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Thursday, 25 April, 2024
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बिना लोक कल्याणकारी बने कैसे जिंदा रह पाएगा भारतीय पूंजीवाद

किसी भी पूंजीवादी व्यवस्था या तंत्र को संकट मुक्त रखने के लिए लोक कल्याणकारी कार्यों की जरूरत होती है. मौजूदा बजट के संदर्भ में ये जानना दिलचस्प होगा कि क्या भारतीय पूंजीवाद अपने लिए कोई और रास्ता अख्तियार करेगा?

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पश्चिम यूरोप और अमेरिका में पूंजीवाद के टिकाऊ होने में इन देशों की सरकारों की लोक कल्याणकारी भूमिका का भी योगदान रहा है. पूंजीवादी व्यवस्था में अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ने के साथ सरकारों को लोक कल्याणकारी चेहरे के साथ सामने आना पड़ता है, ताकि वर्गीय अंतर्विरोध ज्यादा तीखे न हो जाएं और व्यवस्था को खतरा न हो जाए. ये एक किस्म का मध्यमार्ग भी है, जिसमें सत्ता अपना मूल चरित्र बनाए रखती है और अपना मानवीय चेहरा भी दिखाती है.

लोक कल्याणमनमोहन से लेकर मोदी तक

भारत में 1991 के आर्थिक उदारीकरण के साथ नेहरूवादी समाजवाद की पकड़ ढीली हुई. गरीबों और अमीरों के बीच फासला बढ़ने से अर्थव्यस्था के अंतर्विरोध सामने आने लगे. ऐसे में सरकारों को अपना लोक कल्याणकारी चेहरा दिखाना पड़ रहा है. लेकिन लोक कल्याण का भारतीय मॉडल बेहद कॉस्मेटिक यानी दिखावटी है. मनमोहन सिंह सरकार के समय की मनरेगा और मिड डे मील और नरेंद्र मोदी सरकार की जनधन योजना, उज्ज्वला योजना और किसानों के खाते में हर साल 6,000 रुपए में डालने की योजना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने एक लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना की थी और बाद में संविधान संशोधन करके और साफ किया गया व प्रस्तावना में समाजवादी शब्द भी डाला गया. देश के तमाम प्रतीकों में गौतम बुद्ध डाले गए. अशोक चक्र की 24 तीलियोंअशोक के शेर वाले लाट सहित तमाम ऐसे प्रतीक हैं, जिन्हें राष्ट्रध्वज से लेकर भारत के राजकीय चिह्न तक में डाला गया था. बुद्ध और अशोक अपनी मध्यमार्गी विचारधारा के कारण भी ख्यात हैं. भारतीय संविधान की मूल भावना लोक कल्याणकारी रही है.

लोक कल्याणकारी राज्य की यूरोपीय अवधारणा

आधुनिक विश्व में लोक कल्याणकारी राज्य की स्पष्ट अवधारणा ब्रिटेन के अर्थशास्त्री और सिविल सर्वेंट विलियम हेनरी बेवरिज ने पेश की थी. 1942 में पेश की गई उनकी रिपोर्ट को बेवरिज रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है. ये रिपोर्ट द्वितीय विश्व युद्ध के समय पैदा हुई अस्थिरता के दौर में सरकार को दी गई सलाह थी कि उन्हें कौन से कदम उठाने चाहिए. इसमें सामाजिक बीमा और संबंधित सेवाओंस्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस), बेरोजगारी दूर करने और सेवानिवृत्ति के लाभों के बारे में सिफारिशें की गई थी.

इस रिपोर्ट को क्लीमेंट एटली के नेतृत्व वाली लेबर पार्टी की सरकार ने स्वीकार कर लिया और विश्वयुद्ध के तत्काल बाद बेवरिज की सिफारिशों के मुताबिक काम किया. उस समय की गठबंधन सरकारों ने लोक कल्याणकारी कदमों पर ज्यादा ध्यान दिया और लोगों के स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए बच्चों के लिए मुफ्त दूध व कॉड लिवर ऑयल देनेगर्भवती महिलाओं को मुफ्त ऑरेंज जूस और विटामिन देने जैसे कदम उठाए गए. साथ ही बेरोजगारों को सुविधाएं देने के लिए पात्रता परीक्षण होता थाजिसे खत्म कर दिया गया.

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साम्यवाद और पूंजीवाद की वैश्विक लड़ाई में पूंजीवादी देशों अपने नागरिकों के लिए ने बड़े पैमाने पर लोक कल्याणकारी काम किए हैं. करीब हर विकसित पूंजीवादी देश में मुफ्त स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाओंवृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ते आदि का प्रावधान किया गया है. जो देश बहुत तेजी से अमीर हुए हैं, उन्होंने अपनी राष्ट्रीय आमदनी का बड़ा हिस्सा जन सेवाओं पर खर्च करना शुरू कर दिया है. स्कैंडेनेवियाई देश इसके बेहतरीन उदाहरण हैं, जो आज मानव विकास की दृष्टि से दुनिया में सबसे आगे हैं. सामाजिक संरक्षण जैसे पेंशनबेरोजगारी भत्ता और सहायता पर अमीर देशों का खर्च जहां 1960 में जीडीपी का 5 प्रतिशत थाअब यह बढ़कर 20 प्रतिशत तक पहुंच गया है. स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करीब दोगुना हो गया है.

 भारत में आर्थिक उदारीकरण और बढ़ती असमानता

आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद भारत में गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ी है. (हालांकि नेहरूवादी समाजवाद भी भारत में समानता लाने में बुरी तरह असफल रहा था.)  ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में भारत में जितनी संपत्ति का सृजन हुआउसमें से 73 प्रतिशत संपत्ति पर एक प्रतिशत आबादी ने कब्जा कर लिया. वहीं, आधे भारतीयों, यानी 67 करोड़ लोगों के हिस्से सिर्फ एक प्रतिशत संपत्ति आई है. रिपोर्ट के मुताबिक इस साल भारत के अभिजात्य वर्ग की संपत्ति 20,913 अरब रुपये बढ़ी हैजो केंद्र सरकार के 2017-18 के कुल बजट के बराबर है.

गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ने से समाज में असंतोष और अराजकता पैदा होना स्वाभाविक है. किसानोंमजदूरों की दुर्दशा की वजह से हाल के वर्षों में भारत में बड़े आंदोलन हुए. किसानों ने बड़ी-बड़ी रैलियां निकालीं और दिल्ली से लेकर मुंबई तक में उन्होंने प्रदर्शन किया. इस स्थिति को देखते हुए सरकार को किसानों के लिए निश्चित आय योजना पेश करनी पड़ी और चुनाव के पहले किसानों के खाते में गए 2,000 रुपये या ज्यादा पहुंचा दिए गए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीएम-किसान नाम से पेश की गई इस योजना का विस्तार सभी किसानों तक करने का फैसला किया है. लेकिन ये रकम काफी कम है और स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में पश्चिमी देशों में किए गए कार्यों की तुलना में ये बेहद छोटा कदम है.

पूंजीवाद को संकट और अंतर्विरोधों से बचाने के लिए भारत में तमाम और टोटके हो रहे हैं. हाल में पेश 2019 के बजट में सरकार ने सबसे ज्यादा जोर उस आंकड़े पर दियाजिसमें अमीरों पर कर लगाने की घोषणा की गई है. इसकी असलियत एक लेख के माध्यम से शेखर गुप्ता ने दिखाई है. सीबीडीटी के आंकड़े बताते हैं कि पिछले वित्त वर्ष में केवल 6,351 व्यक्तियों ने करोड़ से ज्यादा की आय का रिटर्न भराजिनकी औसत आय 13 करोड़ रुपये थी. इनसे टैक्स के रूप में सरकार को मात्र 5,000 करोड़ रुपये मिलेंगे. गरीबों को यह सोचकर मजा आएगा कि अमीरों को निचोड़ा जा रहा है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है. डायरेक्ट टैक्स का ज्यादातर बोझ मध्यवर्ग पर है. मतलब साफ है कि पैसे तो मध्य वर्ग की जेब से खींचे जा रहे हैं, लेकिन यह दिखाया जा रहा है कि अमीरों से ज्यादा पैसे लिए गए.

वहीं, सरकार ने बाजार के लिए अपना उदार चेहरा दिखाया है. सरकार के बजट से उन एक प्रतिशत अमीरों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है, जिनके बारे में ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि उनके पास देश की संपत्ति सृजन का अधिकतम पैसा जा रहा है. जिन कंपनियों का टर्नओवर 400 करोड़ रुपये तक है, उन पर कॉर्पोरेशन टैक्स 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया है. रेलवे को निजी क्षेत्र के लिए और ज्यादा खोल दिया गया है.


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भारत में पूंजीवाद को बचाने की कवायद में उठ रहे कदम अशांति को रोकने के बजाय उसे बढ़ावा देने वाले और गरीबों व अमीरों के बीच खाईं पैदा करने वाले ज्यादा नजर आते हैं. इंडिकस फाउंडेशन के प्रमुख लवीश भंडारी के मुताबिक कृषि क्षेत्र में व्यापक ढांचागत बदलाव हो रहे हैं. उत्पादकता बढ़ रही है और नौकरियां जा रही हैं. भंडारी के अनुमान के मुताबिक पिछले डेढ़ दशक में 4 से 5 करोड़ नौकरियां जा चुकी हैं और भविष्य में चुनौतियां और बढ़ने वाली हैं.

भारत जैसे उभरते पूंजीवादी देश में वृद्धावस्था व बेरोजगारी से सुरक्षाबेहतर स्वास्थ्य एवं शिक्षा देने की दिशा में कदम बढ़ाने के बजाय पूंजीवाद को बचाने के लिए पीएम-किसान जैसे टोटके किए जा रहे हैंजिससे लोगों के पास उद्योगपतियों द्वारा तैयार माल को खरीदने के लिए कुछ नकदी आ सके. बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरीबुढ़ापे की सुरक्षा जैसे संकटों को अस्थायी रूप से आगे के लिए टाला जा रहा है. मानव विकास पर धन खर्च करने में कंजूसी मौजूदा शासन व्यवस्था के चरित्र की एक प्रमुख खासियत है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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