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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतपंजाब में सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला कहीं गांधी और सिद्धू के गले की फांस न बन जाए

पंजाब में सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला कहीं गांधी और सिद्धू के गले की फांस न बन जाए

अगर चन्नी वह सब करने में सफल रहे जो अमरिंदर पिछले चार सालों में नहीं कर पाए थे, तो गांधी परिवार के लिए उन्हें दरकिनार करना मुश्किल हो जाएगा. इससे सिद्धू के लिए राह कठिन ही होगी.

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कांग्रेस पार्टी ने सबको हैरत में डालते हुए एक दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का अगला मुख्यमंत्री चुनकर मौजूदा सियासी बिसात में एक शानदार चाल चली है. एक दलित सिख का मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना और एक जाट सिख नेता नवजोत सिंह सिद्धू का राज्य कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर होना सिख-बहुल राज्य में एक सशक्त समीकरण बनाता है. चन्नी एक रामदसिया सिख हैं, बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम इसी समुदाय से आते थे. कांग्रेस अपने इस ताजा फैसले से शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) और बसपा के बीच गठबंधन का असर नगण्य होने की उम्मीद कर सकती है. अकाली दल और आम आदमी पार्टी (आप) की तरफ से भी दलित डिप्टी सीएम के चुनावी वादे के साथ इस समुदाय को लुभाने की कोशिशें की जा रही हैं.

सोशल इंजीनियरिंग के लिहाज से कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब में कुछ वैसी ही कोशिश की है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने गुजरात में भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाकर की थी, जो इस पद पर काबिज होने वाले पहले कडवा पटेल नेता हैं. लेकिन इसके जरिये जो संदेश देने की कोशिश की गई, वो लोगों तक पहुंचे भी या नहीं, ये तो अगले साल इन राज्यों में चुनाव के बाद ही पता चल पाएगा.

बहरहाल, पंजाब और गुजरात में हुए बदलाव दोनों पार्टियों के आलाकमानों के लिए अलग-अलग नतीजों वाले हैं. भाजपा के लिए तो और ही कुछ दांव पर था. विचार यह था कि मतदाताओं के सामने ‘नई सरकार’ लाकर सत्ता विरोधी लहर पर काबू पाया जाए और पाटीदारों की नाराजगी को भी खत्म किया जाए. इसलिए उन्होंने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को सत्ता से बाहर किया और उनकी पूरी मंत्रिपरिषद का भी बोरिया-बिस्तर समेट दिया. आप मोदी-शाह पर आरोप लगा सकते हैं कि वे परोक्ष रूप से—नौकरशाहों के एक समूह के जरिये—गुजरात की सत्ता चला रहे हैं, लेकिन वह मोदी ही हैं जिन्हें लोग वोट देते हैं और वह अपने उन सिपहसालारों को बदल देते हैं जो प्रदर्शन में नाकाम साबित होते हैं. व्यक्तिगत स्तर पर कुछ भी दांव पर नहीं लगा था. यह कवायद गुजरात में भाजपा के हित में ही थी और उस लिहाज से देखा जाए तो पार्टी आलाकमान सफल रहा है, यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि अगले साल चुनावों में नतीजा क्या होगा.

हालांकि, कांग्रेस आलाकमान के लिए इसके उद्देश्य अलग थे. यह मामला व्यक्तिगत ज्यादा था—गांधी परिवार की मंशा की अवहेलना करना. यह गांधी परिवार की विवेकाधीन शक्तियों पर निर्भर है कि वो चुनते समय अपनी पसंद के हिसाब से किसे पुरस्कृत करें और किसे बर्खास्त. कैप्टन अमरिन्दर सिंह से अपेक्षा की जा रही थी कि वह स्वतंत्र सिपहसालार के तौर पर नहीं, बल्कि आदेश पालक की तरह कार्य करें. इसलिए अगर गांधी परिवार चाहता है कि कैप्टन राज्य में सिद्धू के लिए रास्ता बनाएं, तो उनके लिए इसका पालन करना ही बेहतर होता. कैप्टन से विजय रूपाणी की तरह काम करने की अपेक्षा की गई थी, जिन्होंने इस्तीफा देने का फैसला सिर झुकाकर मान लिया और जैसा कहा गया, उसी तरह से इसके कारण भी गिना दिए. कांग्रेस के किसी सीएम का आंखें तरेरना आलाकमान की नजर में सीधे तौर पर उसका अपमान था. ऐसे सीएम को हटाया ही जाना था.


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कैप्टन आउट लेकिन सिद्धू के लिए अभी इंतजार बाकी

लेकिन क्या कांग्रेस आलाकमान ने अपेक्षित उद्देश्य हासिल कर लिया? जब एक दलित सीएम चुनने जैसे मास्टरस्ट्रोक के लिए कांग्रेस को हर तरफ सराहा जा रहा था, पंजाब के पार्टी प्रभारी हरीश रावत यह स्पष्ट करने में व्यस्त थे कि अगला चुनाव ‘मुख्यमंत्री की कैबिनेट पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नेतृत्व में लड़ेगी जिसके अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हैं, और जो बहुत लोकप्रिय हैं.’ यह काफी उलझा हुआ बयान था—और ऐसा लग रहा था कि पार्टी आलाकमान क्रिकेटर से राजनेता बने सिद्धू से इस बात के लिए परोक्ष तौर पर माफी मांग रहा है कि वह उन्हें तुरंत सीएम बनाने में असमर्थ है और यह आश्वस्त करना चाहता है कि चन्नी उनके लिए कुर्सी सुरक्षित रखेंगे.

एक दलित मुख्यमंत्री राजनीतिक लिहाज से बुद्धिमत्तापूर्ण कदम हो सकता है, लेकिन वह उस समझौते के प्रतीक हैं जो शीर्ष नेतृत्व को करना पड़ा. यह स्टॉपगेट व्यवस्था सिद्धू की स्वीकृति से की जानी थी. इसलिए उन्होंने सुनील जाखड़ की उम्मीदवारी पर वीटो कर दिया. गांधी परिवार ने तब अंबिका सोनी के नाम का प्रस्ताव रखा. वास्तव में इसी ने पूरे खेल का खुलासा कर दिया कि कैप्टन का निष्कासन दरअसल सिद्धू का भविष्य सुरक्षित करने और आलाकमान के वर्चस्व स्थापित करने के लिए था. न इससे कुछ ज्यादा, न ही कम. सोनी अमरिंदर सिंह से सिर्फ आठ महीने छोटी हैं. इसका सीधा मतलब है गांधी परिवार का यह कदम स्पष्ट तौर पर पीढ़ीगत बदलाव से जुड़ा नहीं था. सोनी इस उम्र में अधिक यात्रा करने में असमर्थ होने के कारण विभिन्न राज्यों के प्रभारी महासचिव का पद छोड़ चुकी है. इसलिए, उन्हें अमरिंदर की जगह लाने की गांधी परिवार की किसी भी कोशिश को शासन की दृष्टि से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. जाखड़ या सुखजिंदर रंधावा के विपरीत गांधी परिवार की वफादार सोनी स्टॉपगैप व्यवस्था के लिए ज्यादा उपयुक्त होतीं, क्योंकि 2022 में कांग्रेस के चुनाव जीतने की स्थिति में वे स्वेच्छा से सिद्धू के लिए रास्ता छोड़ देतीं. उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. बेशक, वह इसके लिए तारीफ के योग्य हैं. कितने लोग मुख्यमंत्री की कुर्सी ठुकराना चाहेंगे, भले ही यह जिम्मेदारी छह महीने के लिए ही क्यों न हो? सिद्धू को स्टॉपगेट विकल्प के तौर पर एक अन्य जाट सिख रंधावा भी स्वीकार नहीं होते. क्योंकि सिद्धू एक बेहतरीन क्रिकेटर रहे हैं और उन्हें पता है कि कभी-कभी नाइट वाचमैन भी मौका मिलने पर लंबी पारी खेल सकता है.

इस तरह दावेदारी को लेकर समझौते के तहत एक दलित मुख्यमंत्री को सिद्धू की स्वीकृति मिली, भले ही कांग्रेस नेता इस बात का ढिंढोरा पीटते रहें कि पंजाब में सोशल इंजीनियरिंग का एक नया फॉर्मूला अपनाया गया है.

कांग्रेस आलाकमान ने चाहे कितना भी अच्छा बंदोबस्त कर लिया हो. लेकिन चन्नी अगले पांच महीनों में अगर उन अधूरे वादों को पूरा नहीं कर पाए जो अमरिंदर साढ़े चार साल में नहीं कर पाए हैं, तो मतदाता को यह बहुत रास नहीं आने वाला है. लेकिन चन्नी अगर ऐसा करने में सफल हो गए तो आलाकमान के लिए उन्हें बाहर करना मुश्किल हो जाएगा. ध्यान रहे, कांग्रेस के जो नेता ट्विटर पर यह बताकर गदगद हो रहे हैं कि कैसे पंजाब में एक दलित को मुख्यमंत्री बनाने से देशभर में एक संदेश जाएगा. उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने से भी पूरे भारत में एक संदेश जाएगा. और निश्चित तौर पर किसी नाइट वाचमैन की तुलना में चन्नी की साख बहुत बेहतर है.

इसलिए सिद्धू को सचेत रहना चाहिए. उन्होंने अब तक तो चन्नी का समर्थन किया है अब उनके अगले कदम का इंतजार रहेगा. सफल हों या असफल चन्नी आने वाले समय में सिद्धू के रास्ते में आड़े ही आएंगे.


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कैप्टन के पास विकल्प

जहां तक आलाकमान के आदेश पर अमरिंदर सिंह को हटाने में सफलता का सवाल है तो यह अभी शुरुआत ही है. यह कहना तो बेवकूफी होगा कि कैप्टन आलाकमान के इशारों को स्पष्ट तौर पर समझ नहीं पा रहे थे और इसलिए सिद्धू-गांधी के इस आकस्मिक कदम से स्तब्ध रह गए. वह मौजूदा दौर के सबसे कुशल राजनेताओं में से एक रहे हैं. उनके पास कोई न कोई योजना जरूर होनी चाहिए. अगर वह वाकई में इतने ही ज्यादा स्तब्ध हो गए होते, तो उस तरह का कोई कदम उठा सकते थे जैसा कर्नाटक के मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल ने 1989 में किया था. उस समय राजीव गांधी ने अचानक घोषणा कर दी थी कि पाटिल को चार दिनों में बदल दिया जाएगा और कांग्रेस विधायक दल एक नया नेता चुनने के लिए बैठक करेगा. पाटिल ने अपने हाथ खींच लिए. उन्होंने, सीएलपी नेता के रूप में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाने से ही इनकार कर दिया और कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल भानु प्रताप सिंह ने कहा कि वह पूरी प्रक्रिया में मुख्यमंत्री के शामिल हुए बगैर सीएलपी की पसंद को कोई मान्यता नहीं देंगे. यह सब इतिहास में दर्ज है कि इस संवैधानिक गतिरोध के बीच पाटिल के हटने से पहले केंद्र को कैसे वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा और विधानसभा को स्थगित रखा गया.

ध्यान देने वाली बात यह है कि पंजाब में मोदी-शाह द्वारा नियुक्त एक राज्यपाल हैं. क्या होता अगर अमरिंदर सिंह इतिहास दोहराने की कोशिश करते! निश्चित तौर पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. किसी भी ऐसे व्यक्ति, जो स्कूल के दिनों से राजीव गांधी का दोस्त रहा हो और उनके बच्चों से मिलने स्कूल जाता हो, उन्हें बाहर खाना खिलाने ले जाता हो, के लिए उनके द्वारा अपमानित किया जाना किस कदर दिल को दुखाने वाला रहा होगा।

कांग्रेस आलाकमान की तरफ से पंजाब के बहाने अपना वर्चस्व परख लेने के बाद अब राजस्थान और छत्तीसगढ़ में यही प्रयोग दोहराए जाने की उम्मीद है. उम्र के पड़ाव में 79 साल पार कर चुके अमरिंदर सिंह के पास हो सकता है कि मुकाबले की क्षमता या इच्छाशक्ति नहीं हो फिर भी अपने अगले कदम से चौंका सकते हैं. अशोक गहलोत 70 और भूपेश बघेल 60 वर्ष के हैं. इनके मामले में गांधी परिवार को ज्यादा सतर्कता से काम लेना होगा. फिर भूपिंदर हुड्डा, सिद्धरमैया और ओमन चांडी भी हैं जो यह लगने पर कि उन्हें एक-एक करके दरकिनार किया जा रहा है, खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए एक साथ मिलकर मोर्चा खोल सकते हैं.

मोदी-शाह पार्टी के मुख्यमंत्रियों के साथ वह कर सकते हैं जो उन्होंने किया, क्योंकि वह तो ऐसे नेताओं के रूप में अपनी साख बना चुके हैं जो चुनावों में अपनी पार्टी को जीत दिला सकते हैं. गांधी परिवार को अभी ऐसे नेताओं के तौर पर अपनी योग्यता साबित करनी है जो कांग्रेस के नाम पर वोट दिला सकें. जब तक वे इसे साबित नहीं कर देते, इस तरह अपने फैसले थोपना उनके लिए हमेशा एक चुनौती ही रहेगा.

व्यक्त विचार निजी हैं.


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