scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतइस साल रिटायर होंगे मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एचएल दत्तू, क्यों न उनके साथ ही आयोग को भी समेट दिया जाए

इस साल रिटायर होंगे मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एचएल दत्तू, क्यों न उनके साथ ही आयोग को भी समेट दिया जाए

मानवाधिकार आयोग ने बहुत चुनिंदा तरीक़े से नोटिस भेजे हैं, बड़े एहतियात के साथ मोदी सरकार को अपनी निगाहों से दूर रखा, और ग़रीबों को प्रशासन की उदासीनता से प्रताड़ित होने के लिए छोड़ दिया है.

Text Size:

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के क़द और रुतबे में, तेज़ी से आई कमी को देखते हुए, ये ख़याल बुरा नहीं रहेगा कि इसे इस साल 3 दिसम्बर को, उसी दिन समेट दिया जाए, जिस दिन इसके अध्यक्ष और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू सेवा निवृत्त होंगे.

बहुत कम लोग हैं, ख़ासकर भारत की केंद्र और राज्य सरकारें, जो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को गंभीरता से लेते दिखाई पड़ती हैं. और जो गंभीरता से लेते हैं वो अक्सर सोचते रह जाते हैं, कि आयोग ने परीक्षा की इस घड़ी में, मानवाधिकार उल्लंघन के सैकड़ों मामलों से निपटने में, कोई गंभीरता या तत्परता क्यों नहीं दिखाई है.

आदर्श रूप में, एनएचआरसी को सुप्रीम कोर्ट में सरकारी उदासीनता पर चल रही सुनवाईयों में सबसे आगे रहना चाहिए था, जिसकी वजह से पिछले 2 महीने में भारत के ग़रीब नागरिक, मौत और उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं लेकिन ये एक बड़ा काम लगता है.

एक पूर्व जज होने के नाते, जस्टिस दत्तू की कही गई बात की अहमियत, और सुर्ख़ियां बनाने वाले महत्व को बख़ूबी समझते हैं. वो अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में, वो कोई वास्तविक सबूत नहीं, बल्कि अलग-अलग खण्डपीठों की ज़ुबानी टिप्पणियां थीं, जिन्होंने लोगों को कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के ख़िलाफ कर दिया था.

एनएचआरसी के अध्यक्ष के नाते, लगता है कि उन्होंने अपनी आवाज़ भी खो दी है, और आयोग को भी ख़ामोश कर दिया है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ेंः भारत के नफरत के एजेंडा से ट्विटर और फेसबुक ने खूब मुनाफा कमाया, अब इसे कानून लाकर खत्म करने का समय


मानक प्रक्रिया

एक आध बार, एनएचआरसी किसी घटना का स्वत: संज्ञान लेता है, जैसे कि औरंगाबाद में 16 प्रवासी मज़दूरों का ट्रेन के नीचे कुचला जाना, जो पैदल घर लौटने के दौरान पटरियों पर सो गए थे. एनएचआरसी ने महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी किया. और फिर….कुछ नहीं.

ये एक मानक प्रक्रिया है, जिसका कभी कोई नतीजा नहीं निकलता. हमें कभी पता नहीं चलता कि क्या सरकारी मुलाज़िमों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई. किसे ज़िम्मेदार ठहराया गया, या भविष्य में ऐसी घटनाएं रोकने के लिए क्या कोई व्यवस्था बनाई गई. ऐसा लगता है कि जैसे एनएचआरसी का पूरा उद्देश्य ‘संज्ञान लेना’ और ‘नोटिस जारी’ करना, और फिर इंतज़ार करना है, जब तक कि इसके सदस्य किसी दूसरी ख़बर से ख़फ़ा नहीं हो जाते.

एनएचआरसी को एक बार सुप्रीम कोर्ट ने, एक ‘बिना दांत वाला बाघ’ क़रार दिया था, एक ऐसा भाव जिसे आयोग के मौजूदा अध्यक्ष जस्टिस दत्तू ने भी दोहराया. पहले ही पर्याप्त शक्तियों से वंचित, जिसकी जस्टिस दत्तू अक्सर बात करते हैं, एनएचआरसी ने वो थोड़ी सी शक्तियां भी इस्तेमाल नहीं की हैं, जो इसे हासिल हैं.

दत्तू ने ख़ुद स्वीकार किया, कि मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में एनएचआरसी के पास केवल कार्रवाई की अनुशंसा करने का अधिकार है. ये सरकार के ऊपर है कि उन सिफारिशों को मंज़ूर करे, या कचरे के डब्बे में फेंक दे. हाल की प्रवृत्ति से लगता है कि अधिकतर सरकारें ऐसा ही करती हैं.

लेकिन आयोग के सदस्य, जिनमें जस्टिस दत्तू भी शामिल हैं, उस दोष से नहीं बच सकते, जिसकी वजह से स्थिति यहां तक आ गई है, ख़ासकर तब, जब बहुत कम लोगों की इस संस्था में कोई आस्था बची है, जिसे नागरिकों और उनके अधिकारों के बचाव में, सबसे आगे होना चाहिए था.

कोविड ने उजागर की अक्षमता

किसी घटना ने भारतीयों के अधिकारों के लिए खड़े होने में, एनएचआरसी की अयोग्यता और अनिच्छा को उतनी सफाई से उजागर नहीं किया, जितना महामारी से हुए लॉकडाउन ने किया. इसने मीडिया की कुछ ख़बरों का ‘संज्ञान लेकर’ अपने रस्मी फर्ज़ को निभाया है, और लापरवाही के साथ नोटिस जारी किए हैं, जिनमें से अधिकतर का कुछ नहीं हुआ. एनएचआरसी ने, जिसकी स्थापना मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 के अंतर्गत की गई थी, अपने मूल कार्य को छोड़ ही दिया है.

जम्मू-कश्मीर में लम्बे समय से चले आ रहे लॉकडाउन पर, एनएचआरसी की प्रतिक्रिया लगभग नगण्य ही रही है- वो केंद्र शासित क्षेत्र जहां मानव अधिकारों से जुड़े सभी मामले अब एनएचआरसी को निपटाने हैं, किसी दूसरी बॉडी को नहीं, जो विशेषकर उसी क्षेत्र के लिए हो. लॉकडाउन के दौरान मुस्लिम नागरिकों और उनके समुदाय के लोगों को लगातार निशाना बनाए जाने पर भी, एनएचआरसी ने शायद ही कोई प्रतिक्रिया दी हो. या पुलिस के द्वारा बढ़ती ‘फर्ज़ी मुठभेड़ों’ पर, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में.

बेरोज़गार मज़दूरों की दुर्दशा भी कमीशन को उसकी नींद से नहीं जगा सकी, जो लॉकडाउन के दौरान अपने घर पहुंचने के लिए, लाखों की संख्या में नंगे पांव और भूखे पेट, सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर हो गए.

ये चुनिंदा तरीक़े से नोटिस जारी करता है, इसने बड़े एहतियात के साथ मोदी सरकार को अपनी निगाहों से दूर रखा, और ग़रीबों को सरकार की उदासीनता से प्रताड़ित होने के लिए छोड़ दिया.

पहले के समय में, एनएचआरसी सदस्य सरकार और उसकी एजेंसियों से सीधे टकराते थे, और कोर्ट के उन मामलों में, जहां बहस का बिंदु मानवाधिकार उल्लंघन होता था, आयोग को पक्षकार भी बनवाते थे. पोटा और उसके पिछले अवतार, टाडा जैसे आतंक विरोधी क़ानूनों पर, एनएचआरसी द्वारा उठाए गए कड़े ऐतराज़ को कौन भूल सकता है? दुर्भाग्यवश, ऐसी सक्रियता अब इतिहास हो गई है.


यह भी पढ़ेंः जजों के खाली पदों के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की दर्जन भर नामों की सिफारिश पर मोदी सरकार का ‘पुनर्विचार’ का फरमान जारी


अपने पिछले रूप का साया मात्र

आंकड़े झूठ नहीं बोलते. 2015 में दर्ज हुए ताज़ा मामलों की ऊंची संख्या 1.2 लाख से गिरते-गिरते, 2017-18 में एनएचआरसी में केवल 79,612 केस दर्ज किए गए. मानवाधिकार उल्लंघन के कुल मामलों के लगभग आधों (38,659) के साथ, उत्तर प्रदेश लगातार पहले स्थान पर बना हुआ है.

एक्सपर्ट्स भी इस ओर इशारा करते हैं कि कैसे, ख़ासकर पुलिस व क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों के द्वारा, मानव अधिकार उल्लंघन के मामले, लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन एनएचआरसी में दर्ज होने वाले, ताज़ा मामलों की संख्या घट रही है.

इसका मतलब ये भी हो सकता है कि अपने अधिकारों के रक्षक के नाते, एनएचआरसी में लोगों की आस्था घट रही है.

नागरिकता संशोधन क़ानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे, बेबस छात्रों पर पुलिस की बर्बर हिंसा के बाद, एनएचआरसी ने पीड़ितों के बयान दर्ज करने के लिए एक टीम भेजी. उसके बाद से इस बारे में कुछ सुनने को नहीं मिला.

एनएचआरसी ने पुलिस से ये पूछना भी उचित नहीं समझा, कि जवाहर लाल यूनिवर्सिटी परिसर में हिंसा फैलाने वालों के खिलाफ उसने क्या कार्रवाई की. अगर कुछ हुई भी, तो किसी को उसके बारे में, या उसके बाद आयोग की कार्रवाई के बारे में, कुछ मालूम नहीं है.

ऐसा लगता है कि एनएचआरसी में इच्छा ही नहीं बची है, कि वो मोदी सरकार और उसकी एजेंसियों से कोई अप्रिय सवाल पूछे. ये एनएचआरसी के बेअसर होने का ही नतीजा है कि साल दर साल, जेनेवा की संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के सालाना यूनिवर्सल पीरियॉडिक रिव्यू प्रॉसेस में, भारत के मानवाधिकार रिकॉर्ड पर प्रतिकूल टिप्पणियां होती हैं.

और इसलिए, दिसम्बर में जस्टिस दत्तू अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे, और एनएचआरसी उससे भी अधिक बे-दांत का रह जाएगा, जितना वो उनके चार्ज लेने के समय था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनका निजी विचार है)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. Apka anklan galat hai….yah bibhag bahut ache se Kam Kar Raha hai….koi b Dept apke hisab se Kam nahi karega…

Comments are closed.