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Thursday, 25 April, 2024
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भारत की खरबों डॉलर की संपदा झुग्गियों में बंद पड़ी है, उन्हें मुक्त करने का समय आ चुका है

झुग्गी, बस्तियां हमारी संपदा पर एक बहुत बड़े बोझ की तरह हैं, जबकि शहरी प्रॉपर्टी के बारे में समझदारी भरी नीति बनाने मात्र से इसका समाधान संभव है.

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भारत में हर साल रोज़गार की लाईन में लगने वाले 70 से 80 लाख लोगों को नौकरी देने के लिए जीडीपी की वृद्धि दर को 10 प्रतिशत से ऊपर ले जाना होगा और इसके लिए चाहिए अगले पांच वर्षों तक सालाना एक खरब डॉलर का निवेश. इतनी बचत करना और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी, इस पूंजी का उद्यमियों द्वारा लाभदायक इस्तेमाल सुनिश्चित करना एक दुष्कर कार्य है.

लेकिन जैसा कि पेरू के अर्थशास्त्री हर्नांडो डि सोटो के विचारों के सहारे हमने नीचे प्रदर्शित किया है. इस आवश्यक पूंजी का एक बड़ा हिस्सा, कोई 2-3 खरब डॉलर, देश में मौजूद है पर उसका पूरी तरह दोहन नहीं हो पाया है. करीब 20-30 लाख छोटे उद्यमियों के पास ये पूंजी है पर वे इसका पूरी तरह इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. जबकि उनके पास छोटे व्यवसायों को सफलतापूर्वक चलाने का अपार अनुभव है.

सालाना एक खरब डॉलर की अतिरिक्त पूंजी जुटाने के लिए पहले कदम के तौर पर हम 2-3 खरब डॉलर की संभावित संचित पूंजी वाले इन छोटे उद्यमियों की सेना को मैदान में उतारने की सोच सकते हैं. इसके लिए हमें अपने प्रॉपर्टी बाज़ार में ऐसे सुधार करने होंगे, जो कि इन उद्यमियों द्वारा पिछले करीब 50 वर्षों में साबित की गई उद्यमिता और उनकी बचत को प्रतिबिंबित करे.

भारत की अनुत्पादक पूंजी संपदा

अपनी पुस्तक ‘द मिस्ट्री ऑफ मिसिंग कैपिटल’ में हर्नांडो डि सोटो लिखते हैं: ‘पूंजी वह बल है जो श्रमिकों की उत्पादकता को बढ़ाता है और राष्ट्रों की संपदा को निर्मित करता है. यह पूंजीवादी व्यवस्था की जान, प्रगति की बुनियाद और वो एक चीज़ है जो कि लगता है दुनिया के गरीब देश खुद के लिए पैदा नहीं कर सकते हैं. भले ही उनकी जनता बड़ी उत्सुकता से उन सारी गतिविधियों में संलग्न हों जो कि एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को परिलक्षित करती हैं.’

दूसरी ओर विकसित देश कम जीडीपी वृद्धि और बहुत ही कम बचत दरों के बावजूद पूंजी में उतरा रहे हैं. ऐसा क्यों है कि लाखों की संख्या में मेहनती, स्वरोजगार में लगे और अपनी आय का 35 प्रतिशत तक बचाने वाले उद्यमी अपने व्यवसायों के विस्तार में पूंजी के संकट का सामना कर रहे हैं और आगे बढ़ने में बाधक अपनी बेड़ियों को तोड़ने में नाकाम हैं? कड़ी मेहनत करने वाले और असाधारण रूप से जोखिम लेने वाले इन उद्यमियों को अधिक समृद्धि पाने से कौन रोक रहा है? हर्नांडो इसी विरोधाभास को समझाने की कोशिश करते है.

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इसे समझने से पहले हमें एक तरफ तो संपत्ति और पूंजी के बीच के संबंधों और दूसरी ओर संपत्ति के पूर्ण पूंजी में रूपांतरण, ताकि अर्थव्यवस्था में उनका भिन्न रूपों में इस्तेमाल होने की प्रक्रिया को समझना होगा. यहां सपत्ति का मतलब लोगों के पास मौजूद तमाम आर्थिक साधनों से है. बैंक अकाउंट, वित्तीय परिसंपत्ति या रियल एस्टेट. पर, हम यहां रियल एस्टेट पर फोकस करेंगे क्योंकि स्वरोजगार करने वाले उद्यमी बचत के लिए अक्सर इसी संपत्ति का इस्तेमाल करते हैं.

बचत से प्रॉपर्टी बनती है. इसे समझने के लिए हम मुंबई के कफ़ परेड इलाके के एक टैक्सी ड्राइवर का उदाहरण लेते हैं जो किराये की एक खोली में रहता है, दो शिफ्टों में किराये पर ली हुई टैक्सी चलाता है, और जो भी बचत हो पाती है उसे बैंक में जमा करता है. इस उम्मीद में कि वह कभी अपनी खुद की खोली खरीदेगा जो कि अवैध होने के बावजूद झुग्गियों के अनौपचारिक बाज़ार में खरीदी-बेची जाती है. बिजली बिलों के रूप में इन खोलियों के ‘टाइटिल डीड’ भी हैं, जबकि परंपराओं के तहत और ‘स्लमलॉर्ड’ के संरक्षण में झुग्गियों में संपत्ति के अधिकार को भलीभांति मान्यता प्राप्त है. यहां तक कि स्लमलॉर्ड अपनी सेवाओं के लिए हफ्ता या कर भी वसूलता है. खरीद-बिक्री का रिकॉर्ड स्लमलॉर्ड के पास और आगे चलकर कई बार तो वर्षों के बाद, बिजली-पानी की आपूर्ति करने वाले प्रतिष्ठानों के पास सुरक्षित रहता है. संक्षेप में कहें तो, औपचारिक कानूनों से परे झुग्गी बस्तियों में प्रॉपर्टी के नियमन की पूरी व्यवस्था है. ये परिसंपत्तियां वास्तविक हैं. और ये क्रांति जैसी ही बात है कि एक सुस्थापित झुग्गी को किसी औपचारिक कानून के सहारे खाली कराना नामुमकिन है.

किसी झुग्गी में ऐसी कोई प्रॉपर्टी रखने में क्या समस्या है? जैसा कि हर्नांडो बताते हैं, ये संसाधन ‘त्रुटिपूर्ण तरीके से रखे जाते हैं. ऐसी ज़मीन पर बना घर जिसके स्वामित्व के अधिकार का ठीक से दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है. अपंजीकृत व्यवसाय जिसमें अंतिम देनदारी को लेकर अस्पष्टता है और उद्योग ऐसी जगह स्थापित हैं, जहां की फाइनेंससरों और निवेशकों की नज़र नहीं पड़ पाती है. चूंकि इन संपत्तियों के स्वामित्व के अधिकार के बारे में पर्याप्त रिकॉर्ड नहीं होते, इसलिए इन्हें शीघ्रता से पूंजी में तब्दील करना संभव नहीं है, इनकी खरीद-बिक्री एक-दूसरे से परिचित और परस्पर भरोसा करने वाले छोटे से सर्किल के बाहर नहीं हो सकती, इन्हें ना तो कर्ज के लिए गिरवी नहीं रखा जा सकता और ना ही किसी निवेश के हिस्से के तौर पर इसका इस्तेमाल हो सकता है.’


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हर्नांडो के मॉडल को अपने टैक्सी ड्राइवर के उदाहरण पर लागू करने पर तीन बातें स्पष्ट हो जाती हैं:

1. टैक्सी ड्राइवर की खोली व्यापक अर्थव्यवस्था को नज़र नहीं आती क्योंकि ना तो उसके पास इसका कोई औपचारिक मालिकाना टाइटल है और ना ही यह उसके नाम रजिस्टर्ड है. वह इस खोली का मालिक है. इसमें अपनी वर्षों की कमाई लगा चुका है, पर झुग्गी के बाहर की दुनिया में इसका कोई उपयोग नहीं हो सकता है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि किसी परिसंपत्ति के प्रॉपर्टी और अर्थव्यवस्था में प्रतिस्थाप्य पूंजी बनने के लिए ज़रूरी है कि वह किसी व्यक्ति विशेष से कानूनी रूप से संबद्ध हो. प्रॉपर्टी के पूंजी में रूपांतरण के लिए यह न्यूनतम अर्हता है.

2. टैक्सी चालक की प्रॉपर्टी का एक ही उपयोग है. इसका मालिक होने के कारण वह और उसका परिवार इसे अपने लिए इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन दूसरी टैक्सी खरीदने, अपने व्यवसाय को बढ़ाने, या बिहार के अपने गांव में खेती के विस्तार या अपने बच्चे को किसी अच्छे कॉलेज में पढ़ाने के वास्ते बैंक ऋण के लिए वह अपनी खोली को रेहन नहीं रख सकता है. इस प्रकार, उसकी प्रॉपर्टी की उपयोगिता या उत्पादकता बेहद सीमित है. दूसरे शब्दों में, स्वरोजगार वाले एक उद्यमी के पास अधिक विकल्प नहीं होते हैं, क्योंकि संपत्ति के मूल्य की पुष्टि करने वाली औपचारिक संपत्ति प्रणाली से संबद्वता के अभाव में वह अपनी बचत का पूरा लाभ नहीं उठा सकता है. हालांकि, उसकी बचत भी कानूनन मान्यता प्राप्त किसी बचत के समान ही वास्तविक हैं और संपत्ति बहुत परिश्रम से अर्जित की गई है.

3. टैक्सी चालक की प्रॉपर्टी उसकी अन्य संपत्तियों के साथ या अर्थव्यवस्था में ऐसी अन्य परिसंपत्तियों के साथ पूरी तरह प्रतिस्थाप्य नहीं है. उसकी संपत्ति न तो उसके लिए और न ही अर्थव्यवस्था में दूसरों के लिए एक सामान्य पक्की पूंजी है. दूसरे शब्दों में, कड़ी मेहनत से अर्जित बचत से निर्मित उसकी पूंजी, सीमित गतिशीलता वाली और बेड़ियों में जकड़ी है, और जब तक हम इसे अर्थव्यवस्था के औपचारिक पूंजी भंडार से जोड़ने की कोई व्यवस्था नहीं करते, यह उसके लिए या दूसरों के लिए अतिरिक्त धन पैदा करने लायक उत्पादक नहीं बन सकती है. यही है तीसरी दुनिया के गायब पूंजी भंडार का रहस्य. इसका अस्तित्व तो है पर हम अभी तक इसे अनलॉक करने और सामान्य पूंजी के रूप में इसके उपयोग का तरीका नहीं ढूंढ पाए हैं.

भारतीय पूंजीवाद का दोष

हर्नांडो कहते हैं कि इन अवरोधों – दृश्यता की कमी, टाइटल डीड से जुड़ी व्यक्तिगत पहचान का अभाव और बाकी पूंजी भंडार के साथ इसका प्रतिस्थाप्य नहीं हो पाना – के कारण ही ऐसा लगता है कि पूंजीवाद तीसरी दुनिया के देशों के गरीबों के लिए काम नहीं करता है.

हर्नांडो आगे बताते हैं, ‘गरीबों के उद्यम बहुत कुछ उन निगमों की तरह होते हैं जो कि नए निवेश और पूंजी प्राप्त करने के लिए शेयर या बांड जारी नहीं कर सकते. आगे इस्तेमाल की सहूलियत के बिना, उनकी संपत्ति निष्क्रिय पूंजी है. इन राष्ट्रों के गरीब निवासियों जिनमें दुनिया के 83 प्रतिशत से अधिक लोग जिनके पास चीजें हैं, लेकिन उनके पास अपनी संपत्ति के आगे इस्तेमाल और उसे पूंजी में रूपांतरित करने का कोई माध्यम नहीं है. उनके पास घर तो हैं, पर उनके टाइटल डीड नहीं, फसलें हैं पर खेत के पट्टे नहीं, व्यवसाय तो हैं पर पंजीकृत नहीं. औपचारिक व्यवस्था से इस तरह की असंबद्धता यह बताती है कि पेपर क्लिप से लेकर परमाणु रिएक्टर तक हर पश्चिमी आविष्कार का इस्तेमाल करने में सक्षम लोग अपने घरेलू पूंजीवाद के लिए पर्याप्त पूंजी क्यों नहीं निर्मित कर पाए हैं.’

पूंजी के अदृश्य और बेड़ियों में जकड़े भंडार को मान्यता देने में अवरोध बनी इन कमियों को कैसे दूर किया जा सकता है, ताकि इस पूंजी को भी बाकी के समान उत्पादक बनाया जा सके?

इसके लिए हमारे रवैये में और प्रॉपर्टी संबंधी कायदे-कानूनों में भारी बदलाव की दरकार है.

हर्नांडो बताते हैं कि यह तंत्र सरल होने के बावजूद हमारी नज़रों से ओझल है. ‘लेकिन अदृश्य को दृश्यमान में बदलने के लिए आवश्यक रूपांतरकारी तंत्र केवल पश्चिमी देशों में ही उपलब्ध है. यह ऐसी असमानता है, जो स्पष्ट करती है कि क्यों पश्चिमी राष्ट्र पूंजी निर्मित कर सकते हैं, जबकि तीसरी दुनिया के देश और पूर्व साम्यवादी राष्ट्र ऐसा नहीं कर सकते. पर दुनिया के गरीब देशों में इस तंत्र की अनुपस्थिति- जहां कि दो तिहाई मानवता निवास करती है. किसी पश्चिमी एकाधिकारवादी साजिश का परिणाम नहीं है. दरअसल पश्चिमी देशों के लोग इस तंत्र को इतना स्वाभाविक मानते हैं कि उन्हें इसकी मौजूदगी का भान तक नहीं होता. हालांकि यह तंत्र बहुत ही बड़ा है, फिर भी किसी को यह नहीं दिखता. यहां तक कि अमेरिकी, यूरोपीयों और जापानियों को भी नहीं, जिनकी सारी संपदा इस तंत्र के इस्तेमाल से ही निर्मित हुई है.


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यह एक अव्यक्त बुनियादी कानूनी ढांचा है जो उनकी संपत्ति प्रणालियों में बिल्कुल गहरे बैठा हुआ है- स्वामित्व तो इस ढांचे का नाममात्र का वो हिस्सा है जो कि बाहर से दिखता है. इस तंत्र का नहीं दिखने वाला बाकी हिस्सा मानव निर्मित एक जटिल प्रक्रिया है जो परिसंपत्तियों और श्रम को पूंजी में बदल सकती है. यह प्रक्रिया योजना बनाकर निर्मित नहीं की गई थी और ना ही ये विवरणिकाओं में वर्णित है. इसकी उत्पत्ति अस्पष्ट है और इसका महत्व पश्चिमी पूंजीवादी राष्ट्रों के आर्थिक अवचेतन में दफन है.’

बस इतना भर स्पष्ट है कि पश्चिमी देशों में संपत्तियों को नियमित करने और उसे उत्पादक पूंजी में बदलने वाली व्यवस्थाओं की स्थापना बहुत पहले तब हुई थी, जब उन्हें आज हमारे समक्ष मौजूद खोलियों और झुग्गियों की समस्या का सामना करना पड़ा था. इसका एक उदाहरण पूरी 19वीं सदी में अमेरिका को परेशान करने वाली अवैध बस्तियों की समस्या को माना जा सकता है. इस तरह हमारे पास इस समस्या के समाधान के तरीके भी उपलब्ध हैं:

‘पश्चिमी राजनेताओं को भी उन्हीं नाटकीय चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, जिनका कि आज विकासशील और पूर्व कम्युनिस्ट देशों के नेता सामना कर रहे हैं. लेकिन उनके उत्तराधिकारी उन दिनों को भुला चुके हैं जब ‘अमेरिकन वेस्ट’ को खोलने वाले अग्रदूतों के पास पर्याप्त पूंजी नहीं थी, क्योंकि शायद ही कभी उनके पास अपनी जमीनों के पट्टे या अपनी संपत्तियों का कानूनसम्मत मालिकाना हक होता था, जब एडम स्मिथ काला बाज़ार में शॉपिंग करते थे, जब अंग्रेज बच्चे टेम्स के कीचड़ में पर्यटकों द्वारा उछाले पैसे चुनते थे, जब ज्यां-बैप्टिस्ट कोलबर्ट के अधिकारियों ने 16,000 छोटे उद्यमियों को इस आरोप में मार डाला था कि वे फ्रांस के औद्योगिक प्रावधानों का उल्लंघन कर सूती कपड़े का निर्माण और आयात कर रहे थे. यह अतीत कई राष्ट्रों का वर्तमान है.’

‘पश्चिमी देशों ने अपने यहां के गरीबों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं में इतने अच्छे से एकीकृत कर दिया है कि उन्हें शायद ये भी याद नहीं कि ये सब कैसे किया गया, उस काल में पूंजी का निर्माण कैसे शुरू हुआ, जिसके बारे में अमेरिकी इतिहासकार गॉर्डन वुड ने लिखा है, ‘समाज और संस्कृति में कोई महत्वपूर्ण घटना घटित हो रही थी, जिससे आम लोगों की आकांक्षाओं और ऊर्जा का इस कदर प्रष्फुटन हो रहा था कि जैसा अमेरिकी इतिहास में पहले कभी देखने को नहीं मिला था.’ ये ‘महत्वपूर्ण घटना’ थी अमेरिका और यूरोप का एक व्यापक औपचारिक संपत्ति कानून की स्थापना और उसमें रूपांतरकारी तंत्र की नई व्यवस्था को शामिल करने की कगार पर होना, जिसमें पूंजी निर्माण की सहूलियत दी गई थी. यही वो क्षण था जब पश्चिमी देशों ने एक अवरोध को पार किया, जिसके फलस्वरूप एक सफल पूंजीवाद का जन्म हुआ. जब यह एक निजी क्लब मात्र नहीं रह गया और इसने लोकप्रिय संस्कृति का रूप ले लिया, जब जॉर्ज वॉशिंगटन के खूंखार ‘दस्यु’ उन प्यारे अग्रदूतों में बदल गए, जो कि अमेरिकी संस्कृति में आज पूजे जाते हैं.’

बेकार पड़ी संपदा की मुक्ति

ये सब कैसे किया गया? बेहद सरलता से, मात्र इस बात को स्वीकार कर कि औपचारिक कानून परंपराओं पर ही आधारित होते हैं और इस तरह झुग्गियों और खोलियों में परंपराओं के तहत जो भी निर्मित हुआ है वह उतना ही मान्य है. जितना कि बचत को संपत्ति और फिर इस्तेमाल करने योग्य पूंजी में तब्दील करने वाली कोई अन्य आर्थिक प्रक्रिया. इन कानूनों के अपने खुद के तर्क, वैधता और परंपराओं का सेट होता है, जिन्हें स्वीकार करते हुए अपने औपचारिक सिस्टम में शामिल करने की दरकार है. ये झुग्गियां दशकों पुरानी हैं. कफ परेड की झुग्गी बस्ती 50 साल से अधिक पुरानी है. यहां अवैध कब्जा जमाने वाले शुरुआती लोग कब के जा चुके हैं. प्रॉपर्टी के वर्तमान मालिक तीसरी पीढ़ी के रहवासी हैं जिन्होंने कड़ी मेहनत से अर्जित अपनी वैध आय और बचत के सहारे इन संपत्तियों को खरीदा है. उनकी खोलियां उनके जीवन भर की बचत का एक बड़ा हिस्सा हैं. उन्हें औपचारिक संपत्ति प्रणाली से बाहर रखकर, हमें ना तो झुग्गियों से छुटकारा मिलेगा और ना ही हम, अधिक आय और संपदा निर्मित करने के वास्ते, बेकार पड़ी पूंजी के उत्पादक उपयोग का कोई दूसरा तरीका ढूंढ सकते हैं.


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किसी भी पैमाने पर देखें तो इस तरह संचित पर निष्क्रिय संपदा/पूंजी बहुत ही बड़ी मात्रा में उपलब्ध है. एक औसत अनुमान से नेवी नगर, मुंबई के पास की सिर्फ एक झुग्गी में कुल 3 से 5 अरब डॉलर की पूंजी बेकार पड़ी हुई है. धारावी की झुग्गी बस्ती में निष्क्रिय पड़ी कुल संपत्ति अनुमानित 200 अरब डॉलर से भी अधिक की है. महानगरों और अन्य बड़े नगरों की झुग्गियों में संचित परिसंपत्तियों का हिसाब लगाएं, तो बेकार पड़ी और अप्रयुक्त पूंजी की मात्रा 2 से 3 खरब डॉलर से ऊपर जा सकती है. झुग्गी बस्तियां हमारी संपदा पर एक बहुत बड़े बोझ की तरह हैं, जबकि शहरी प्रॉपर्टी के बारे में समझदारी भरी नीति बनाने मात्र से इसका समाधान हो सकता है.

यदि हम भारत की झोपड़पट्टियों और झुग्गियों में उपलब्ध निष्क्रिय और बेकार पड़ी संपत्ति को औपचारिक अर्थव्यवस्था से जोड़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रदर्शित कर सकें, तो हम स्वरोजगार करने वाले और अन्य उद्यमियों को 2 खरब डॉलर के बराबर अतिरिक्त पूंजी उपलब्ध करा सकेंगे, ताकि वे अधिक संपदा और पूंजी निर्मित कर पाएं. अपेक्षित राजनीतिक इच्छाशक्ति के मद्देनज़र ये कोई कठिन चुनौती नहीं है.

(इस लेख के दूसरे भाग में, हम अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों पर विचार करेंगे जहां कि इस निष्क्रिय पूंजी का इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि उत्पादकता को बढ़ावा मिल सके और हमारी जीडीपी विकास दर में तेज़ी आ सके.)

(सोनाली रानाडे @sonaliranade से ट्वीट करती हैं. शैलजा शर्मा का ट्विटर हैंडल @ArguingIndian है. यहां प्रस्तुत विचार इनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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