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Monday, 4 November, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावइस ‘बालाकोट चुनाव’ में भी महाराष्ट्र के ‘मिलिटरी गांव’ की सुध नहीं ली जा रही

इस ‘बालाकोट चुनाव’ में भी महाराष्ट्र के ‘मिलिटरी गांव’ की सुध नहीं ली जा रही

अपशिंगे गांव के हर परिवार से कोई-न-कोई सेना में है, पर स्थानीय पूर्व सैनिकों का मानना है कि सैनिक आज राजनीतिक मोहरा भर रह गए हैं, और मोदी को बालाकोट के नाम पर वोट नहीं मांगना चाहिए.

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सतारा: महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक मंदिर के बरामदे में, हर शाम की तरह, कुछ लोग बैठे हैं. उनमें से अधिकांश सेवानिवृत्त सैनिक हैं, और एक तो दो फौजियों का पिता भी है. उनमें से एक ने सामने बाइक पर जाते एक युवक की ओर इशारा करते हुए बताया कि वह भी सैनिक है और इस समय जम्मू कश्मीर में तैनात है.

अपशिंगे गांव में प्रथम विश्व युद्ध के जमाने से ही परंपरा रही है कि हर परिवार का कम-से-कम एक सदस्य फौज में जाएगा. पर, इन दिनों चुनावी भाषणों में नेताओं द्वारा सेना का उल्लेख किए जाने के चलन पर 2,707 लोगों (2011 की जनगणना के अनुसार) की इस बस्ती में संदेह का भाव ही दिखता है.

बाबा पाटिल के नाम से जाने जाते 85-वर्षीय इंदुराव पाटिल गांव के सबसे बुजुर्ग युद्ध नायक हैं.


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उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मेरे दादाजी प्रथम विश्व युद्ध में लड़े थे, जबकि मेरे पिताजी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया था. मैंने 36वें मराठा तोपखाना के सदस्य के रूप में 1962 के भारत-चीन युद्ध में भाग लिया था.’ यह सब बताते हुए पाटिल बड़े चाव से अपने रेजिमेंट की 57 साल पुरानी एक तस्वीर दिखाते हैं जो कि 1962 में शहीद हुए लोगों को श्रद्धांजलि के तौर पर खींची गई थी.

उन्होंने कहा, ‘हर साल, यह गांव सेना में सेवानिवृत्त होने वालों से अधिक संख्या में सैनिक भेजता है.’

चर्चा राजनीति की ओर मुड़ते ही, पाटिल के स्वर में कड़वाहट साफ झलकने लगती है. उनका कहना है कि सशस्त्र सेनाओं के प्रति राजनीतिक दलों के अनुराग भाव दिखाने के बावजूद किसी ने उनके गांव पर ध्यान नहीं दिया है.

‘मिलिटरी गांव’ पर सरकार का ध्यान नहीं

पाटिल की पत्नी ताराबाई एक सिवानिवृत्त शिक्षिका हैं. उनका कहना है कि अपने योगदान के लिए गांव को मिली एकमात्र पहचान है इसे ‘मिलिटरी अपशिंगे’ का नाम दिया जाना. हालांकि उनके अनुसार, ‘गांव को ‘मिलिटरी अपशिंगे’ का नाम भी ब्रितानी सरकार ने दिया था, न कि भारत सरकार ने.’

गांव में प्रवेश करते ही, मंदिर के बरामदे के दूसरी ओर, एक छोटा-सा स्मारक है जो कि स्थानीय लोगों के अनुसार ब्रितानियों ने प्रथम विश्व युद्ध में अपशिंगे के 47 सैनिकों की शहादत की स्मृति में बनवाया था.

ताराबाई ने कहा कि महाराष्ट्र के दो मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण (1960-62, राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री) और मारोतराव कन्नमवार (1962-63) पद पर रहते हुए, दिखावे के लिए ही सही, पर कम-से-कम एक-एक बार उनके गांव आए थे.

वह कहती हैं, ‘आज के बड़े-बड़े मंत्रियों ने तो इस ओर झांकने तक की ज़हमत नहीं उठाई है.’

ग्रामीणों का कहना है कि मौजूदा सरकार के सिर्फ एक मंत्री सदाभाऊ खोत ने उनके गांव का दौरा किया है. और, वह गांव के इतिहास से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसे गोद लेने का फैसला किया.

हेमंत निकम एक स्थानीय दुकानदार हैं जिनके पिता और भाई सेना में रहे हैं. निकम ने बताया, ‘उन्होंने (खोते ने) कुछ काम किए. स्थानीय सांसद ने बाकी जगहों की तरह यहां भी अपने फंड के कुछ पैसे खर्च किए. पर, इस गांव के योगदान को देखते हुए विशेष रूप से कुछ नहीं किया गया.’

अपशिंगे गांव सतारा संसदीय क्षेत्र में पड़ता है जिसके लोकसभा सांसद इस समय राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के उदयनराजे भोसले हैं. वह मराठा योद्धा शासक छत्रपति शिवाजी के वंशज हैं. इस बार लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में यहां 23 अप्रैल को मतदान होना है.

निकम ने कहा, ‘हमारी मांग इस गांव के नाम पर एक स्मारक बनाए जाने की है. सरकार इस गांव के लोगों को कौशल प्रशिक्षण देने का काम भी कर सकती है. यहां फौज में जाने की परंपरा ज़रूर है, पर इसका कारण गांव में और आसपास खेती के लिए ज़मीन की अनुपलब्धता भी है, जिसके कारण युवाओं के पास ज़्यादा विकल्प नहीं रह जाते हैं.’


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‘सशस्त्र सेनाओं के राजनीतीकरण का अधिकार नहीं’

चुनावी मौसम परवान पर होने के बावजूद स्थानीय लोग राजनीति की चर्चा करने से बचते हैं. इसके बजाय वे अपने इर्द-गिर्द जंगल की आग, हरियाली के खत्म होते जाने, बच्चों के साथ पीढ़ीगत अंतर आदि विषयों पर बातें करते हैं.

अधिकांश लोग राजनीति के बारे में सिर्फ एक ही बात कहना चाहते हैं कि वे मौजूदा राजनीतिक विमर्श को नापसंद करते हैं, क्योंकि इसमें फौजियों को राजनीतिक मोहरा बनाकर रख दिया गया है. उदाहरण के लिए, वे हाल ही में भारतीय सेना का ‘मोदीजी की सेना’ के रूप में उल्लेख किए जाने तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा युवा मतदाताओं से अपने वोट बालाकोट हवाई हमले को समर्पित करने की अपील किए जाने का जिक्र करते हैं.

17 साल की सेवा के बाद 1994 में भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हुए बलवंत रामचंद्र घोरपड़े ने कहा कि यों तो एक रैंक, एक पेंशन जैसे कदमों से सैनिकों को बड़ा वित्तीय लाभ हुआ है, फिर भी किसी राजनीतिक दल को राजनीतिक फायदे के लिए फौजियों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

वह कहते हैं, ‘इस तरह की राजनीति होनी ही नहीं चाहिए. सेना किसी की नहीं है, किसी राजनीतिक दल की नहीं. यह भारत की है. वोट मांगने के लिए सेना का इस्तेमाल बहुत गलत है.’

मंदिर के बरामदे में उनके साथ बैठे कई अन्य लोग सहमति में सिर हिलाते हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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