scorecardresearch
Wednesday, 17 April, 2024
होममत-विमतभारत की ‘पुरातन’ सेना यूक्रेन युद्ध से सबक लेकर उसके सामरिक मॉडल के बूते चीन को घेर सकती है

भारत की ‘पुरातन’ सेना यूक्रेन युद्ध से सबक लेकर उसके सामरिक मॉडल के बूते चीन को घेर सकती है

सीखने के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि यूक्रेन ने रूस की श्रेष्ठ सूचना युद्ध क्षमता को किस तरह परास्त कर दिया. भारत में तो झूठी कहानियां हास्यास्पद ही लगती हैं.

Text Size:

युद्ध के तीन हफ्ते हो गए हैं और अब यह साफ हो चुका है कि यूक्रेन ने रूस के हमले का करारा जवाब देकर उसके लिए गतिरोध पैदा कर दिया है. रूस अपनी मौजूदा सेना शक्ति के साथ समय से पहले अपने चरम बिंदु पर पहुंच गया है. संपूर्ण विजय की संभावना बहुत कम है. लेकिन सेना को और संगठित करके और उसमें बड़ा इजाफा करके वह शर्म बचाने वाली जीत हासिल कर सकता है.

यूक्रेन युद्ध से कई सबक सीखे जा सकते हैं. भारत अपनी उत्तरी सीमा पर सैन्य स्थिति के मामले में चीन से उन्नीस ही है जबकि पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान के मुक़ाबले बीस है. भारत के लिए एक चुनौती तो यह होगी कि यूक्रेन मॉडल को सफलतापूर्वक अपना कर चीन के लिए गतिरोध पैदा कर दे और अपनी जमीन भी न गंवाए; और दूसरी चुनौती यह होगी कि पाकिस्तान उसके खिलाफ अगर यूक्रेन मॉडल को अपनाए तो उसे विफल कर दे. इसमें परमाणु ताकत की धौंस का भी ख्याल रखना पड़ेगा.

क्षमताओं की नैतिक समीक्षा

जाहिर है कि रूस ने अपनी सैन्य क्षमता को यूक्रेन की इस क्षमता के मुक़ाबले जरूरत से ज्यादा मजबूत मान लिया. अधिनायकवादी लोकतंत्र में, भ्रमित सेना बिना किसी निगरानी के अपने ही दायरे में सीमित रहती है. सीरिया में हस्तक्षेप को सफलता का मॉडल मान लेने की गलती की गई. रूस के सैन्य तंत्र ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को ईमानदार और सटीक सलाह नहीं दी.

संसदीय लोकतंत्र होने के कारण हमारे यहां निगरानी की एक पारंपरिक व्यवस्था बनी हुई तो है मगर निष्क्रिय रही है. हम अपनी और अपने दुश्मनों की सैन्य क्षमताओं के आकलन और सुधारों को लागू करने में अहंकारी रवैया अपनाते रहे हैं. राजनीतिक रूप से देखें तो राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में हमारा रवैया भावुकतापूर्ण नारों से तय होता है. हमारा सैन्य तंत्र बेबाक सलाह देने की जगह देश को भ्रमित करने में नेताओं के सुर में सुर मिलाने लगा है. नाकामियों की लीपापोती दुष्प्रचार से कर दी जाती है. हमारे पास औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति भी नहीं है.

परमाणु हथियारों के कारण इस उपमहादेश में कोई बड़ा युद्ध नहीं हो सकता है और यह हमें निर्णायक हार और बड़े पैमाने पर अपनी जमीन गंवाने से सुरक्षा प्रदान करता है. परमाणु सीमारेखा से नीचे किसी तरह की लड़ाई में पाकिस्तान को हराने या चीन के हाथों सामरिक शर्म से बचने के लिए हमारे पास तकनीकी सैन्य क्षमता नहीं है. भारत को अपनी औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाने और अपनी सेना में परिवर्तन लाने के लिए रणनीति की नैतिक समीक्षा करनी चाहिए. जब तक हम यह नहीं करेंगे, तब तक कूटनीति का सहारा लेना ही समझदारी होगी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें: रूस एक हफ्ते में अगर यूक्रेन में अपना लक्ष्य हासिल नहीं करता तो पहला राउंड यूक्रेन जीत जाएगा


‘आत्मनिर्भरता’ के लिए चेतावनी

रक्षा के मामले में आत्मनिर्भरता पर सिद्धांततः कोई आपत्ति नहीं हो सकती. रूस-यूक्रेन दोनों ही हमारे हथियारों और उनके कल-पुर्जों का 60-70 फीसदी हिस्से के मुख्य सप्लायर हैं. उनके बीच युद्ध और रूस के खिलाफ लगाए गए प्रतिबंधों के कारण हमारी सैन्य क्षमता को गंभीर झटका लगा है. अब यह हमारी कूटनीति के लिए इम्तहान ही होगा कि हम अमेरिका से छूट हासिल कर पाते हैं या नहीं. लेकिन अगर हम अत्याधुनिक हथियारों और ‘सपोर्ट सिस्टम’ का उत्पादन नहीं कर पाते तो हमारी आत्मनिर्भरता किस काम की है?

यूक्रेन का रक्षा उद्योग भारत के रक्षा उद्योग से सभी पैमानों पर कहीं बेहतर है. इसके बावजूद, रूस की मेकनाइज्ड फोर्सेस और वायुसेना को भोथरा करने की उसकी कहानी आयातित और दान में मिलीं ‘एनलॉ’ (नेक्स्ट जेनरेशन लाइट एंटी-टैंक वेपन), ‘जेवलीन’, स्टिंगर जैसी सेकंड/थर्ड जेनरेशन एंटी-टैंक और एअर डिफेंस गाइडेड मिसाइलों से, जिन्हें मनुष्य ढो सकता है, और ‘बेरक्टर टीबी-2’ हथियारबंद ड्रोनों से लिखी गई है. अब ‘स्विचब्लेड्स’ ड्रोन भी इस्तेमाल किए जाने वाले हैं.

‘आत्मनिर्भरता’ को मजबूत होने में अभी एक दशक लगेगा. इस बीच, चुनिन्दा अत्याधुनिक सैन्य टेक्नोलॉजी के आयात से बचा नहीं जा सकता.

‘बंदूक के पीछे का आदमी’

यूक्रेन में रूसी सेना के लिए खराब नेतृत्व और सैनिकों की कमजोरी अभिशाप बन गई. सर्वोत्तम सैन्य टेक्नोलॉजी उपलब्ध होने के बावजूद, बड़ी संख्या में जबरन भर्ती वाले सैनिकों में अनुशासन, जोश, और लड़ाई में सफल बनाने वाले प्रशिक्षण से का अभाव था. यूक्रेन ने ऊंचे जोश और बेहतर प्रशिक्षण के कारण उसी सिस्टम का बेहतर उपयोग किया.

रूस की उच्च सैन्य योजना ने सैनिकों के जमाव, सैन्य ताकत की बचत, और साजोसामान और व्यवस्था (‘लॉजिस्टिक्स’) के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन किया. वह अपने ‘रस्पुटित्सा’ या ‘जनरल मड’ का शिकार हो गया. चार धुरियों की बाहरी सीमाओं पर कार्रवाई में वह निर्णायक जीत के लिए एक भी धुरी पर पर्याप्त सेना का जमाव नहीं कर पाया.

भारतीय सेना को पेंशन के मद में बचत करने के चक्कर में ‘तीन साल की ड्यूटी’ वाले विचार को लागू करने से बचना चाहिए. अफसरों के लिए शॉर्ट सर्विस कमीशन और पांच साल (जिसे दस साल भी किया जा सकता है) के सैनिकों के लिए पेंशन की जगह ‘कंट्रीब्यूटरी पेंशन’ की स्कीम, ग्रेच्यूटी, और पूर्व-सैनिक का दर्जा देकर शॉर्ट सर्विस सेवा ज्यादा व्यावहारिक समाधान होगा. इस मॉडल के तहत भर्ती कुल संख्या के 50 प्रतिशत के अंदर होनी चाहिए.

हमें अपने अफसरों और सैनिकों के पेशेवर सैन्य शिक्षण और प्रशिक्षण पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है. वे शिक्षण-प्रशिक्षण पुराने जमाने के युद्धों के लिहाज से दिए जाते थे. अफसरों के बौद्धिक सैन्य शिक्षण में आमूल परिवर्तन की जरूरत है. ‘तीव्र कार्रवाई’ (रैपिड रेस्पोंस) और ‘धीमी लड़ाई’ (कोल्ड स्टार्ट) जैसे विचारों की सफलता सैनिकों की उच्च क्षमता पर निर्भर है.

साजोसामान और व्यवस्था

नेपोलियन ने कहा था, ‘कोई भी सेना अपने पेट के बल मार्च करती है.’ वाहन ईंधन से चलते हैं; वेपान सिस्टम गोला-बारूद, मिसाइलों के बिना बेकार हैं. युद्ध के 72 घंटे बाद रूसी सेना को रसद, ईंधन और गोला-बारूद की भारी कमी पड़ गई. सैन्य व्यवस्था युद्ध के साथ कदम मिलाकर नहीं चल सकी. अपने डिवीजनों को कम्बाइन्ड आर्म्स ब्रिगेडों और बटालियन सामरिक ग्रुपों में पुनर्गठित करने में कंबाइंड आर्म्स आर्मी के केंद्रीय संसाधन काफी कम पड़ गए और उनमें सुरक्षा की भी कमी रही. रूसी सेना अपने कमजोर पड़ गए पिछले हिस्से को अगल-बगल से ऑपरेट कर रही यूक्रेनी सेना, स्पेशल फोर्सेस और समर्थकों की कार्रवाइयों से बचा पाने विफल रही है.

हमारी सेना जब इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स में पुनर्गठित हो रही है तब हमें वही गलती नहीं दोहरानी चाहिए. सेना के पिछले हिस्से की सुरक्षा उतनी ही महत्व रखती है जितना युद्ध. पहाड़ों और पहाड़ी इलाकों में हमारे साजोसामान की व्यवस्था और संचार लाइनों को क्रूज मिसाइलों, वायुसेना तथा स्पेशल फोर्सेस से काफी खतरा है. पहाड़ों में साजोसामान की व्यवस्था को भूमिगत और सुरंग के अंदर होना चाहिए. सीमाओं तक कई सड़कों और सुरंगों की जरूरत है. पुलों को जमीनी और हवाई हमलों से बचाने और वैकल्पिक मार्गों का निर्माण भी बेहद महत्व रखता है. चीनी सेना पीएलए की व्यवस्था के लिए भी ऐसी ही कार्रवाई का खतरा है और भारत को इसका पूरा फायदा उठाना चाहिए. स्पेशल फोर्सेस, स्थानीय आबादी से तैयार स्काउट बटालियनों, और स्पेशल फ़्रंटियर फोर्स पीएलए का वैसा ही हाल कर सकती है जैसा यूकेन ने रूसी सेना का किया.


यह भी पढ़ें: यूक्रेन में शहरों में होगा भीषण युद्ध, रूस का प्लान बी और सेना का सबसे बुरा नाईटमेयर


उच्चस्तरीय सैन्य टेक्नोलॉजी

यूक्रेन युद्ध के अनगिनत वीडियो और तसवीरों में करीबी युद्ध के चित्र नहीं दिखते. हमला करने वाली सेना को गतिरोध वाली स्थिति में उच्च टेक्नोलॉजी वाली वेपन सिस्टम की मदद से तबाह किया गया है. स्थिर रक्षा पंक्ति के लिए प्रिसीजन गाइडेड म्यूनीशन्स (पीजीएम) से तबाह होने का खतरा रहता है. अत्याधुनिक वेपन सिस्टम से लैस छोटी मोबाइल टीमों ने युद्ध के लिए तैयार बड़ी सेना को नष्ट किया.

करीबी युद्ध अब नहीं होते. भविष्य उन तीव्रगामी यूनिटों का है जो गतिज और सूचना युद्ध की अत्याधुनिक टेक्नोलोजी का कल्पनाशील इस्तेमाल कर सकती हैं. पीएलए में यह क्षमता है, और पाकिस्तान इस सबक को सीखेगा ही. हमारी सामरिक चाल करीबी युद्ध पर केन्द्रित होती है जिसमें टकराव और सेना की पोजीशन पर ज़ोर होता है. हमारी युद्ध शैली में आमूल बदलाव की जरूरत है.

रिहाइशी इलाकों में युद्ध

अब तक, हमारा अनुभव 50 साल पहले के छोटे-छोटे गांवों में युद्ध लड़ने तक सीमित रहा है. हमारे यहा मैं बड़े शहर में युद्ध की कल्पना नहीं करता. लेकिन यूक्रेन युद्ध से जो संकेत मिलते हैं उनके अनुसार अगले युद्ध में, जो गांव कस्बों में बदल गए हैं उन्हें ‘कवच’ के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और उनके आसपास मोबाइल यूनिटें कार्रवाई करेंगी.
हमें सीमा के पास स्थित गांवों और कस्बों को सुरक्षा कवच के तौर पर इस्तेमाल करने की संभावना का लाभ उठाना चाहिए. स्थानीय आबादी के सहयोग से शांति काल में उन इलाकों में प्रतिरक्षा के कल्पनाशील उपाय तैयार किए जाने चाहिए. ऐसे सुरक्षा कवचों से निबटने की रणनीति को भी धार देने की जरूरत है. सूचना युद्ध

साइबर, इलेक्ट्रोनिक, और मनोवैज्ञानिक युद्ध कला समेत सूचना युद्ध ने यूक्रेन में बड़ी भूमिका निभाई है. उस देश ने मीडिया को खुली इजाजत देकर और इसका अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करके धारणाओं की जंग जीती है.

मनोवैज्ञानिक युद्ध का इसका अभियान भी शानदार रहा है. इसकी तुलना हम पुलवामा में आतंकवादी हमले के बाद हवाई हमलों, और पूर्वी लद्दाख में सीमा पर टकरावों के मामलों में अपने अनुभवों से करें. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम धारणाओं की जंग हार गए थे, और देश के अंदर भी तीक्ष्ण नज़रों ने झूठी कहानियों को ताड़ लिया था और उन्हें वे हास्यास्पद ही लगी थीं.

सीखने के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि यूक्रेन ने रूस की श्रेष्ठ सूचना युद्ध क्षमता को किस तरह परास्त कर दिया. यूक्रेन का राजनीतिक और सैन्य कमांड तथा कंट्रोल, और सार्वजनिक इलेक्ट्रोनिक संचार व्यवस्था भी कुल मिलाकर साबुत बनी रही. विस्तृत विवरण तो उपलब्ध नहीं है लेकिन संभव है कि पिछले आठ वर्षों में उसने ऑप्टिकल फाइबर का विशाल केबल नेटवर्क तैयार कर लिया था और अपनी संचार और वेपन सिस्टम को अमेरिका की मदद से साइबर और इलेक्ट्रोनिक हमलों से सुरक्षित बना लिया था. हमें भी यही करना चाहिए. सूचना युद्ध की हमारी यूनिटों में तालमेल नहीं है और पर्याप्त क्षमता भी नहीं है. इसे हम जितनी जल्दी ठीक कर लें, उतना अच्छा होगा.

अंतिम युद्ध की तैयारी करने वाली सेनाओं को प्रायः सदमे का सामना करना पड़ता है. अफसोस की बात यह है कि हम ठीक यही करते रहे हैं. नरेंद्र मोदी सरकार और हमारी सेना को यूक्रेन युद्ध का गहन अध्ययन करना चाहिए और अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था में नयी भरनी चाहिए और नया परिवर्तन लाना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: हथियारों के विकास और खरीद में चीनी सेना को बढ़त लेकिन भारत पिछले 8 सालों से अटका है


 

share & View comments