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Wednesday, 24 April, 2024
होममत-विमतसंसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करने में कांग्रेस भूल गई अपना इतिहास, उसकी कथनी और करनी में बड़ा फर्क

संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करने में कांग्रेस भूल गई अपना इतिहास, उसकी कथनी और करनी में बड़ा फर्क

24 अक्टूबर,1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद के एनेक्सी भवन का उद्घाटन किया था. 15 अगस्त, 1987 को उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसदीय पुस्तकालय का शिलान्यास किया था.

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जबसे नए संसद भवन की परिकल्पना नरेंद्र मोदी सरकार ने की है उसी समय से विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं. तमाम राजनीतिक विरोधों के बावजूद सरकार ने आकांक्षी भारत के नए आधुनिक संसद भवन की नींव रखी और तय समय में उसका कार्य भी पूर्ण हो चुका है. नए संसद भवन के उद्घाटन की तारीख़ जैसे ही करीब आई देश का सियासी पारा यकायक हाई हो गया है. एक तरफ जहां सरकार इसके उद्घाटन को भव्य बनाने की तैयारी में जुटी हुई है, वहीं विपक्ष के 19 दलों ने इस आयोजन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है. इसी बीच नए संसद भवन के उद्घाटन का मामला अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है. सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति से कराने की मांग की गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने 28 मई को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन करने का निर्देश देने वाली जनहित याचिका को खारिज कर दिया है.

लोकतांत्रिक मर्यादा का उल्लंघन

भारत की नई संसद विकसित, स्वावलंबी और आत्मनिर्भर भारत का ऐतिहासिक प्रतीक चिन्ह है. ऐसे भारत का स्वप्न महात्मा गांधी, पं दीनदयाल उपाध्याय जैसे हमारे मनीषियों ने देखा था. आज जब हम उस मुहाने पर खड़े हैं ऐसे में विपक्ष द्वारा नए संसद भवन के उद्घाटन के बहिष्कार का रवैया ना केवल भारतीय लोकतांत्रित मर्यादा का उल्लंघन है बल्कि विपक्ष की लोकतांत्रित आस्था पर भी गहरे प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है.

सुविधावादी राजनीति कर रहा विपक्ष

देश के लिए यह अवसर बहुमूल्य है, भारतीय लोकतान्त्रिक परंपरा को समृद्ध और उसकी जड़ों में नई ऊर्जा का स्पंदन करने वाला है विपक्ष ने नए संसद भवन के उद्घाटन कार्यक्रम के बहिष्कार को लेकर सामूहिक पत्र जारी करते हुए जो सवाल उठाये हैं, उससे उनकी मानसिकता का पता चलता है. उस पत्र में कहा गया है कि प्रधानमंत्री का नए संसद भवन का उद्घाटन करना संवैधानिक नहीं है और इसे राष्ट्रपति का अपमान बताया है. विपक्ष ने इस पूरे विरोध की पटकथा को बहुत नाटकीय तरीके से शुरू किया था. पहले उन्होंने सवाल उठाया कि राष्ट्रपति के हाथों नए संसद भवन का उद्घाटन क्यों नहीं? उसके बाद ये विरोध दलित, आदिवासी और लोकतंत्र विरोधी भाजपा के नारों पर आकर सिमट गया है.

उल्लेखनीय यह है कि जब भाजपा इतिहास में पहली बार किसी एक आदिवासी समाज से आने वाली महिला को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने का निर्णय लिया और गैर एनडीए राजनीतिक दलों का भी समर्थन मांगा था, लेकिन जिन दलों को आज याद आ रहा कि द्रौपदी मुर्मू आदवासी हैं और यह आरोप लगा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार उनका अपमान कर रही है.

उस समय इन राजनीतिक दलों को उनके सम्मान की चिंता नहीं हुई थी. यह जानते हुए भी कि द्रौपदी मुर्मू आराम से राष्ट्रपति चुनाव जीतकर राष्ट्रपति भवन पहुंचने वाली हैं, बावजूद इसके उनके खिलाफ प्रत्याशी उतारा गया. एक आदिवासी समाज की महिला कैसे भी राष्ट्रपति ना बनें उसे रोकने के लिए इन विपक्षी दलों ने एड़ी चोटी का बल लगा दिया था. क्या तब आदिवासी समाज का अपमान नहीं हुआ था ? ऐसे कुतर्क और सुविधाजनक आदिवासी प्रेम दिखाकर विपक्ष देश के सामने खुद को ही नंगा रहा है.

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धूर्तता और दोगलेपन में राजनीति की नई परिभाषा गढ़ने वाली आम आदमी पार्टी और उसके नेता आज राष्ट्रपति के सम्मान और भाजपा को दलित-आदिवासी विरोधी बताने में जुटे हुए हैं, वही आम आदमी पार्टी राष्ट्रपति के अभिभाषण तक का बहिष्कार कर न्यूनतम संसदीय शिष्टाचार को पहले ही तिलांजलि दे चुकी है. उनके एक नेता ने तो सदन और उपराष्ट्रपति की मर्यादा को बार-बार तार किया है. बहरहाल, नए संसद भवन के विरोध में विपक्ष की यह क्षुद्र राजनीति ना केवल भारतीय शिष्टाचार का उल्लंघन है बल्कि विपक्ष के नकारात्मक एवं घृणापूर्ण राजनीति का भी जीताजागता प्रमाण है. अगर विपक्ष ने यह मुगालता पाल रखा है कि इस विरोध से वह जनसमर्थन प्राप्त कर लेंगे, तो यह उनकी बड़ी भूल है.


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कांग्रेस की कथनी और करनी में फर्क

यह देश के लिए गरिमामयी क्षण है. ऐसे विशिष्ट अवसर पर विपक्ष की यह राजनीतिक पैंतरेबाजी उसके नैतिक क्षय को प्रदर्शित करता है. लोकतांत्रिक परंपरा में विरोध के इस हठधर्मिता का कोई स्थान नहीं है. आज़म अमरोहवी की नज़्म की एक पंक्ति है ‘बात निकली है तो दूर तलक जायेगी’. जैसे ही कांग्रेस और विपक्षी दलों से ऐसे सवाल उठाए कांग्रेस शासनकाल के दौरान हुए इस तरह के आयोजनों को खंगालने पर बहुत ऐसे तथ्य सामने आए जो यह बताते हैं कि इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया और राहुल गांधी ने तमाम भवनों का शिलान्यास और उद्घाटन किया है. जो आज उन्हें उनके ही तर्क से सवालों के कटघरे में खड़ा करता है.

24 अक्टूबर,1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद के एनेक्सी भवन का उद्घाटन किया था. 15 अगस्त, 1987 को उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसदीय पुस्तकालय का शिलान्यास किया था. विदित हो कि इन दोनों कार्यक्रमों में राष्ट्रपति को आमंत्रित नहीं किया गया था. इसी तरह कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने अपने नए विधानसभा का उद्घाटन और शिलान्यास किया है. यह बातें तो पुरानी हो गई हैं. 2020 में छत्तीसगढ़ में नई विधानसभा का शिलान्यास हुआ था. क्या उसमें राज्यपाल को आमंत्रित किया गया था ? वहां की कांग्रेस सरकार ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को शिलान्यास के लिए आमंत्रित किया था.

अब सवाल यह उठता है कि सोनिया गांधी ने किस संवैधानिक अधिकार के साथ नए विधानसभा का शिलान्यास किया था ? इस तरह के अनेक उदाहरण कांग्रेस की कथनी और करनी के फर्क को स्पष्ट करते हैं. यह भी हैरानी की बात है कि लोकतंत्र और संविधान की बात वो कांग्रेस कर रही, जिसने देश पर आपातकाल थोपकर संविधान को रौंद दिया था, लोकतंत्र के दीपक को बुझा दिया था. संसद की गरिमा की बात वह कांग्रेस कर रही है, जिसके तत्कालीन सांसद और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ने अपनी ही सरकार द्वारा संसद में लाए गए अध्यादेश को फाड़ दिया था.

भारत के लिए यह ऐतिहासिक और सुनहरा अवसर

दरअसल, इन सारे विरोध का मूल है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध की आतुरता, विरोध के लिए विरोध की नकारात्मक प्रवृत्ति. इसमें कोई दो मत नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों की आखों में खटकते रहते हैं. आज नरेंद्र मोदी एक वैश्विक नेता के तौर पर पहचाने जा रहे हैं, ग्लोबल रेटिंग में वह विश्व के नेताओं के बीच सबसे अधिक लोकप्रिय हैं.

आज तक नरेंद्र मोदी कोई चुनाव नहीं हारे, भारतीय लोकतंत्र की सभी कसौटियों और परीक्षाओं में पर वह खरे उतरे हैं, लोकसभा के दो चुनावों में उनके करिश्माई नेतृत्व के कारण उनकी पार्टी विजयी हुई है. फिर प्रधानमंत्री नए संसद भवन का उद्घाटन क्यों ना करें ? प्रधानमंत्री हमारे शासन व्यवस्था का सर्वोच्च प्रधान होता है ऐसे में विपक्ष का अनर्गल प्रलाप उनकी राजनीतिक रणनीति का एक हिस्सा भर है.

एक आम भारतीय को विपक्ष के इस वितंडा से कोई लगाव नहीं है, बल्कि वह तमाम विरोधी दलों के इस नकारात्मक विरोध शैली को देखकर हैरान है. विदेश दौरे से वापस आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सिडनी में हुए कार्यक्रम का उदाहरण देते हुए विपक्ष को नसीहत दी. उन्होंने कहा कि भारतीय समुदाय के कार्यक्रम में वहां सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों दलों के नेता मौजूद थे. इशारों में प्रधानमंत्री ने वहां के लोकतांत्रिक वातावरण का जिक्र करके विपक्ष को लोकतांत्रिक शिष्टाचार का पाठ पढ़ाया है.

बहरहाल, भारत के लिए यह ऐतिहासिक और सुनहरा अवसर है, अच्छा होता कि सभी राजनीतिक दल लोकतंत्र के नए मंदिर में संवाद की नई धारा, लोक केन्द्रित विमर्श और लोकतांत्रिक मर्यादा के उच्च शिखर के पालन करने का संकल्प लेते हुए उद्घाटन कार्यक्रम में शमिल होते तथा विश्व को भारत के जीवंत लोकतांत्रिक मूल्यों एवं आदर्शों का सन्देश देते.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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