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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतपेशावर बमकांड बताता है कि उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान में जिहादियों की जीत के दूरगामी नतीजे हो सकते हैं

पेशावर बमकांड बताता है कि उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान में जिहादियों की जीत के दूरगामी नतीजे हो सकते हैं

घोर आर्थिक संकट में फंसे पाकिस्तान के पास जिहादी संकट का मुक़ाबला करने के लिए न तो साधन है और न हिम्मत. नतीजतन, जिहादियों की जीत के आसार मजबूत होते दिख रहे हैं.

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जैसे कसाई की दुकान में मारे हुए बकरे को लटकाया जाता है, आदमी का काटा गया सिर पेड़ से लटका था, बेजान आंखें बचकी बाजार की मुख्य गली की ओर टिकी हुई थीं. खौफ का अपना ही शब्दकोश होता है. दहशत में जीने को मजबूर किए गए लोगों की तरह फ़्रंटियर कोंस्टेबुलरी के सैनिक रहमान ज़मां की विधवा अपने खाविंद का कत्ल करने वालों को ‘नामालूम अफराद’ बता रही थीं. हत्यारों ने बड़े फख्र से अपनी फिल्म भी बनाई थी और उस बर्बर कत्ल की फिल्म सोशल मीडिया में जारी कर दी थी और उन लोगों को चेताया था जो अल्लाह की फौज से लड़ने वाले काफिर सूबे की मदद कर रहे थे.

इस सप्ताह के शुरू में पेशावर की एक मस्जिद में फिदायीन हमले के, जिसमें 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे, बाद में वर्दीधारी पुलिस अफसरों ने हिम्मत करके यह नारा लगाते हुए मार्च किया था की ‘ये जो नामालूम हैं, वो हमको मालूम हैं’.
माना जाता है कि दिसंबर में सिपाही रहमान के कत्ल के अलावा नागरिकों पर दर्जनों हमलों की तरह यह बमबारी भी जमात-उल-अहरार की करतूत है. यह संगठन उन दर्जनों जिहादी गुटों में से एक है जिनसे मिलकर तहरीक-ए-तालिबान बना है और यह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में शरीया हुकूमत वाला अलग मुल्क बनाने के लिए लड़ रहा है.

महान इतिहासकर एजेपी टेलर ने 1848-49 की जर्मन क्रांतियों के बारे में कहा था कि ‘इतिहास एक मोड़ पर पहुंचा मगर मुड़ने में सफल नहीं हो सका.’ पाकिस्तानी फौज ने पेशावर बमकांड के बाद आतंकवाद से लड़ने का संकल्प लिया है. लेकिन इस तरह के शब्दों का कोई खास मतलब नहीं रह जाता. स्थानीय लोग हुकूमत से मांग करते रहे हैं कि वह जिहादियों के खिलाफ कार्रवाई करे लेकिन गृहयुद्ध के डर से हुकूमत ने जिहादियों के साथ गुप्त समझौता करने का फैसला किया.

जब से तालिबान ने काबुल में सत्ता संभाली है, पाकिस्तान में जिहादी हिंसा का विस्फोट हो गया है. घोर आर्थिक संकट में फंसे पाकिस्तान के पास जिहादी संकट का मुक़ाबला करने के लिए न तो साधन है और न हिम्मत. नतीजतन, जिहादियों की जीत के आसार मजबूत होते दिख रहे हैं.


यह भी पढ़ें: जनरल परवेज़ मुशर्रफ : तानाशाह की मौत याद दिलाती है कि उन्होंने कैसे पाकिस्तान को अशांत विरासत सौंपी


जानलेवा जिन्न

एक लोककथा कहती है कि गोलियों से बेखौफ जिन्नों की फौज की अगुआई में तुरंगज़ई के मुल्ला हाजी फज़ल वाहिद की सेना ने 1927 में मोहमंद में फ़्रंटियर कोंस्टेबुलरी की चौकियों की घेराबंदी कर ली थी. हालांकि शाही ताकत हावी हो गई लेकिन उस बगावत ने उत्तर-पश्चिम में ब्रिटिश सत्ता की पोल खोल दी. उपनिवेशवादी सरकार के नौकरशाह खान बहादुर कुली ख़ान ने निराश होकर कहा था, ‘मुल्लों की मजहबी ताकत तानाशाही में बदल गई है. वे किसी मोहमंद को शिकस्त दे सकते हैं.’

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पेशावर की पुलिस लाइन में फिदायीन हमला करने वाला इसी परंपरा का था.

ब्रिटिश बमों के बूते बगावत को नेस्तनाबूद किए जाने के आठ दशक बाद चार पहियों वाले एक वाहन में एसाल्ट राइफलों से लैस लोग मुल्ला हाजी फज़ल की दरगाह पर पहुंचे. 28 साल के युवा शायर अब्दुल वली ने खुद को इस मुल्ला के जिहाद का वारिस घोषित किया. बाद में वह ग्लोबल टेरर वॉचलिस्ट में उम्र खालिद खोरासनी के नाम से कुख्यात हुआ और उसे उन आतंकवादियों में शुमार किया गया जिसकी सारी दुनिया में खोज हो रही थी और जिसके सिर पर 30 लाख डॉलर का इनाम घोषित किया गया.

2014 में पेशावर में 132 स्कूली बच्चों की हत्या; इसके दो साल बाद क्वेटा के एक अस्पताल में फिदायीन हमले में 74 मरीजों का कत्ल; 2016 में ईस्टर डे पर कराची के गुलशन-ए-इकबाल पार्क में 72 लोगों का कत्लेआम— यानी तहरीक-ए-तालिबान के लिहाज से भी देखा जाए तो वली को हिंसा करने के असाधारण जुनून से लैस माना जा सकता है.

पूर्व पुलिस अधिकारी फरहान ज़ाहिद ने लिखा है कि खैबर पख्तूनख्वा के मोहमंद में गांव के खानदारों मदरसे में पढ़ाई करने के बाद अब्दुल वली हरकत-उल-मुजाहिदीन के लिए काम करने कराची चला गया. यह वह गुट था जिसका गठन आईएसआई के संरक्षण में हुआ और जिससे दक्षिण एशिया के जिहादियों की एक पूरी पीढ़ी निकली जिसने कश्मीर और अफगानिस्तान में लड़ाई लड़ी. बाद में, वली ने अफगानिस्तान में तालिबान के लिए काम किया और इस्लामी अमीरात के पतन के बाद अपने मुल्क लौटने से पहले वह अल-क़ायदा के ट्रेनिंग कैंप में कुछ समय रहा.

तहरीक-ए-तालिबान की पत्रिका ‘इह्या-ए-खिलाफ़त’ में आठ साल पहले छपे इंटरव्यू से पता चलता है कि वली विचारधारा की विरासत की गहरी समझ से प्रेरित था. इस जिहादी कमांडर का दावा था कि उसके दादा 1919-20 के तीसरे अफगान युद्ध में ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़े थे और उसके वालिद ने 1979 के बाद सोवियत सेना से मुक़ाबला किया था.

पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम से निकले कई तालिबानी लड़ाकों की तरह वली भी 9/11 कांड के बाद हथियारों और फौजी ट्रेनिंग से लैस होकर अपने मुल्क लौट आया था और उसने पुराने क़बायली कुलीनों को हटाकर शरीया पर आधारित सियासी हुकूमत कायम करने की कसम खाई थी. विद्वान लेखकों मोहम्मद क्वारिश और फख्र-उल-इस्लाम ने बताया है कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ इस मुहिम के समर्थक निकले, उन्हें उम्मीद थी कि अपनी फौजी हुकूमत को जायज ठहराने और मजबूत करने के लिए वे इस्लामवाद का इस्तेमाल कर सकते थे.

2006 में, वली को मोहमंद में नवगठित तहरीक-ए-तालिबान का अगुआ बनाया गया. इस गुट के अमीर फज़ल हयात से रिश्ते खराब होने के कारण, आठ साल बाद वली ने जमात-उल-अहरार का गठन किया. ‘इह्या-ए-खिलाफ़त’ ने घोषणा की, ‘काफिरों की विश्व व्यवस्था आतंकवाद की नींव पर खड़ी है. आतंकवाद यानी दहशत फैलाना जंग का जरूरी हिस्सा है.’ 2014 में जारी किए गए जमात-उल-अहरार के मैनिफेस्टो में वादा किया गया कि जब तक ‘दुनिया के हरेक कोने में’ खिलाफ़त कायम नहीं हो जाती तब तक वह जिहाद जारी रखेगा.

इस्लामी राज्य

उपनिवेशवाद के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली इस तरह की भाषा से पाकिस्तान का उत्तर-पश्चिम क्षेत्र अनजान नहीं था. 1897 में, अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद छेड़ने के लिए आफरीदी तथा ओरकज़ई कबीलों का आह्वान करते हुए मुल्ला नज्मुद्दीन ने लिखा था, ‘काफिरों ने मुस्लिम मुल्कों पर कब्जा कर लिया है. जंग शुरू करने का समय और दिन तय करो ताकि अल्लाह की फज़ल से काम पूरा किया जा सके. मजहबी तकरीरों ने 1897 और फिर 1907 में बगावत को भड़काया. बागियों का कत्लेआम किया गया लेकिन गुस्से की चिनगारी सुलगती रही.

साम्राज्यवादी शासकों ने मुल्लाओं को कमजोर करने के लिए क़बायली मालिकों, सरदारों को खूब रियायतें दीं लेकिन मुल्लाओं ने अंग्रेजों के समर्थक गांवों पर बागियों के हमलों के रूप में जवाब दिए. पाकिस्तान बन जाने के बाद भी क़बायली बागियों ने लड़ाई जारी रखी, और एक समय तो वहां की सरकार से यहां तक कहा कि वह ‘इन गांवों के खिलाफ विनाशक कार्रवाई’ के लिए वायुसेना को तैयारी करने के लिए कहे.

इतिहासकार साना हारून का कहना है कि बंटवारे से पहले सांप्रदायिक मोर्चाबंदी, आज़ादी के बाद अल्पसंख्यक अहमदियों के खिलाफ मुहिम, सोवियत संघ के खिलाफ जिहाद, इन सबने पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में मुल्लाओं के दबदबे को बढ़ाने में योगदान दिया. इसने तहरीक-ए-निफाज-शरीयत-मुहम्मदी या मूवमेंट फॉर एनफोर्समेंट ऑफ इस्लामिक लॉ जैसे नये जिहादी तहरीकों के उभार की नींव डाली और इसने अंततः तहरीक-ए-तालिबान को फलने-फूलने का माहौल दिया.

दाऊद खट्टक का कहना है कि 9/11 के बाद इन नये जिहादी तहरीकों के साथ जियो-और-जीने-दो जैसा सौदा करने की कोशिश का खास नतीजा नहीं निकला. जनरल मुशर्रफ और कमांडर नेक मुहम्मद वज़ीर के बीच हुआ समझौता चंद दिनों में ही टूट गया. वली के पहले संरक्षक बैतुल्लाह महसूद के साथ हुए समझौते का भी यही हश्र हुआ. तीसरा सौदा भी हिंसा न करने के वादे से जिहादियों के पलटने के कारण टूट गया.

पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने भी इसलामवाद का खुला समर्थन किया और विद्वान अहसान बट्ट ने जिसे तंज़ कसते हुए ‘दंगाइयों के साथ समझदारी बरतने का उपदेश’ कहा था वह भी जिहादियों के साथ सुलह-अमन न करा सका.

लड़ाई में हार

2014 में आर्मी पब्लिक स्कूल में बच्चों के कत्लेआम के बाद सेना ने खैबर-पख्तूनवा में व्यापक पैमाने पर कार्रवाई करके जिहादियों को जब अपने गढ़ से अंततः खदेड़ दिया तो तहरीक-ए-तालिबान अफगानिस्तान लौट गया. इतिहासकार एंतोनिओ गिऊस्तोज्जी ने बताया है कि वहां वली जैसे सरदारों ने नवगठित ‘इस्लामिक स्टेट’ और दूसरे जिहादी गुटों के साथ जटिल किस्म के रिश्ते बना लिये. पाकिस्तान में हिंसा हालांकि कम हो गई लेकिन खतरा कायम है और उसकी फौज को उम्मीद है कि अफगानिस्तान में मजबूत होता तालिबान अपनी समस्याओं का निपटारा कर लेगा.

पिछले साल, टॉप जिहादी कमांडर मुस्लिम ख़ान को पाकिस्तान की एक जेल में फांसी के तख्ते से गुपचुप हटाकर अफगान तालिबान के हवाले कर दिया गया. इमरान ख़ान ने खैबर-पख्तूनवा में जिहादियों का पुनर्वास करने के लिए जिहादी कमांडरों को हथियार डालने की शर्त पर कुछ राजनीतिक सत्ता सौंपने की योजना आगे बढ़ाई थी.

आईएसआई के पूर्व प्रमुख, ले. जनरल फ़ैज़ हमीद युद्धविराम का समझौता करने में सफल हुए थे लेकिन आतंकवादियों ने फिर हत्याएं, खुलेआम फांसी देने, पुलिस पर हमले करने शुरू कर दिए. देश के नेशनल काउंटर-टेररिज़्म ऑथरिटी ने कहा है कि युद्धविराम ने तहरीक-ए-तालिबान को अपने रंगरूट भरने का मौका दे दिया. पिछले साल, तहरीक-ए-तालिबान के गुटों ने दिखा दिया कि वे खैबर-पख्तूनवा के बाहर हमले कर सकते हैं, इस्लामाबाद में फिदायीन हमले कर सकते हैं.

पिछले सप्ताह, इस गुट ने पंजाब के मियांवाली में पुलिस थाने पर हमला कर दिया और डेरा गाजी ख़ान शहर में खुफिया अफसरों की हत्या कर दी.

वली पिछले साल अमेरिकी हमले में मारा गया. वैसे, पेशावर में बमबारी यही बताती है कि उसने जो जंग छेड़ी थी वह तेज हो रही है. पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में जिहादियों की जीत के दूरगामी नतीजे हो सकते हैं, मुल्क में अस्थिरता छा सकती है और इस पूरे क्षेत्र में जिहादी मूवमेंट मजबूत हो सकता है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)


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