहीं जीत सकी. हालांकि, सीटों की संख्या बढ़ने की वजह से वोट शेयर भी बढ़कर 0.46 प्रतिशत हो गया है.

यूपी चुनावों के लिए पार्टी ने बाबू सिंह कुशवाहा और भारत मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन किया था. विश्लेषकों की राय है कि पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन दर्शाता है कि ओवैसी यूपी के मुसलमानों को यह समझाने में नाकाम रहे हैं कि वे भाजपा के खिलाफ एक मजबूत विकल्प हैं. चुनाव आयोग के डेटा के मुताबिक एआईएमआईएम को यूपी विधानसभा चुनाव में बमुश्किल 3.4 लाख वोट मिले हैं.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में राजनीतिक विश्लेषक और सहायक प्रोफेसर अजय गुडावर्ती ने कहा, ‘मुसलमान बहुत सावधानी से मतदान कर रहे हैं और उनका पूरा ध्यान किसी ऐसे व्यक्ति को चुनने पर केंद्रित है जो भाजपा का मुकाबला कर सके. ओवैसी एक ऐसे नेता के तौर पर उभरने में नाकाम रहे हैं.’

गुडावर्ती के मुताबिक, मुसलमानों को यह भरोसा नहीं था कि एआईएमआईएम ने ‘काउंटर पोलराइजेशन’ से इतर क्षेत्रीय दलों का एक ‘वैकल्पिक एजेंडा’ सामने रखा है. उन्होंने कहा कि बड़ी संख्या में मुसलमानों को यह ‘संदेह’ भी रहा कि उन्होंने समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोटों को काटने के लिए कथित तौर पर भाजपा के साथ हाथ मिला रखे थे.

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उन्होंने कहा, ‘ओवैसी के भाषणों की तारीफ तो हुई लेकिन यह वोटों में नहीं बदली. और खासकर शिक्षित मध्यम वर्ग वाले इलाकों या युवाओं के बीच उन्हें लेकर थोड़ा-बहुत रुझान दिखा. पूर्व में पारंपरिक रूप से सपा या कांग्रेस को वोट देने वाले मतदाताओं की निष्ठा अपनी पार्टी के प्रति ही रही. वे एक मजबूत मुस्लिम चेहरे के तौर पर ओवैसी की ओर ज्यादा आकृष्ट नहीं हुए.’

उत्तर प्रदेश में ओवैसी की पिच काफी सीधी रही है—राजनीतिक और नेतृत्व वाली भूमिकाओं में मुसलमानों का बेहतर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना और समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव और अत्याचारों को मिटाने के लिए संघर्ष करना.


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‘सपा के वोट बैंक में नहीं लगा पाए सेंध’

उत्तर प्रदेश की 19 फीसदी मुस्लिम आबादी का एक बड़ा वर्ग अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का समर्थन करता है, और माना जा रहा था कि एआईएमआईएम इस वोट-शेयर में सेंध लगा सकती है. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सबसे अच्छी बात यह है कि इसका असर मामूली ही रहा है और ओवैसी सपा के लिए ‘वोट-कटवा’ होने के अपने वादे पर खरे नहीं उतर पाए हैं.

पोल सर्वे फर्म पीपुल्स पल्स के रविचंद ने कहा, ‘मुसलमान चुप्पी साधे रहे हैं. 73 विधानसभा क्षेत्रों में उनका वोट-शेयर 30 प्रतिशत से ज्यादा है. वे सिर्फ उस पार्टी को वोट देना चाहते थे जो भाजपा को हराने में सक्षम हो. इसमें एमआईएम फैक्टर कुछ खास नहीं कर पाया.’

उनके मुताबिक, यह तो संभावित ही था कि ‘80 प्रतिशत मुसलमानों’ ने सपा को वोट दिया और ओवैसी को एक गंभीर राजनीतिक विकल्प के बजाय ‘भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद की तरह पोस्टर बॉय’ के तौर पर अधिक देखा गया.

रविचंद ने कहा, ‘केवल वही लोग उनकी तरफ आकृष्ट हो सकते हैं जिनके पास फोन की पहुंच है और सोशल मीडिया पर ओवैसी के भाषण देखते-सुनते हैं. इसके अलावा कोई खास असर नहीं पड़ता.’

गुडावर्ती ने कहा कि उत्तर प्रदेश के हापुड़ में ओवैसी पर हमले पर मौन प्रतिक्रिया इसका संकेत है कि राज्य में नेता का कोई खास जनाधार नहीं है. उन्होंने कहा, ‘यहां तक कि इस पर भी कोई हो-हल्ला नहीं मचा. यदि वे वास्तव में उन्हें एक मजबूत नेता के रूप में मानते तो समुदाय की तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं आनी चाहिए थीं.’

हैदराबाद की गलियों से लेकर महाराष्ट्र, बिहार तक पहुंचे

बहरहाल, हैदराबाद की संकरी गलियों में जन्मी एआईएमआईएम ने एक लंबा सफर तय किया है, खासकर पिछले कुछ वर्षों में उसने इस क्षेत्र से आगे निकलकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है. तेलंगाना में इसकी सात विधानसभा सीटें हैं और हैदराबाद की लोकसभा सीट भी इसके खाते में है.

ओवैसी की पार्टी ने कुछ सफलताएं भी हासिल की है.

2020 के बिहार चुनावों में एआईएमआईएम ने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा और इनमें से पांच पर जीत हासिल की जो 2015 के उसके निराशाजनक प्रदर्शन—जब जमानत तक जब्त हो गई थी—की तुलना में एक बड़ी सफलता कही जा सकती है.

महाराष्ट्र में 2019 में पार्टी ने औरंगाबाद लोकसभा सीट जीती जो कि एआईएमआईएम के लिए दूसरी संसदीय सीट बन गई. पार्टी ने राज्य में अपनी दो विधानसभा सीटों को भी बरकरार रखा.

हालांकि, अन्य राज्यों में विस्तार में उसे इतनी सफलता नहीं मिली. पार्टी पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और झारखंड में अपने पैर जमाने में नाकाम रही और यूपी में भी वह अपनी अपेक्षा के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाई.

गुडावर्ती का मानना है कि अगली बार चुनाव लड़ते समय पार्टी एक मजबूत गठबंधन पर विचार कर सकती है. उन्होंने कहा, ‘धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ गठबंधन ओवैसी की संभावनाओं को बेहतर बना सकता है.’

खासकर यह देखते हुए कि एआईएमआईएम ने पश्चिम बंगाल के विपरीत, महाराष्ट्र और बिहार में अन्य दलों के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था.


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