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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतथिएटर कमांड को तैयार करने का काम सेना पर नहीं छोड़ सकते, दुनियाभर में ये काम सरकारों का है

थिएटर कमांड को तैयार करने का काम सेना पर नहीं छोड़ सकते, दुनियाभर में ये काम सरकारों का है

सरकार ने सीडीएस को सेना अध्यक्षों के मुकाबले रैंक या नियुक्ति के आधार पर सीनियर बनाकर नहीं बल्कि बराबर वालों में अव्वल बनाकर बुनियादी भूल की.

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नरेंद्र मोदी की सरकार ने 1 जनवरी 2020 को चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की नियुक्ति और रक्षा विभाग का गठन करके रक्षा के क्षेत्र में आज़ादी के बाद के सबसे महत्वपूर्ण सुधार की शुरुआत की. लेकिन इससे भी ज्यादा अहम यह था कि इस सरकार ने सीडीएस को एक गूढ़ राजनीतिक दिशा भी दे दी, जिसके चलते उसे ‘सैन्य कमानों के ऐसे पुनर्गठन’ के लिए जिम्मेदार बना दिया गया ताकि ‘संयुक्त सैन्य कार्रवाइयों और साथ में संयुक्त/थिएटर कमांड की स्थापना के जरिए संसाधनों का उपयुक्त उपयोग हो.’

तर्कपूर्ण तो यह होता कि मोदी सरकार ने उपरोक्त सुधारों को लागू करने की प्रक्रिया और समय सीमा के बारे में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद/रक्षा मंत्रालय के मार्फत निर्देश जारी करवाया होता. एक अधिकार संपन्न संचालन कमिटी और संसदीय समिति का भी गठन किया जाना चाहिए था, जिसमें सभी हितधारक शामिल होते और वह सुधारों को लागू किए जाने की निगरानी करती. अफसोस है कि जिसकी उम्मीद थी वही हुआ और यह काम नहीं किया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि सर्वसम्मति के अभाव में तीनों सेनाओं की निचले स्तर से एकता और थिएटर कमांड के गठन के काम में रोड़ा आ गया.


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थिएटर कमांड का प्रस्ताव अटका

गूढ़ मगर स्पष्ट ‘राजनीतिक’ दिशा दिए जाने के बाद थिएटर कमांड के गठन की विस्तृत प्रक्रिया तैयार करने का काम सीडीएस और तीनों सेना अध्यक्षों के ऊपर छोड़ दिया गया. इससे सेनाओं के बीच की दशकों होड़ उभर आई.

आश्चर्य नहीं कि 10 जून को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के सामने जो रूपरेखा रखी गई उसके बाद कई सवाल उठाए गए. सभी हितधारकों के बीच ‘व्यापक सहमति’ के लिए इसकी समीक्षा जरूरी हो गई. कमांड और कंट्रोल, महत्वपूर्ण परिसंपत्तियों के एकीकरण/विभाजन को लेकर सेनाओं के बीच आंतरिक मतभेदों के अलावा, ऐसा लगता है कि सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेस (सीएपीएफ) पर नियंत्रण को लेकर गृह मंत्रालय से और अतिरिक्त वित्तीय खर्च को लेकर वित्त मंत्रालय के साथ भी तालमेल की कमी है. भौगोलिक दृष्टि/देशों से खतरों के हिसाब से थिएटर कमांड के गठन पर भी विचार-विमर्श किया गया. संभावित थिएटर कमांडरों को सार्थक कार्यकाल देने के लिए उनकी सेवा आगे बढ़ाने को लेकर भी विवाद था.

प्रस्ताव को वापस ड्राइंग बोर्ड को भेज दिया गया है. ‘व्यापक सहमति’ बनाने के लिए एक कमिटी बनाई गई जिसके अध्यक्ष होंगे सीडीएस और चीफ ऑफ इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ, चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी के अध्यक्ष, तीनों सेनाओं के उपाध्यक्ष और गृह तथा वित्त मंत्रालयों के प्रतिनधि, दूसरे हितधारक इसके सदस्य बनाए गए. इस कमिटी की पहली बैठक 21 जून को हुई.

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मोदी सरकार ने योजना और क्रियान्वयन के लिए पहले ही स्पष्ट निर्देश दे दिए होते तो देरी से बचा जा सकता था.


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तार्किक प्रक्रिया

सीडीएस और थिएटर कमांड की स्थापना अलग-थलग प्रक्रिया नहीं हो सकती है. इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और सेनाओं में परिवर्तन की प्रक्रिया से जुड़ना होगा. वास्तव में इस ऐतिहासिक फैसले के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा में समग्र सुधारों की शुरुआत हो जानी चाहिए थी. इसके लिए रणनीतिक समीक्षा जरूरी है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि अगले दो-तीन दशकों में भारत को किन खतरों और किस तरह की लड़ाई/युद्ध का सामना करना पड़ सकता है. आर्थिक समीक्षा से रक्षा के मद में खर्च का अंदाजा मिल सकता है. समीक्षा का अंतिम लक्ष्य औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाना और उसे लागू करने के लिए सेना का आकार/ढांचा तय करना है.

इन सबके आधार पर परिवर्तन और उसके क्रियान्वयन का एक खाका दस्तावेज़ सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी को मंजूर करना चाहिए. इस पूरी प्रक्रिया के बाद संसद से एक कानून पारित होना चाहिए, जैसा अमेरिका का गोल्डवाटर-निक्लाउस डिफेंस रीऑर्गनाइज़ेशन एक्ट 1986 है. सभी लोकतांत्रिक देशों को इस अनुभव से गुजरना पड़ा है. परिवर्तन की योजना और उसके क्रियान्वयन में सरकार और संसद को सक्रिय रूप से जुड़ा होना चाहिए.

थिएटर कमांड के गठन में जो समस्या सामने आ रही है वह उस ‘बॉटम अप’ और एकाकी प्रक्रिया से पैदा हुई है जिसमें हर चीज सेना के भरोसे छोड़ दी गई है, जो तीनों अंगों की आंतरिक प्रतिद्वंदिता से ग्रस्त है. औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की तुरंत जरूरत है. सेनाओं में परिवर्तन के लिए अधिकार संपन्न कमिटी का गठन जरूरी है. आदर्श स्थिति तो यह होगी कि यह रक्षा मंत्री के अधीन हो और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तथा गृह मंत्री इसके राजनीतिक सदस्य हों. इस पैनल में सेना और नौकरशाही का संतुलित प्रतिनिधित्व हो. इसमें सीडीएस, सेनाओं के अध्यक्ष, रक्षा सचिव, गृह व वित्त मंत्रालय के प्रतिनिधि और इन मामलों के विशेषज्ञ भी शामिल हों. सुधारों के बारे में समयबद्ध तरीके से फैसला किया जाए. परिवर्तन की प्रक्रिया की निगरानी और नये राष्ट्रीय सुरक्षा/रक्षा कानून के निर्माण के लिए रक्षा मामलों की संसदीय स्थायी समिति या रक्षा विशेषज्ञों/पूर्व आला अधिकारियों की सलाहकार समिति भी बनाई जाए.

अधिकार संपन्न कमिटी समयबद्ध कार्यक्रमों वाला एक ‘विज़न डॉक्युमेंट’ तैयार करे जिसे सीसीएस की मंजूरी हासिल हो. इस दस्तावेज़ में सभी विवादास्पद मुद्दों का समाधान प्रस्तुत किया जाए. इसके आधार पर सीडीएस को निर्देश दिया जाए कि वह थिएटर कमांड के लिए विस्तृत प्रस्ताव तैयार करे.


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अहम मसलों का विश्लेषण

सार्वजनिक मंच पर उपलब्ध सूचना के मुताबिक, सैन्य मामलों के विभाग ने मेरिटाइम थिएटर कमांड, एअर डिफेंस कमांड और भौगोलिक सरहदों के लिए तीन समेकित कमांड बनाने का प्रस्ताव दिया है. उत्तरी कमांड की ज़िम्मेदारी पहले जैसी रहेगी. पश्चिमी कमांड की जिम्मेदारी चिनाब नदी से लेकर कच्छ के रण के क्षेत्र तक की होगी. पूर्वी कमांड उत्तरी सीमा और पूर्वी लद्दाख को छोड़ पूर्वी सीमा को देखेगा. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की उत्तरी सीमाओं को पूर्णतः/अंशतः उत्तरी कमांड या पूर्वी कमांड के अंदर रखा जाएगा. अंडमान-निकोबार कमांड मेरीटाइम कमांड के अंदर समा जाएगा.

स्ट्रेटेजिक फोर्सेज कमांड 2003 से कार्यरत है. इंटीग्रेटेड डिफेंस साइबर एजेंसी, डिफेंस स्पेस एजेंसी और स्पेशल फ़ोर्सेज डिवीजन 2019 से इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ के अधीन काम कर रहा है. समय पर इंटीग्रेटेड लॉजिस्टिक्स एंड ट्रेनिंग कमांड्स भी स्थापित हो जाएगा. मेरे विचार से उक्त प्रस्ताव तार्किक है और प्रमुख/कपटी खतरों, सीमा को लेकर विवादों और बागी इलाकों जैसी समस्याओं का मुकाबला करने में मदद करेंगे.

सुधार की किसी भी प्रक्रिया में कुछ विजेता होते हैं तो कुछ पराजित होते हैं. पराजित वे होते हैं जो पहले से जमे होते हैं और मौजूदा व्यवस्था में उनके उत्तराधिकारी अपना क्षेत्र/सत्ता गंवाने को लेकर आशंकित होते हैं. सुधरी हुई व्यवस्था कायम हो जाती है तो वे लुप्त हो जाते हैं. सभी सेनाओं में सुधार को राजनीतिक इच्छाशक्ति के बूते ही लागू करना होता है.

सरकार ने सीडीएस को सेना अध्यक्षों के मुकाबले रैंक/नियुक्ति के जरिए सीनियर न बनाकर बल्कि समान लोगों में अव्वल बनाकर बुनियादी भूल की. सीडीएस को चीफ्स ऑफ द स्टाफ कमिटी का स्थायी अध्यक्ष बनाना एक असंतोषजनक व्यवस्था है, खासकर प्रस्तावित थिएटर कमांडों के कमांड एंड कंट्रोल के लिहाज से. यह सेना अध्यक्षों को प्रोत्साहित करती है कि वे अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए तीनों सेनाओं के एकीकरण के प्रक्रिया में पेंच डालें.

अमेरिका में ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ का अध्यक्ष हमारे सीडीएस के बराबर है. वह ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के दफ्तर के जरिए काम करता है, जिसमें सभी सेना अध्यक्ष और उनके बराबर के अधिकारी शामिल होते हैं. वह रक्षा संबंधी मामलों का एकमात्र सलाहकार होता है और नियुक्ति के हिसाब से सेना अध्यक्षों से सीनियर होता है. सेना अध्यक्ष केवल अपनी सेना के प्रशिक्षण एवं प्रशासन की जिम्मेदारी संभालते हैं. थिएटर कमांडर सीधे राष्ट्रपति/रक्षा मंत्री के अधीन काम करते हैं. लेकिन संसदीय व्यवस्था में इसे असंतोषजनक माना जाता है और यह सेना का राजनीतिकरण भी कर सकता है. ब्रिटेन में पूरी सेना पर सीडीएस का ही ऑपरेशनल कमांड चलता है.

भारत में जब तक सेनाओं के अध्यक्ष कमांड कार्रवाई करते रहेंगे तब तक तीनों सेनाओं का एकीकरण नहीं हो सकेगा. वास्तव में, सेनाओं के बीच अपने-अपने हितों को लेकर झगड़े बढ़ेंगे ही. हमें ब्रिटेन का मॉडल अपनाना चाहिए. सीडीएस को नियुक्ति के जरिए सेना अध्यक्षों से सीनियर बना दीजिए. सभी थिएटर कमांड उसके ऑपरेशनल कमांड के अधीन होने चाहिए. सेना अध्यक्षों को केवल अपनी-अपनी सेना के प्रशिक्षण और प्रशासन तक सीमित रहना चाहिए. सेनाओं के ऑपरेशनल निदेशकों का इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ में विलय कर देना चाहिए.

डीएमए और रक्षा विभाग के विलय की भी जोरदार वकालत की जाती है. रक्षा सचिव या तो सीडीएस के अधीन काम करें या रक्षा मंत्री के सचिवालय का हिस्सा बन जाएं. जब तक ‘एलोकेशन ऑफ बिजनेस रूल्स‘के शब्दों और भावना में बदलाव नहीं किया जाता जिसमें रक्षा सचिव को ‘भारत की सुरक्षा’ के लिए जिम्मेदार बताया गया है, तब तक सेना और नौकरशाही के बीच प्रतिद्वंदिता इस मूलभूत सुधार को बेमानी करती रहेगी.

सीडीएस, थिएटर कमांडों के कमांडरों और दूसरी संयुक्त नियुक्तियों में योग्यता को ही आधार बनाया जाए. उनके सहायक डिप्टी दूसरी सेवाओं से लाए जा सकते हैं. मुख्य मुद्दा है संयुक्त योजना बनाने का, जिसकी फिलहाल कमी है. जो भी हो, थिएटर मुख्यालयों के नीचे अलग-अलग सेनाओं के कमांडरों का कमांड चलेगा. वैसे, जिस सेना का वर्चस्व है उसे स्थायी कमांड देना भी एक विकल्प है. जैसे, मेरीटाइम थिएटर कमांड और एअर डिफेंस कमांड क्रमशः नौसेना और वायुसेना के स्थायी कमांड में हैं. भौगोलिक मजबूरियों के कारण हमारे थिएटर कमांड मूलतः द्वि-सेना वाले ही होंगे. मुझे कोई वजह नहीं नज़र आती कि उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी थिएटर कमांड योग्यता के आधार पर थलेसना या वायुसेना के किसी कमांडर के नेतृत्व में क्यों नहीं रखे जा सकते.

दूसरा भ्रम है वायुसेना की सीमित मगर महत्वपूर्ण परिसंपत्तियों के अपव्यय का. आज वायुसेना अपने अध्यक्ष के नेतृत्व में हवाई युद्ध अकेले लड़ती है. अध्यक्ष जरूरत के मुताबिक वायुसेना की ताकत लगाते हैं. वायुसेना लक्ष्य आधारित रहती है और जमीन या समुद्र में हो रही लड़ाई की योजना से अलग-थलग रहती है और उसमें उसका कुछ दांव पर नहीं लगा होता. थिएटर कमांड, योजना की प्रक्रिया में साझीदारी लाएगा. जहां तक वायुसेना की परिसंपत्तियों का मामला है, सीडीएस वही काम करेगा जो आज वायुसेना या नौसेना करती है. वायुसेना द्वारा आपत्तियां इसके पदाधिकारियों के क्षेत्र या अधिकार में कटौती के कारण उभरती हैं.

इसी तरह, सरहद/समुद्र की निगरानी करने वाले सीएपीएफ, असम राइफल्स और कोस्ट गार्ड्स के कमांड का मसला भी एक हौवा है. सीधी-सी बात है कि विवादास्पद सीमाओं पर निरंतर वारदात के मामलों के चलते इंडो-तिब्बतियन बॉर्डर पुलिस फोर्स, बीएसएफ, असम राफल्स को थिएटर कमांड के अंतर्गत रखना चाहिए. दूसरे इलाकों में उन्हें लड़ाई/युद्ध की स्थिति में ऑपरेशनल कमांड के अंदर रखा जाए. वास्तव में सीमा/समुद्र का प्रबंधन देखने वाले बलों के स्टाफ प्रतिनिधि को थिएटर कमांड के अंतर्गत रखा जाए.

तीनों सेनाओं के अफसर कोर को गहरा धक्का लग सकता है. तीनों सेनाओं में 19 जनरल अफसर कमांडिंग और उनके बराबर के अधिकारियों की कुल संख्या घटकर 8 रह जाएगी. इसकी भरपाई थिएटर कमांड में बिना पदनाम वाले डिप्टी को वही दर्जा देकर की जा सकती है. नये थिएटर कमांडरों की सेवा को विस्तार देने की बजाय सरकार इन नियुक्तियों को वरिष्ठता की अनदेखी करके योग्यता के आधार पर करने के लिए चयन की गहरी प्रक्रिया अपनाए.

सैन्य विशेषज्ञ एवं इतिहासकर सर बीएच लिद्देल्ल हार्ट की एक मशहूर उक्ति है— ‘सेना के दिमाग में नया विचार डालने में एक ही अड़चन है— उसके दिमाग से पुराना विचार बाहर निकालना.’ दुनियाभर में सेनाएं मूलतः यथास्थितिवादी होती हैं और आंतरिक सुधार शायद ही करती हैं. सरकार ने सुधार की जो पहल की है उसे राजनीतिक इच्छाशक्ति की और तार्किक प्रक्रिया के अभाव के कारण विफल नहीं होने देना चाहिए.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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