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Saturday, 20 April, 2024
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न्यायपालिका में क्यों होना चाहिए आरक्षण?

कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बयान दिया है कि सरकार न्यायपालिका में आरक्षण लागू करने की पक्षधर है. लेकिन ये बात बहुत देर से कही गई.

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केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने केंद्र की मौजूदा सरकार की विदाई की वेला में बयान दिया है कि सरकार न्यायपालिका की नियुक्तियों में आरक्षण लागू करने की पक्षधर है. उनका कहना है कि सरकार ऑल इंडिया ज्यूडिशयल सर्विस परीक्षा के जरिए न्यायपालिका में नियुक्तियां चाहती हैं और चाहती है कि ये परीक्षा यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन यानी यूपीएससी करे. हालांकि सरकार के पास अब इतना समय नहीं बचा है कि इस बारे में वह कोई विधायी पहलकदमी कर सके.

देश में कानूनी और न्यायिक सुधार को दिशा देने के लिए नीति आयोग ने भी अभी हाल ही में ‘स्ट्रेटजी फॉर न्यू इण्डिया @75’ नाम से एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का सुझाव दिया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि “इस सर्विस के लिए सलेक्शन का काम यूपीएससी करे. वह लोअर ज्यूडियरी के लिए जज, इंडियन ज्यूडिशियल सर्विस के लिए अफसर, प्रोसिक्यूटर, कानूनी सलाहकार और लीगल ड्राफ्ट्समैन का काडर बनाए.”

2018 की शुरुआत में जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में बुनियादी फेकबदल करने वाला फैसला दिया था, तब मनीष छिब्बर ने एक महत्वपूर्ण आलेख में ये टिप्पणी की थी कि जिस समय ये फैसला आ रहा है, उस समय पूरे सुप्रीम कोर्ट में कोई दलित जज नहीं था. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस के जी बालाकृष्णन के बाद से कोई दलित जज नहीं बना है.

एससी-एसटी एक्ट पर फैसले को देश की प्रमुख कानूनविद और सीनियर एडवोकेट पद पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित वकील इंदिरा जयसिंह ने भी जातिवादी करार दिया था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में ये मांग उठी थी इस टिप्पणी के लिए इंदिरा जयसिंह पर अदालत की अवमानना का केस दर्ज किया जाए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग पर ध्यान नहीं दिया.

एक अन्य संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने सिफारिश की है कि न्यायपालिका में आरक्षण होना चाहिए. आयोग की स्पष्ट मान्यता है कि बिना आरक्षण दिए न्यायपालिका में तमाम सामाजिक समूहों को प्रतिनिधित्व मुमकिन नहीं है. संसद द्वारा स्थापित दो संसदीय समितियों – कड़िया मुंडा कमेटी और निचिअप्पन कमेटी ने भी न्यायपालिका में वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व न होने पर चिंता जताई है.

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इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि भारतीय न्यायपालिका में न्यायिक सेवा के जरिए नियुक्ति और आरक्षण की बहस अब काफी तेज हो गई है.

ऐसा माना जा रहा है कि संविधान के अनुच्छेद-312 में उल्लेखित अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन पर सरकार को संविधान के अनुच्छेद-16 में किए गए रिज़र्वेशन के प्रावधान को लागू करना ही पड़ेगा, जिससे कि समूची न्यायपालिका में एससी-एसटी-ओबीसी का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो पाएगा.

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन की संस्तुति विधि आयोगों की रिपोर्टों और मुख्य न्यायधीशों के सम्मेलन (1961, 1963, 1965) से निकल कर आई थी, जिसको आपातकाल के समय लाये गए बयालीसवें संविधान संशोधन से अनुच्छेद-312 में शामिल किया गया था.

जजों की नियुक्ति पर पूर्व राष्ट्रपति नारायणन का महत्वपूर्ण हस्तक्षेप

यदि अनुसूचित जाति की बात करें तो अब तक सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ चार एससी जज- जस्टिस आर वर्धराजन, जस्टिस ए एन सेन, जस्टिस के. रामास्वामी और जस्टिस के. जी. बालाकृष्णन ही नियुक्त हो पाये हैं. इनमें से जस्टिस बालाकृष्णन मुख्य न्यायधीश भी बने थे.

जस्टिस बालाकृष्णन सुप्रीम कोर्ट में तब जाकर जज नियुक्त हो पाये थे, जब तब के राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति संबन्धित फाइल पर एससी-एसटी से जज ना होने लेकर अपनी लिखित असहमति दर्ज कराने के साथ साथ जजों की नियुक्ति संबन्धित फाइल पर कोलेजियम की सिफारिश को रोकने तक की बात कर दी थी. राष्ट्रपति नारायणन की तरफ से तब उनके सचिव रहे महात्मा गांधी के प्रपौत्र गोपाल कृष्ण गांधी द्वारा लिखित असहमति में लिखा गया था कि ‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग में योग्य उम्मीदवार होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट की बेंच में उनका प्रतिनिधित्व कम होना कहीं से भी उचित नहीं है.’

देश के प्रथम नागरिक की असहमति को लेकर तब काफी हँगामा हुआ था. उसी दौरान सरकार ने अनुच्छेद-143(1) में उल्लेखित राष्ट्रपति की शक्तियों का प्रयोग कर के सुप्रीम कोर्ट को जजों की नियुक्ति के संबंध में सलाह के लिए प्रेसिडेंसियल ऑर्डर भेजा था.

सरकार भी है जवाबदेह

चूंकि 1993 के बाद से नियुक्तियाँ कलेजियम प्रणाली से हो रही है, इस लिए यह आम धारणा बन रही है कि उक्त समुदायों का प्रतिनिधित्व न होने के लिए सिर्फ सुप्रीम कोर्ट का कालेजियम, यानी सिनियर जज, ही जिम्मेदार हैं. यह बात आधी ही सच है, क्योंकि जब नियुक्तियां बिना कालेजियम के हो रही थीं, और नियुक्तियों में सरकार की भूमिका थी, तब भी हालत कुछ ऐसे ही थे. मेरे इस कथन को कोलेजियम सिस्टम का समर्थन न माना जाए. यह कई कारणों से एक समस्यामूलक व्यवस्था है.

उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में जाति कैसे और किस हद तक काम करती है, इसको समझने के लिए अभिनव चंद्रचूड़ की हाल ही में प्रकाशित किताब सुप्रीम व्हिस्पर्श पढ़ी जानी चाहिए. इस दिशा में जीएच गैड ब्वाइस की किताब जजेज़ ऑफ द सुप्रीम कोर्ट भी एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है.

यदि वर्तमान सरकार उच्च न्यायपालिका में इन जातियों के प्रतिनिधित्व को लेकर वास्तव में सीरियस होती तो पूर्व राष्ट्रपति नारायण जैसा ही कुछ कड़ा कदम उठाती.

सुप्रीम कोर्ट में ज़्यादातर जज हाई कोर्ट्स से नियुक्त होते हैं, और हाई कोर्ट में ज़्यादातर वहीं वकील जज बन पाते हैं, जो कि राज्य सरकारों के महाधिवक्ता, अतरिक्त महाधिवक्ता, या फिर केंद्र सरकार के अतरिक्त सॉलिसीटर जनरल रह चुके होते हैं. यदि हम इन पदों की बात करें तो केंद्र और राज्य सरकारें इन पदों पर आदिवासी-दलित समाज के वकीलों को नियुक्त करने से कतराती रहीं हैं. यहाँ तक कि समाजवाद और सामाजिक न्याय का दंभ भरने वाली पार्टियों की सरकारों ने भी अपने कार्यकाल में इन समुदायों से किसी को महाधिवक्ता नहीं बनाया. केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त कई सॉलिसिटर जनरल और एडिशनल सोलिसिटर जनरल सीधे सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त किए जाते रहे हैं. अब तक की केंद्र सरकारों ने लगभग 15 अटॉर्नी जनरल और इससे भी ज्यादा सॉलिसिटर जनरल नियुक्त किए, लेकिन इन समुदायों से किसी को भी अब तक इन पदों पर नियुक्ति के काबिल नहीं समझा.

न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व क्यों चाहिए?

लोकतान्त्रिक संस्थाओं में विश्वास- लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी है कि उसकी संस्थाओं पर लोगों का विश्वास बना रहे. न्यायपालिका न्याय क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है, इस लिहाज से इस पर सभी समुदायों का विश्वास बने रहना जरूरी है. हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की संकल्पना पर ना केवल बल दिया था बल्कि उसके लिए अलग-अलग संवैधानिक प्रावधान किए.

पिछले सत्तर वर्षों से जिस तरह एससी और एसटी समुदाय का प्रतिनिधित्व उच्च न्यायपालिका में नगण्य रहा है, उससे इस संस्था के प्रति इन समुदायों में तेजी से अविश्वास पैदा हो रहा है, क्योंकि इनकी बेहतरी से जुड़े भूमि सुधार, रिज़र्वेशन, एससी/एसटी एक्ट जैसे तमाम मुद्दों पर न्यायपालिका का रुख सकारात्मक नहीं दिखाई दिया है. साठ-सत्तर के दशक में तो ऐसा लग रहा था कि उच्च न्यायपालिका कानून का राज स्थापित करने के नाम पर जमींदारों के पक्ष में खड़ी हो गयी थी. उस समय ज़्यादातर न्यायाधीश जमीदारों के घराने से होते थे. ऐसे ही एक जज, पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बा राव 1967 में अपने पद से इस्तीफा देते हुए जमींदारों की स्वतंत्र पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ गए थे, जबकि इस्तीफा देने के पहले वो भूमि सुधार से जुड़े तीन क़ानूनों को खारिज कर चुके थे.

इसके अलावा एक अन्य कारण भी है जिसकी वजह से इस संस्था में इन समुदायो का विश्वास कम हो रहा है. दरअसल, इस समय देश की विभिन्न जेलों में 67 प्रतिशत लोग बिना सजा के ही बंद है, और बतौर मुख्य न्यायधीश रंजन गगोई, उसमें से 66 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति से हैं.

पूर्वाग्रह की समाप्ति– हमारे संविधान निर्माताओं ने यह माना था कि ऐसा नहीं हो सकता कि न्यायपालिका में बैठे लोग पूर्णतः पूर्वाग्रह रहित हो जाये क्योंकि वो भी इसी पूर्वाग्रहग्रस्त समाज से आते हैं. इसलिए न्यायालाओं में नियुक्ति का मामला केवल प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या फिर मुख्य न्यायाधीश के विवेक पर नहीं छोड़ा था, बल्कि आपसी विचार विमर्श से नियुक्त करने की अवधारणा पर जोर दिया था. उक्त उदाहरणों और अध्ययनों से स्पष्ट है कि न्यायिक नियुक्तियों में जाति अहम रोल अदा कर रही है. इससे दो बात निकल कर आती है, पहली कि जातीय पूर्वाग्रह से ग्रस्त कुछ लोग जज बन जा रहे हैं, दूसरा, आदिवासी-दलित समाज से जज ना बनने का कारण सिर्फ मेरिट का होना या न होना नहीं है, बल्कि जातिगत भेदभाव भी है.

किसी भी संस्था से पूर्वाग्रह दूर करने का दुनियाभर में एक मात्र तरीका समाज के अलग अलग समुदायों के प्रतिनिधित्व को माना गया है. यहाँ तक कि सीमित स्तर पर ही सही लेकिन भारत का सुप्रीम कोर्ट भी इन सिद्धांतों को लागू कर रहा है. ऐसा कोई समय नहीं होता जब सुप्रीम कोर्ट में दो प्रमुख अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम और ईसाई) से कोई जज नहीं होता, इसी प्रकार आजकल महिलाओं की संख्या बढ़ाने की बात चल ही रही है. यह समझ से परे है कि आदिवासी-दलित समाज से जज नियुक्त कर कर देने से योग्यता पर प्रभाव कैसे पड़ जाएगा?

उच्च न्यायपालिका की कानून बनाने की शक्ति– भारतीय संविधान के अनुच्छेद-141 के तहत प्रावधान है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित किया गया कोई भी फैसला सभी न्यायालयों पर मान्य होगा.यानी, संसद ने किसी भी विषय पर कानून नहीं बना है, तो उस विषय पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तब तक कानून माना जायेगा, जब तक कि संसद उसपर कानून बना ना दे.

भारतीय संविधान में उक्त अवधारणा कॉमन लॉं जूरिसप्रूडेन्स से ली गयी है, जिसका जन्म ब्रिटेन में हुआ था. इस जूरिसप्रूडेन्स में कानून की अनुपस्थिति में जज का निर्णय ही कानून माना जाता है, इसलिए जज अति महत्वपूर्ण हो जाता है. अब जब जज महत्वपूर्ण हो जाएगा, तो उसका पारिवारिक इतिहास, विचारधारा आदि भी महत्वपूर्ण हो जाती है. इसके विपरीत फ्रांस जैसे देशों में सिविल लॉं जूरिसप्रूडेन्स लागू है, जहां कानून मायने रखता है, जज नहीं. वैसे देशों में न्यायपालिका का प्रतिनिधित्वकारी होने को उतना जरूरी नहीं माना जाता.

भारत में चूंकि उच्च न्यायपालिका के जज जो फैसला देते हैं, वह अक्सर कानून बन जाता है और इसका असर पूरे देश पर होता है, इसलिए जरूरी है कि संसद और विधानसभाओं की तरह न्यायपालिका में भी वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए.

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