scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतलोगों के विचारों की चिंता न करके मोदी सरकार खुद को हराने की राह पर है

लोगों के विचारों की चिंता न करके मोदी सरकार खुद को हराने की राह पर है

स्वच्छ भारत या उज्जवल भारत जैसे अभियानों की सापेक्षिक सफलता में, प्रभावी मैसेजिंग, अक्सर स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा, का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. लेकिन ये मैसेजिंग आमतौर पर एकतरफा प्रक्रिया है. इसमें नागरिकों की प्रतिक्रिया पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है

Text Size:

किसी भी आधुनिक सरकार के लिए ये सुनिश्चित करने में रणनीतिक संचार की अहम भूमिका होती है कि वो जनता को अपनी नीतियों और उनकी वजहों के बारे में बता सके, मुद्दों पर जनजागरूकता पैदा कर सके और इच्छित नीतियों के लिए जनसमर्थन जुटा सके. रणनीतिक संचार एकतरफ़ा संवाद नहीं है. सरकारी मशीनरी को अपनी नीतियों पर सार्वजनिक राय आधारित फीडबैक पाने, उनके कार्यान्वयन पर नज़र रखने और आवश्यकतानुसार उनमें बदलाव करने में सक्षम होना चाहिए.

रणनीतिक संचार एक सतत सूचना प्रक्रिया है जिसमें सरकार और नागरिक एक दूसरे के साथ निरंतर और सक्रिय संवाद करते हैं. यह लोकतंत्रों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहां सरकारें लोगों के प्रति जवाबदेह होती हैं और उनके हित में काम करती हैं. कुछ मायनों में, केंद्र की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार, और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक प्रभावी संचारक के रूप में उल्लेखनीय हैं, जो आम नागरिकों की बड़ी आबादी के साथ प्रत्यक्ष और यहां तक कि भावनात्मक जुड़ाव भी स्थापित करने में सक्षम हैं.

स्वच्छ भारत या उज्जवल भारत जैसे अभियानों की सापेक्षिक सफलता में, प्रभावी मैसेजिंग, अक्सर स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा, का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. लेकिन ये मैसेजिंग आमतौर पर एकतरफा प्रक्रिया है. इसमें नागरिकों की प्रतिक्रिया पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है, खासकर अगर नकारात्मक आलोचना की जा रही हो. बेहतर प्रशासन के लिए, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह की प्रतिक्रियाओं को महत्व दिया जाना चाहिए. केवल सकारात्मक प्रतिक्रिया पर ध्यान देने और नकारात्मक को नज़रअंदाज़ करने या दबाने से अंतत: प्रतिध्वनि कक्ष (एको चैंबर) वाली स्थिति बन जाती है, जहां एक वैकल्पिक वास्तविकता का बोलबाला होने लगता है.


यह भी पढ़ेंः मोदी चाहते हैं कि सेना स्वदेशी सिद्धांत अपनाए, याद रहे भारतीय पुरानी रणनीतियों के कारण आक्रमणकारियों से हारे हैं


जनता की राय शासन के लिए महत्वपूर्ण

भारत जैसे लोकतंत्र में, एक स्वतंत्र सिविल सोसायटी, मीडिया और शैक्षिक वर्ग, तथा असंतोष और बहस के लिए खुलेपन का माहौल ये सुनिश्चित करता है कि सरकारी नीतियों और उनके कार्यान्वयन पर विश्वसनीय, भरोसेमंद और सामयिक फीडबैक मिल सके. सरकार यह दावा कर सकती है कि उसके पास फीडबैक के लिए अपनी खुद की व्यवस्था है. यहां तक कि विभिन्न स्तरों पर राजनीतिक पार्टी की मशीनरी भी इस भूमिका को निभा सकती है. लेकिन, सरकार के भीतर के लोगों द्वारा खामियाजा भुगतने के डर से अपनी खुद की कमियों को स्वीकार करने या राजनीतिक नेतृत्व को नकारात्मक खबरें देने की संभावना नहीं होती है. जब मामला गड़बड़ा जाता है, तो नौकरशाहों को खासतौर पर दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है, जोकि हाल में हमने देखा भी है. वरिष्ठ मंत्रियों सहित पार्टी पदाधिकारी शायद ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहेंगे जिससे नेतृत्व के बिदकने की आशंका हो, खासकर अगर शीर्ष नेता को राजनीतिक करियर बनाने या बिगाड़ने वाले ताक़तवर शख्स के रूप में देखा जाता हो.

इन्हीं वजहों से, सरकार के कार्यों की अधिक समग्र और संतुलित आलोचना में लोकतंत्र के अन्य प्रभावशाली घटकों का अहम योगदान हो सकता है. इस दृष्टि से एक स्वतंत्र मीडिया के साथ-साथ राजनीतिक विपक्ष तथा जानकार और स्वतंत्र शैक्षिक वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण है. इस तरह के सशक्त और संवैधानिक रूप से संरक्षित लोकतांत्रिक संस्थानों का लाभ यह है कि इनके ज़रिए सरकार को नागरिकों का विस्तृत फीडबैक लगातार उपलब्ध रहता है, जिसकी मदद से वह अपनी नीतियों और उनके कार्यान्वयन प्रक्रिया में तर्कसंगत और सामयिक संशोधन कर सकती है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

फीडबैक के ऐसे स्वतंत्र चैनलों को खुला रखने के अलावा, उनके द्वारा सरकार को दी जाने वाली राय और अंतर्दृष्टि को स्वीकार किए जाने से, निश्चय ही शासन में सुधार होगा, और इसे और अधिक प्रभावी और कुशल बनाया जा सकेगा. इस फीडबैक को सरकार के लिए बाधा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए और न ही किसी आलोचना पर प्रतिक्रिया में अतिसंवेदनशीलता दिखाई जानी चाहिए. स्वतंत्र मीडिया के माध्यम से जाहिर की गई जनता की प्रतिक्रिया, और अपने क्षेत्र के विश्वसनीय और प्रतिष्ठित पेशेवरों की विशेषज्ञ राय, कल्याणकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने में सरकार के लिए मददगार ही साबित होंगी.

यदि पेशेवरों की भूमिका केवल राजनीतिक नेतृत्व द्वारा तय प्राथमिकता को सही ठहराने तक ही सिमट जाती है, तो देर-सवेर हम गतिरोध की स्थिति में पहुंच जाएंगे. फीडबैक के ये स्रोत एक आरंभिक चेतावनी प्रणाली का भी काम करते हैं, और सरकार को जनता की नाराजगी या उसकी नीतियों के खिलाफ बन रहे असंतोष के प्रति सचेत करते हैं, ताकि हालात को संकटपूर्ण बनने से पहले ही संभाला जा सके. मौजूदा किसान आंदोलन इस बात का एक बढ़िया उदाहरण है कि ऐसा नहीं करने के किस तरह के परिणाम हो सकते हैं.


यह भी पढे़ंः निर्मला की ‘बेरहम SBI’ टिप्पणी के एक साल बाद असम के लगभग सभी चाय बागानों को मिली बैंकिंग सुविधा


भारत की ताक़त को कमज़ोर करने से कैसे बचा जाए

सरकारों के पास अनुदानों के ज़रिए संरक्षण देने का जबरदस्त अधिकार है और इसका इस्तेमाल चुनिंदा नीतियों के सकारात्मक कवरेज या उनकी कमियों या नाकामियों को छुपाने में करने का प्रलोभन हमेशा ही मौजूद रहता है. लेकिन ऐसा करना ऊपर वर्णित कारणों के चलते आत्मघाती कदम साबित होगा. शासन नागरिकों और उनकी सरकारों के बीच विश्वास का विषय है, और विश्वास केवल सत्य की बुनियाद पर कायम हो सकता है. सरकार की ओर से सबसे अच्छी मैसेजिंग नागरिकों को सच्चाई बताने, उनका विश्वास हासिल करने पर केंद्रित होती है. विदेशी संबंधों के क्षेत्र में भी ये महत्वपूर्ण है. एक राजनयिक के लिए सबसे मूल्यवान पूंजी होती है वार्ताकारों की नज़रों में उनकी विश्वसनीयता, जोकि उसके देश की विश्वसनीयता पर निर्भर करती है. किसी को सफलतापूर्वक धोखा देना या अधूरा सच बताकर लाभान्वित होना शायद कभी-कभार काम कर जाए, लेकिन इससे अंततः राष्ट्रीय हित ही कमज़ोर होते हैं. आप देख सकते हैं कि लंबे समय से असत्य का दामन थामने की वजह से पाकिस्तान किस स्थिति में पहुंच गया है.

इसी संदर्भ में, हमारे देश में कुछ हालिया रुझानों को चिंताजनक माना जा सकता है. भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग, जो पेशेवर, बिल्कुल स्वतंत्र और खोजी पत्रकारिता वाला माना जाता रहा है, या तो सरकारी संरक्षण के प्रलोभन में या फिर निशाना बनाए जाने के डर से अपनी धार खो चुका है. अन्य कई मीडिया संस्थान इससे बचे हुए हैं, और हमें उनके द्वारा निभाई जा रही भूमिका के लिए आभारी होना चाहिए. हालिया रिपोर्टें बहुत ही चिंताजनक हैं कि मोदी सरकार पत्रकारों को ‘व्हाइट’, ‘ग्रीन’ और ‘ब्लैक’ — समर्थक, तटस्थ या सरकार विरोधी — श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकती है और उससे भी गंभीर बात ये कि वह ब्लैक श्रेणी को ‘बेअसर’ करने की कोशिश कर सकती है. ओटीटी प्लेटफार्मों और डिजिटल मीडिया के लिए प्रस्तावित प्रावधानों में भी ऐसे ही कुछ तत्व हैं. ये सरकार को ऐसे कंटेंट या समाचार के प्रसारण पर रोक लगाने के लिए व्यापक विवेकाधीन अधिकार देते हैं जिसे कि वो असुविधाजनक या अपनी वैचारिक स्थिति के असंगत मानती है. यह अदूरदर्शिता है क्योंकि भविष्य में राजनीतिक उलटफेर की स्थिति में, जोकि संभव है, दूसरे पक्ष को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.

स्वतंत्र थिंक टैंक और अनुसंधान संस्थानों पर कई नए बाध्यकारी प्रावधान थोप दिए गए हैं. उन्हें अपने अंतरराष्ट्रीय समकक्षों के साथ मिलकर काम करने से हतोत्साहित किया जा रहा है. यह कदम एक ऐसे देश को बौद्धिक रूप से कमज़ोर बना सकता है जोकि विश्व गुरु के रूप में देखे जाने का मंसूबा रखता है.

अपनी विशाल विविधता के प्रबंधन की क्षमता भारत की महान ताक़त है. हमारी सामाजिक बहुलता गहन बहस, विचार-विमर्श तथा विविध विचारों और दृष्टिकोणों की अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करती है. यह हमारी रचनात्मकता, नवाचार की भावना और अनुकूलनशीलता की स्रोत है. इस बहुलता पर एकपक्षीय दृष्टिकोण थोपने का प्रयास न तो अतीत में सफल हुआ है और न ही भविष्य में इसके कामयाब होने की संभावना है.

श्याम शरण पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) में वरिष्ठ अध्येता हैं.


यह भी पढ़ेंः डेरेक ओ ब्रायन का आरोप- बंगाल में भाजपा के साथ मिले कांग्रेस-लेफ्ट-ISF, सिंगल डिजिट सीटों पर ही सिमटेंगे


 

share & View comments