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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतमोदी सिद्ध करते हैं कि एक शक्तिशाली नेता मजबूत अर्थव्यवस्था भी दे यह जरूरी नहीं

मोदी सिद्ध करते हैं कि एक शक्तिशाली नेता मजबूत अर्थव्यवस्था भी दे यह जरूरी नहीं

अपनी लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे नरेंद्र मोदी ने आर्थिक सुधारों की ओर से कदम पीछे खींच कर इस तथ्य को ही रेखांकित किया है कि शक्तिशाली नेता आर्थिक मामलों में निर्णायक नेतृत्व दें यह जरूरी नहीं है.

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भारतीय राजनीति का विश्लेषण करने वाले हम लोगों के लिए वक़्त आ गया है कि हम दो बातें कबूल कर लें. पहली बात यह कि हम कुछ समय से एक गलत सवाल पर बहस में उलझे रहे हैं. और दूसरी बात यह कि हम गलत जवाबों की तरफदारी करते रहे हैं. 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद से दिमाग में सबसे अहम सवाल यह घूमता रहा है कि क्या अच्छी अर्थनीति अच्छी राजनीति को भी जन्म देती है? इसे इस तरह भी कहा जा सकता है-क्या आप बाज़ार को कुछ ताकत देकर आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए अर्थव्यवस्था में सुधार करने, सरकारी तंत्र और नौकरशाही को छोटा करने के बाद दोबारा सत्ता में लौट सकते हैं? अगर दोबारा वापस नहीं आ सकते तो फिर आपको क्या करना चाहिए?

इसका एक ही जवाब मिलता रहा है कि एक ऐसे मजबूत नेता को लाओ, जो राजनीतिक जोखिम लेने से घबराता न हो. ऐसे मजबूत नेता के पास इतनी राजनीतिक पूंजी होगी कि वह आर्थिक सुधारों के आलोकप्रिय ‘ साइड इफ़ेक्ट्स ‘- मसलन विषमता में वृद्धि और पूंजीवाद के रचनात्मक विनाश— को गौण बना देगा. अंततः विजेता वही होगा और बाकी के हमलोग भी होंगे.

हाल के राजनीतिक इतिहास की जीवित वास्तविकता यही दर्शाती है कि हम दोनों मामलों में किस तरह गलत साबित हुए हैं. हम इंदिरा गांधी के बाद के सबसे शक्तिशाली नेतृत्व की सत्ता के छठे साल में हैं. वैसे, कुछ लोग, खासकर नरेंद्र मोदी के समर्थक यह भी दावा कर सकते हैं कि वे इंदिरा गांधी से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं. आखिर, उन्होंने ऐसे जोखिम लिये हैं और ऐसे फैसले किए हैं जिनकी हिम्मत इंदिरा गांधी अपने उत्कर्ष के दौर में भी नहीं कर पाई थीं, भले ही वे ऐसे फैसले करना चाहती रही हों, मसलन जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करना.


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या जैसा कि इस केंद्रीय मंत्रिमंडल में दुर्लभ विद्वान विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दिल्ली की संस्था सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च द्वारा आयोजित वार्षिक सम्मेलन (जिसमें दप्रिंट डिजिटल पार्टनर था) में कहा, बीते दशकों में सरकारें कई विवादास्पद मसलों पर केवल शोर मचाती रहीं. मोदी सरकार ने ही उन पर फैसला करने की ताकत दिखाई. आप इसके लिए कोई भी मुहावरा इस्तेमाल कर सकते हैं-बिल्ली के गले में घंटी बांधी, जहर पिया, मुसीबत से सीधी टक्कर ली.
यह सब तो ठीक है, और अगर आप उनके भक्त हैं— मोदी की भाजपा को दोबारा बहुमत मिलने से जाहिर है कि भारतीय मतदाताओं में उनके भक्तों की संख्या काफी बड़ी है— तो यह सब बहुत जोशीला भी लगेगा. लेकिन कुछ सवाल उभरते हैं. पहला तो यही है कि भारत के सबसे शक्तिशाली और साहसी नेता अगर अच्छी राजनीति कर रहे हैं तो क्या इससे अच्छी अर्थनीति भी उभरी है? या उनके पूर्ववर्तियों की अर्थनीति की तुलना में बस थोड़ी बेहतर अर्थनीति आई है? या जैसा कि लोकप्रिय अमेरिकी मुहावरा कहता है, वह पहले के मुक़ाबले कम खराब हुई है?

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हम यह नहीं कह रहे कि आपने जिसे वोट दिया उस पर पछताने लगें. केवल आर्थिक स्थिति ही नहीं बल्कि कई और कारणों और प्रेरणाओं के चलते आप फैसला करते हैं कि किसे वोट देना है. आप एक सर्वशक्तिमान, मजबूत नेता के पक्ष में भी वोट दे सकते हैं. संस्कृति, राष्ट्रवाद, भाषण देने की कला, करिश्मा, आदि सबको ध्यान में रखते हुए आप मतदान करते हैं. लेकिन बहस का मुद्दा यह है कि क्या मजबूत नेता का मतलब मजबूत अर्थनीति भी है, भले ही ऐसे नेताओं के तौर-तरीके और लक्ष्य उनके लिए और उन्हें फिर से सत्ता दिलाने के लिए माकूल हों? 2019 की गर्मियों में पहले के मुक़ाबले ज्यादा बड़े बहुमत से मोदी की वापसी ने दो बातों को साबित कर दिया. एक तो यह कि उन्होंने अच्छी राजनीति खेली. दूसरे, हालांकि आर्थिक वृद्धि में ठहराव, बढ़ते घाटे और रेकॉर्ड बेरोजगारी से जाहिर है कि उनकी अर्थनीति गड़बड़ है, फिर भी मतदाताओं ने इसकी परवाह नहीं की.

इसलिए हमने कहा कि इतने वर्षों से हम पहला ही गलत सवाल उठाते रहे हैं कि क्या अच्छी अर्थनीति से अच्छी राजनीति उभरती है? सवाल यह होना चाहिए था कि क्या अच्छी, कामयाब राजनीति को अर्थनीति की फिक्र भी करनी चाहिए? जवाब स्पष्ट है— अगर आपको पता है कि आपको किस तरह की राजनीति करनी है, आप अनुकूल भावनाओं को उभारना जानते हैं, पर्याप्त संख्या में लोगों को कुछ ठोस और लुभावने लाभ पहुंचाना जानते हैं, तब लोग बेरोजगारी, आर्थिक वृद्धि, किसानों के संकट आदि तमाम बातों की अनदेखी कर सकते हैं. वैसे भी, मोदी के ज़्यादातर मतदाता तो आर्थिक आंकड़ों पर नज़र भी नहीं डालते, खासकर इसलिए कि दूसरी बातें उनमें ‘फील गुड’ या ‘अच्छे दिन’ के एहसास भरते रहते हैं. इसी ‘फील गुड’ के एहसास पर सवार होकर वाजपेयी सरकार ने 2004 के चुनाव में ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर अपने पक्ष में लहर पैदा करने की नाकाम कोशिश की थी.


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अपने प्रारम्भिक कथन में खामी को कबूल करते हुए हम अगले तर्क की ओर बढ़ते हैं, कि एक मजबूत नेता हमारी इस इच्छा को तो पूरा करता ही है- वह तात्कालिक राजनीतिक जोखिमों की परवाह न करते हुए एक निर्णायक आर्थिक नेतृत्व भी देता है, जो सबके लिए लाभकारी हो. यह सुकून हमें न तो कोई आंकड़ा पहुंचाता है और न आज की आर्थिक स्थिति का एहसास. सारे आर्थिक संकेतक नकारात्मक हो चुके हैं और यह हालत काफी समय से है— चाहे वह आर्थिक वृद्धि के आंकड़े हों या घाटे के, व्यापार (निर्यात-आयात) के या निवेश, बचत, रोजगार आदि के. 1991 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसी लंबी मंदी या आर्थिक आंकड़ों में ऐसा लंबा ठहराव पहले कभी नहीं आया था. तो क्या यह कहा जा सकता है कि मजबूत नेता का उभरना अच्छी, साहसी अर्थनीति की गारंटी नहीं है?

कोई विश्लेषण मताग्रही है या पूर्वाग्रह ग्रस्त है या नहीं इसकी पुष्टि करने के लिए जानकारियां या आंकड़े जुटाना सबसे कठिन है. वैसे, हम खुशकिस्मत हैं कि यह अनमोल चीज़ हमें क्वार्ट्ज डॉटकॉम की जीओ-पॉलिटिकल रिपोर्टर अन्नालीसा मेरेली ने रॉयल मेलबर्न इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और विक्टोरिया यूनिवर्सिटी के स्टेफानी रीजीओ एवं अहमद स्काली द्वारा किए गए एक शोध के बारे में विस्तृत खबर के रूप में दी है. इस शोध को ‘लीडरशिप क्वार्टरली’ नामक पत्रिका ने प्रकाशित किया है और मेरेली की रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं. इन शोधकर्ताओं ने 1858 से 2010 तक के 152 वर्षों में 133 देशों के राजनीतिक एवं आर्थिक इतिहास का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि जो भी शक्तिशाली नेता हुए उन्होंने ‘अपने देश की अर्थव्यवस्था को या तो नुकसान पहुंचाया या उसके लिए बेमानी रहे’. आप सवाल कर सकते हैं कि तो सिंगापुर के ली क्वान यी या रवांडा के पॉल कागामे सरीखे ‘उदार तानाशाहों’ को क्या मानें?

उपरोक्त शोध का निष्कर्ष यह है कि ताकतवर नेताओं में एकाध अच्छे अपवाद भी संयोग से उभर आते हैं, लेकिन ऐसे ज़्यादातर नेताओं ने अपनी अर्थव्यवस्था पर कुल मिलाकर नियमतः नकारात्मक असर ही डाला. इस शोध पर अपनी रिपोर्ट में मेरेली ने लिखा है कि ‘अधिकतर शक्तिशाली नेताओं को अपनी अर्थव्यवस्था जिस हाल में मिली उससे बुरी हालत में ही लाकर उन्होंने उसे छोड़ा, या संयोग से जो आर्थिक वृद्धि हुई उसकी ‘लहर’ पर ही उन्होंने सवारी की.’ इनमें से सारे नेता तानाशाह नहीं थे. कई तो लोकतांत्रिक देशों में उभरे और उन्हें चुनावों का सामना करना पड़ा. तो मतदाताओं ने उन्हें तुरंत सज़ा क्यों नहीं दी? या जिन्हें वे कमजोर मानते थे उनके मुक़ाबले शक्तिशाली नेताओं के प्रति वे क्षमाशील क्यों रहे?


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भारतीय संदर्भ में देखें, तो जरा सोचिए कि जिस इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने के कारण मतदाताओं ने गद्दी से हटा दिया था उन्हें तीन साल के भीतर वापस क्यों बुला लिया? शक्तिशाली नेतृत्व के प्रति यह प्रबल आकर्षण क्या है? हम फिर उपरोक्त शोध का ही सहारा लेते हैं, जबकि इसके निष्कर्ष किसी भी देश के मतदाता के लिए प्रशंसापूर्ण नहीं हैं, हालांकि व्यक्तिगत तौर पर मैं वानरों का प्रशंसक हूं. स्काली ने मेरेली से कहा, ‘मुश्किल दौर में वानर प्रायः अपने बीच के शक्तिशाली नर वानर की सत्ता को ही कबूल करते हैं और उसी का अनुसरण करते हैं.’ इससे यह धारणा भी गलत साबित होती है कि शक्तिशाली नेतृत्व का मतलब है अच्छी अर्थनीति, जिस तरह हमारा यह पहला सवाल गलत साबित हुआ था कि क्या अच्छी अर्थनीति शक्तिशाली नेतृत्व को जन्म देती है?

अब जरा मोदी के दौर पर नजर डालिए. उन्होंने सबसे साहसी- और मेरे विचार में सबसे स्वागतयोग्य एवं सुधारवादी-कदम जो उठाया, वह था नया भूमि अधिग्रहण बिल, जिससे वे पीछे हट गए. अपनी ताकत और लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचकर वे यह जोखिम लेने से पलट गए. अपने छह साल के राज में ऐसा उन्होंने पहली बार यह किया था. सबसे बदतर और लापरवाही भरा कदम था नोटबंदी का, जिस पर वे अड़े रहे. इससे उन्हें राजनीतिक फायदा भी मिला. इस कदम के बाद ही उत्तर प्रदेश के चुनाव में तो उन्हें इसका लाभ मिला ही, क्योंकि इसने शक्तिशाली और निर्णायक नेता वाली उनकी छवि को मजबूत किया था.


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मुक्त बाज़ार, निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा, नीची टैरिफ, मुक्त व्यापार, हल्के टैक्स, और न्यूनतम सरकार का समर्थक होने के बावजूद मुझे इस बहस को पूरा करने के लिए थॉमस पिकेटी की मदद लेनी पड़ेगी इसकी कल्पना मैंने नहीं की थी, चाहे उनके विचार कितने भी जटिल क्यों न हों. मैं मानता था कि उनकी पहली किताब हल्की है. उनकी अब जो दूसरी किताब ‘कैपिटल ऐंड आइडीओलॉजी’ आई है, वह तर्कपूर्ण बात कर रही है. इसमें उन्होंने लिखा है-‘ विषमता न तो आर्थिक होती है, न टेक्नोलॉजी से जुड़ी होती है. इसका ताल्लुक विचारधारा और राजनीति से होता है.’ और यह तब तक जारी रहेगी जब तक शक्तिशाली नेता इसके बावजूद अपनी प्रभुत्ववादी राजनीति और विचारधारा के साथ फलते-फूलते रहेंगे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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