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Friday, 29 March, 2024
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जयशंकर का अमेरिकी दौरा क्या भारत के प्रति बाइडन की उदासीनता को खत्म कर पाएगा?

अमेरिका की नाखुशी अपना असर दिखा रही है. बढ़ती उदासीनता प्रकट हो रही है, मसलन भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत के मामले में.

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पिछले सप्ताह समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को सार्वजनिक रूप से नसीहत देते सुने गए कि उन्हें यूक्रेन के साथ शांति की जगह युद्ध नहीं करना चाहिए था. इसके कुछ ही दिनों बाद अब विदेश मंत्री एस. जयशंकर अमेरिका के दौरे पर जा रहे हैं, जहां वे अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन और रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन से मुलाक़ात करेंगे. जयशंकर वहां क्वाड, ब्रिक्स और संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में भी भाग लेंगे.

यह दौरा ऐसे समय में हो रहा है जब भारत-अमेरिका संबंध अहम दौर से गुजर रहा है. हाल में इस रिश्ते को लेकर चिंता काफी बढ़ गई थी, हालांकि, यह इस बात के मद्देनजर कुछ असामान्य बात है कि दुनिया के दो सबसे पुराने और सबसे विशाल लोकतांत्रिक देश कम-से-कम 2008 की भारत-अमेरिका परमाणु संधि के बाद से एक-दूसरे के प्रति सदभाव और विश्वास का प्रदर्शन करते रहे हैं.


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रिश्ते में ठंडक

लेकिन हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की नजरों के सामने कुछ गड़बड़ हुई है. पिछले पांच वर्षों से दोनों देशों के बीच जिस मुक्त व्यापार समझौते का इंतजार किया जा रहा है उसे लगता है ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. दिल्ली में अमेरिकी दूतावास ‘रूज़वेल्ट हाउस’ में अमेरिकी राजदूत की अनुपस्थिति ने मामले को सुधारने में निश्चित ही मदद नहीं की है. पिछले राजदूत केनिथ जस्टर को गए दो साल बीत गए हैं.

इस सबके साथ संदेह का माहौल बढ़ता जा रहा है. मोदी सरकार का मानना है कि बाइडन प्रशासन अपने मुख्य काम से भटक गया है. मुख्य काम— वाशिंगटन डीसी में धार्मिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों को बढ़ावा देकर भारत के साथ अमेरिका के संबंधों को विस्तार और गहराई देना.

फिर भी, बाइडन प्रशासन भारत की औपचारिक रूप से निंदा नहीं करेगा बल्कि स्वाधीनताओं, मौलिक अधिकारों में कटौती, श्रम क़ानूनों में फेरबदल करके लोकतंत्र के रूप में भारत की अनूठी नियति को बदलने के लिए उसकी आलोचना करने का काम ईसाई धर्म के अधिकारियों पर छोड़ देगा.

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बराक ओबामा प्रशासन और बाइडन प्रशासन में फर्क यह है कि ओबामा का मानना था कि भारतीय लोकतंत्र की मूल जीवंतता को कभी दबाया नहीं जा सकता, जबकि बाइडन प्रशासन फर्क को समझने में अक्षम नजर आता है.

इसके अलावा, बाइडन के अधिकारी इसी बात में उलझे हुए हैं कि हाल के महीनों में भारत अपनी इनर्जी संबंधी जरूरतों के लिए रूस पर निर्भर रहा. इन अधिकारियों का यह भी मानना है कि भारत को रूस के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों का समर्थन करने के बारे में फैसला कर लेना चाहिए. इतने ही दावे के साथ भारतीय अधिकारियों का कहना है कि छह महीने पहले शुरू हुए यूक्रेन युद्ध के बाद से रियायत पर मिले रूसी तेल के कारण भारतीय खजाने को 35,000 करोड़ रुपये की बचत हुई है.

विश्वदृष्टि में यह अंतर ही फिलहाल इस रिश्ते को चोट पहुंचा रहा है. इसी वजह से जयशंकर अमेरिका गए हैं, इस उम्मीद में कि ब्लिंकेन, ऑस्टिन और अमेरिकी कांग्रेस के कुछ सदस्यों से उनकी बातचीत इस चोट को दुरुस्त करेगी.

दूरी को पाटने की कोशिश

जयशंकर कई विषयों को उठा सकते हैं. सबसे पहला विषय है रूस. प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन से जिस साफ़गोई से बात की और अफसोस जाहिर किया कि पुतिन ने यूक्रेन के साथ शांति की जगह युद्ध को चुना; हिंदी में की गई उनकी यह टिप्पणी तमाम सोशल मीडिया पर जारी हुई, उस सबसे यही संकेत मिलता है कि भारत पूरी तरह पुतिन के साथ नहीं है. निश्चित ही यह अमेरिका को दिया गया संदेश है, कि वह यह न मान ले कि भारत चूंकि अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए रूस से कम कीमत पर भारी मात्रा में तेल खरीद रहा है तो वह पुतिन के युद्ध का समर्थन करता है. वह उसका समर्थन नहीं करता, और मोदी ने इसे काफी स्पष्ट कर दिया है.

इसके अलावा, छह महीने बाद भी रूसी सेना यूक्रेन को परास्त नहीं कर पाई है, बल्कि उसे रूसियों की बहुलता वाले खारकीव शहर में भी हार का सामना करना पड़ा है. यह यही संदेश देता है कि भारत रूसी सैन्य साजोसामान पर अपनी निर्भरता कम करे.

हकीकत यह है कि भारत को सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि यह युद्ध, पुतिन के वादे के मुताबिक, लंबा खिंच सकता है और पश्चिमी देश मजबूरन यूक्रेन की मदद करेंगे, चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े. साफ है कि भारत के पास रूस से छूट में तेल खरीदते रहने के सिवा कोई विकल्प नहीं है, चाहे उसे रूस की दूसरी नीतियों की ओर से आंख मूंदना पड़े.

दूसरा विषय है चीन. जयशंकर उम्मीद करेंगे कि भारत ने पिछले दो वर्षों में चीन के दबावों, पूर्वी लद्दाख में चीनी सेना के आक्रमण का जिस तरह सामना किया है उसके लिए अमेरिका उसकी सराहना करेगा.

इसके अलावा, पिछले सप्ताह एससीओ की शिखर बैठक में मोदी ने इस बात की पूरी व्यवस्था की कि शी जिनपिंग के साथ ग्रुप फोटो के सिवा कोई फोटो न खींची जाए. यह अमेरिका के लिए एक और संकेत है कि भारत दबाव डाल रहे चीन के सामने डटा रहेगा और अपने पड़ोसी एशियाई ताकत को अपनी हद में रखने में भूमिका निभाता रहेगा, भले ही यह पर्दे के पीछे से क्यों न हो.

जहां तक भारत में व्यक्तिगत स्वाधीनताओं में कटौती को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी की चिंता का सवाल है, यह संभावना न के बराबर है कि ब्लिंकेन या अमेरिकी उप-विदेश मंत्री इस बारे में जयशंकर से सीधी बात करेंगे, क्योंकि यह भारत के आंतरिक मामले में दखल होगा. अमेरिका जनता है कि इससे आपसे रिश्ते में ठंडक और बढ़ जाएगी.

लेकिन अमेरिका की नाखुशी अपना असर दिखा रही है. बढ़ती उदासीनता प्रकट हो रही है, मसलन भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत के मामले में.

जाहिर है, जयशंकर के लिए अमेरिका में अगले दस दिन के लिए काम तय हो चुके हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक एक कंसल्टेंट एडीटर हैं. वह @jomalhotra ट्वीट करती हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.


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