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Friday, 19 April, 2024
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भारतीय राजनीति के अभिषेक बच्चन ने आखिरकार एक हिट दे दिया

भारतीय राजनीति में राहुल गांधी का सबसे बड़ा दांव यह साबित करना है कि अच्छे लड़के हमेशा अंतिम स्थान पर ही नहीं रहते.

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विधानसभा चुनावों के परिणामों पर कांग्रेस पार्टी झूम उठी है. अभी तक भारतीय राजनीति का अभिषेक बच्चन कहकर खारिज किए जा रहे राहुल गांधी ने आखिरकार एक हिट पेश कर दिया है. हालांकि, इतने मात्र से वह रातोंरात अपने दम पर ब्लॉकबस्टर देने वाले अमिताभ बच्चन जैसे सुपरस्टार नहीं हो जाते, पर कम-से-कम अब उम्मीद की जा सकती है कि वह 2019 में विभिन्न पात्रों का मुख्य किरदार बन सकते हैं.

ऐसा लग रहा था कि राहुल गांधी की अगुआई में भारत का सबसे पुराना राजनीतिक दल तेज़ी से सिकुड़ती पार्टी बनकर रह जाएगा, लेकिन उन्होंने जीत हासिल कर चौंका दिया. भारतीय राजनीति का चिरकालिक छात्र आखिरकार पास हो गया.

और, इस प्रक्रिया में राहुल एक उदाहरण पेश करना चाहते हैं. जहां नरेंद्र मोदी की इच्छा अच्छे दिन लाने की थी, राहुल गांधी भारतीय राजनीति का अच्छा बच्चा बनना चाहते हैं. वह अच्छे व्यवहार के लिए मेडल प्राप्त करना चाहते हैं. चुनाव परिणामों के बाद उनकी पहली प्रेस कान्फ्रेंस 56-इंच के सीने का दम भरने के बिल्कुल उलट था.

उन्होंने विफलताओं से सीखने की बात की. उन्होंने विनम्रता का ज़िक्र किया. उन्होंने कांग्रेस की जीत वाले राज्यों के विदा ले रहे मुख्यमंत्रियों का धन्यवाद किया. उन्होंने कांग्रेस की नाकामी वाली जगहों में सफल रही पार्टियों को बधाई दी. उन्होंने कहा कि भाजपा को कांग्रेसमुक्त भारत चाहिए, पर वह भाजपामुक्त भारत नहीं चाहते. राहुल गांधी का सपना ऐसे भारत का है जहां सभी जात-धर्म के लोग मिलजुल कर रहें.

भारतीय राजनीति में राहुल गांधी ने सबसे बड़ा दांव यह साबित करने पर लगाया है कि अच्छे लड़के हमेशा अंतिम स्थान ही नहीं पाते हैं. हम नहीं कह सकते कि निश्चित रूप से उन्होंने ऐसा साबित कर दिखाया है. दिल्ली दूर अस्त. सच्चा और संयमित विशेषकर करिश्माई नहीं होता. पर भीमकाय मूर्तियों, लिंचिंग करने वाली भीड़, नाम परिवर्तन, गाय और दंभी पुरुषत्व की राजनीति से ऊबे लोगों के लिए यह एक खुशनुमा बदलाव की तरह है.

भाजपा के राज्यसभा सांसद संजय काकड़े कहते हैं, ‘मुझे लगता है हम विकास के मुद्दे को भूल गए हैं जिसे कि 2014 में मोदी ने उठाया था. राम मंदिर, प्रतिमाएं और नाम परिवर्तन महत्व के विषय हो गए हैं.’ भाजपा ने गाय की राजनीति की, पर राफेल की रट लगाकर राहुल ने सामने से मुक़ाबला किया.

दोनों पक्षों को परस्पर अधिक विनम्र होने का प्रयास करते देखना ज़ाहिर है बढ़िया लगता है, पर निश्चय ही भारत की जनता अपने नेताओं को इस तरह पराजय स्वीकार करते देखने की आदी नहीं है. नरेंद्र मोदी का विनम्रता के साथ परिणामों को स्वीकार करना, 2014 वाली स्थिति से बिल्कुल अलग है, जब उन्होंने ‘कांग्रेसमुक्त भारत की शुरुआत होने’ का गर्जन किया था. राहुल गांधी का कहना है कि 2014 से उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण सबक विनम्रता का लिया था.

यह दिलचस्प है, क्योंकि अधिकतर भारतीयों की स्मृति में 2014 के परिणामों के बाद की छवि अपनी मां के पास खड़े मुस्कराते और अन्यमनस्क राहुल की है, जबकि उनकी अगुआई में पार्टी की भारी पराजय हुई थी. तब मामला कुलीनों के दायित्व स्वीकार जैसा दिखा था क्योंकि मां-बेटा हार की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए आगे आए तो ऐसा लगा मानो वे परिणामों के कांटों का ताज पहने बलिदानी हों, आख़िर गांधी-नेहरु परिवार का संबंध राष्ट्रहित में बलिदानों से ही तो है.

राहुल गांधी की एक खुशमिजाज़ पर अनिच्छुक, अच्छे इरादों वाले पर असंगत व्यक्ति की छवि राजनीति में उनकी लंबी इंटर्नशिप के दौरान बनी है. यह छवि रातोंरात बदलने वाली नहीं है जैसा कि बहुतों को उम्मीद है. उनके असावधानी भरे बयानों की जगह अब, ट्विटर पर, खुद पर हंस सकने वाले अधिक स्पष्ट विनोदी भाव ने ले ली है.

ऐसा दिखता है कि राहुल गांधी अब राजनीति के उतार-चढ़ाव का पहले से अधिक आनंद लेते हैं. इस बार के चुनावों से इस बात की पुष्टि हुई है कि अपने नए अवतार में राहुल फायदे दिला सकते हैं. भवदीप कंग के शब्दों में, ‘राहुल दबे प्रतिद्वंद्वी की छवि को पीछे छोड़ दावेदार बनकर उभरे हैं. यह राहुल के उदय की कहानी है.’

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘मोदी के खिलाफ़ 2019 की लड़ाई में राहुल और कांग्रेस विपक्षी गठबंधन की अगुआई करेंगे, अब इसमें कोई संदेह नहीं है.’ नवजोत सिंह सिद्धू ने उन्हें ‘मैन ऑफ द सिरीज’ और ‘लहरों के बीच से जहाज़ को निकालने वाला कप्तान’ करार दिया है.

खुद को सुकून मिलने से उत्साहित उदारवादी इस नए, अधिक अनुशासित राहुल गांधी को तहेदिल से स्वीकार कर रहे हैं, इस बात की अनदेखी करते हुए कि आजकल वह थोड़ा ‘जनेऊधारी शिवभक्त’ भी हैं. वह पूरे उत्साह से मंदिर-मंदिर घूमते हैं. वह एक सच्चे दत्तात्रेय ब्राह्मण हैं. इन सबमें कुछ भी गलत नहीं, बस यह स्पष्ट नहीं है कि ये राजनीतिक अवसरवाद भर है या गहरे में बैठी उनकी आस्था.

बहुत से वोटर हो सकता है भाजपा के ऊंचे बोल से निराश हों, पर इसका मतलब ये नहीं कि उन्हें पूरा भरोसा हो कि राहुल गांधी बदल चुके हैं और आगे भी ऐसा ही रहेंगे.

और अंत में एक बड़ा सवाल अभी कायम है. यह एक जीत थी, पर उस स्तर का बड़ा बदलाव नहीं जो कि राहुल को नए सिरे से अखाड़े में उतारने के लिए कांग्रेस को करना है. कांग्रेस ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश को भाजपा से छीन लिया है, पर निराशावादी कहेंगे कि पार्टी मध्य प्रदेश में और अच्छा प्रदर्शन कर सकती थी, साथ ही पूर्वोत्तर में इसने अपना अंतिम गढ़ गंवा दिया है.

राहुल की छवि में पूर्ण बदलाव के लिए एक से अधिक चुनावी चक्र से गुजरने की दरकार होगी क्योंकि भारतीय जनमानस में उनकी छवि अच्छे से अंकित हो चुकी है. कांग्रेस ने भी इन चुनावों में गाय की बात की, हालांकि गोमांस से ज़्यादा गोशालाओं की, पर गाय से ही जुड़ी. मुकुल केशवन के अनुसार, पार्टी ने लिंचिंग पर सतर्क चुप्पी साधने और ‘हिंदुत्व पर विवादों से बचने’ का फैसला किया. जब आम चुनाव का समय आएगा मतदाताओं को मोदी-शाह-आदित्यानाथ की त्रिमूर्ति के विचारों का पता होगा. पर राहुल गांधी और कांग्रेस का पक्ष क्या है? केशवन लिखते हैं, ‘इन विधानसभा चुनावों के संदर्भ में इसका जवाब ‘भाजपा-नहीं’ लगता है. लेकिन क्या अव्यक्त राजनीतिक और वैचारिक विवेकाधिकार आम चुनाव में जीत के लिए काफी होंगे?’

इस चुनाव ने साबित कर दिया कि ‘पप्पू कैन डांस.’ पर आम चुनाव के करीब आते-आते भाजपा इसे नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच का मुक़ाबला बनाने की कोशिश करेगी, इस उम्मीद में कि राहुल कमतर साबित होंगे. और राहुल गांधी को साबित करना होगा कि वह ‘मोदी-नहीं’ से अधिक हैं.

(संदीप रॉय एक पत्रकार, टीकाकार और लेखक हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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