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Friday, 29 March, 2024
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योगी ने मंत्रिमंडल का विस्तार तो किया, फिर भी एससी/एसटी को असली सत्ता से वंचित रखा

उत्तर प्रदेश में फील्ड वर्क करते हुए मैंने अनुसूचित जाति के कई लोगों से जो बात की उससे यही तथ्य उभरा कि दलितों को सत्ता में हिस्सेदारी देने के मामले में भाजपा के दावे खोखले ही हैं.

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करीब महीनेभर से लगाई जा रही अटकलों को खत्म करते हुए योगी आदित्यनाथ ने अंततः अपने मंत्रिमंडल का विस्तार कर दिया. उन्होंने इसमें सात नये मंत्री शामिल किए— जितिन प्रसाद, संगीता बिंद, छात्रपाल गंगवार, दिनेश खटीक, संजीव कुमार उर्फ संजय गोंड, धरमवीर प्रजापति, और पलटू राम.

उधर, देश की मुख्य विपक्षी पार्टी ने पंजाब में एक दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया, और बताया जा रहा है कि इसी वजह से भाजपा को भी दलित समुदाय के प्रति सदभावना दिखानी पड़ी है. उत्तर प्रदेश भाजपा में पहले ही चर्चा चल रही थी कि मंत्रिमंडल के इस विस्तार में एक दलित नेता को उप-मुख्यमंत्री नियुक्त किया जा सकता है. इसके लिए तीन नेताओं के नाम उभर रहे थे— लक्ष्मण आचार्य, कृष्णा राज, और बेबी रानी मौर्य.

योगी आदित्यनाथ के हाल के कई ट्वीटों में इस समुदाय के सामाजिक महत्व को जिस तरह रेखांकित किया जा रहा था उसने सबका ध्यान खींचा था. उपदेशात्मक लहजे में एक ट्वीट यह था भी कि ‘आप सभी याद रखना, अनुसूचित जाति समाज की ‘नींव’ है. नींव दिखती नहीं है, किंतु भवन उसी पर खड़ा होता है. भवन की मजबूती उसी पर निर्भर करती है.

ऐसा लगता है कि अपने राज्य में अगले साल होने वाले चुनाव के मद्देनजर योगी आदित्यनाथ अपने ट्वीटों और गतिविधियों से पिछड़े समुदायों को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उनका दावा है कि वे ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर अमल करते हुए अपनी सरकार चला रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि ताजा मंत्रिमंडल विस्तार के बावजूद, पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा भेदभाव करने वाली उनकी सरकार को छोड़ दूसरी कोई सरकार नहीं हुई.

इस वजह से दलित समुदाय में असंतोष सुलग रहा था. अप्रैल से अगस्त 2021 के बीच उत्तर प्रदेश में फील्ड वर्क करते हुए मैंने इस असंतोष की जमीनी हकीकत जानने के लिए कई स्थानीय नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, और आम लोगों से बात की. असंतोष की आंतरिक वजह का जायजा लेने के लिए मैंने अपने फील्ड वर्क से मिली जानकारियों और अनुभवसिद्ध आंकड़ों का सहारा लिया है.

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दलित क्यों चिंतित हैं

उत्तर प्रदेश में दलितों में आमतौर पर, और चमार/जाटव जाति में खास तौर पर चिंता बढ़ रही है क्योंकि उन्हें सत्ता के पदों से अलग रखा गया है. सभी दलों के स्थानीय दलित नेताओं ने मुझे बताया कि उनके समुदाय को राजनीतिक सत्ता और प्रशासन में उचित्त हिस्सा नहीं दिया गया है. मुझे बताया गया कि राज्य अफसरशाही के ऊंचे ओहदों में, जिसे सरकार का चेहरा माना जा सकता है, दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व नगण्य है, कि ऐसी स्थिति पिछली सरकारों में नहीं थी.

दलित नेताओं के दावों को समझने के लिए मैंने योगी मंत्रिमंडल के विस्तार से पहले उसमें जाति समीकरण का विश्लेषण किया तो पाया कि उनके दावे बहुत हद तक सही हैं.


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योगी मंत्रिमंडल में जाति समीकरण

मंत्रिमंडल काबीना मंत्रियों, राज्यमंत्रियों (स्वतंत्र प्रभार), और राज्यमंत्रियों को मिलाकर बनता है. बड़े नीतिगत फैसले काबीना मंत्री करते हैं. राज्यमंत्रियों (स्वतंत्र प्रभार) को मंत्रिमंडल की बैठकों में तभी बुलाया जाता है जब उनके विभाग का कोई मसला होता है.

जितिन प्रसाद को छोड़ बाकी सभी नये मंत्रियों को राज्यमंत्री बनाया गया है. नये मंत्रियों के सामाजिक समीकरण पर नज़र डालने से पता चलता है कि इन सात में से एक ब्राह्मण हैं, तीन ओबीसी के हैं, दो अनुसूचित जातियों (एससी) और एक अनुसूचित जनजाति (एसटी) के हैं.

योगी सरकार के काबीना मंत्रियों का जो जातीय समीकरण तालिका-1 में दिखाया गया है उसके मुताबिक उनमें ऊंची जातियों और खासकर राजपूतों का वर्चस्व है. 24 काबीना मंत्रियों में से केवल एक, रमापति शास्त्री एससी से हैं. सात बार विधायक चुने गए शास्त्री सबसे पहली बार 1974 में जनसंघ के टिकट पर जीते थे. 1991 और 1997 में वे कल्याण सिंह सरकार में काबीना मंत्री थे. वर्तमान कार्यकाल में वे गौण स्थिति में रहे हैं.

तालिका-2 के मुताबिक, नौ राज्यमंत्रियों (स्वतंत्र प्रभार) में से भी केवल एक एससी समुदाय के हैं. इस सूची में भी ऊंची जातियों के मंत्रियों का बोलबाला है. गुज्जर समुदाय, जिसकी आबादी पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड में अच्छी-खासी है, से भी केवल एक ही मंत्री हैं.

तालिका -3 दर्शाती है कि 27 राज्यमंत्रियों में से केवल छह एससी समुदाय के हैं. इस सूची में केवल एक मुस्लिम मंत्री हैं. कुल 13 राज्यमंत्री पिछड़ी जातियों से हैं. इस सूची के समाज वैज्ञानिक विश्लेषण से पता चलता है कि इन मंत्रियों में से बड़ा हिस्सा, जो पिछड़ी और अनुसूचित जातियों से है, उसे केवल राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है. ये मंत्री ऐसे होते हैं जिनकी निर्णय प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं होती.

चित्रण: रमनदीप कौर/दिप्रिंट


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चमार/जाटव हाशिये पर

उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल में दलितों को अपर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला है, और दलितों में भी चमार/जाटव को काफी हद तक हाशिये पर ही रखा गया है. पूरे मंत्रिमंडल में केवल एक, राज्यमंत्री डॉ. जी.एस. धर्मेश ही जाटव जाति से हैं. पासी जाति को तुष्ट करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में इस जाति के कौशल किशोर को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया है.

मार्के की बात यह है कि प्रदेश के एससी समुदाय में 54.23 प्रतिशत आबादी वाले चमार/जाटव जाति से केवल एक मंत्री बनाया गया है, वह भी राज्यमंत्री का दर्जा देकर. इस समुदाय के स्थानीय नेता और सामाजिक कार्यकर्ता इस मसले पर गंभीरता से चर्चा कर रहे हैं.

आपसी बातचीत में वे कहते हैं कि पिछली सरकारों में उनकी जाति को कभी इस तरह हाशिये पर नहीं डाला गया था. उनका कहना था कि मंत्री पद के मामले में ही नहीं, सांसद और विधायक बनने के मामले में भी उनकी जाति पिछड़ रही है. उनका दावा है कि उत्तर प्रदेश में सभी जातीय समूहों में उनकी चमार जाति सबसे बड़ा समूह है, और शेष भारत में भी उसकी संख्या अच्छी-ख़ासी है. दूसरे राज्यों में भी वह चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखती है. इसके बावजूद भाजपा ने उसे राजनीतिक सत्ता से बाहर रखने का जोखिम मोल लिया है.

भाजपा किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री के ओहदे तक पहुंचाने में विफल रही ही है, ओबीसी और दलितों के बीच अपना आधार बढ़ाने के उसके दावे भी खोखले ही लगते हैं. पार्टी ने राजनीति और प्रशासन में सत्ता में भागीदारी के मामले में कोई उपलब्धि नहीं हासिल की है. हाशिये पर पड़े समुदायों से नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल करके भाजपा ने पहल तो की है, मगर बहुत देर से. इस तरह स्थान देना निरर्थक ही है क्योंकि राज्यमंत्री सरकार के फैसलों में शायद ही शामिल होते हैं.

(लेखक @arvind_kumar__ रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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