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Wednesday, 17 April, 2024
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बीजेपी के वर्चस्व वाली राजनीति के लंबे दौर में प्रवेश कर चुका है भारत

आने वाले कई वर्षों तक भारतीय राजनीति बीजेपी के आसपास और उसके पक्ष और विपक्ष में घूमती रहेगी. हो सकता है कि इस बीच में बीजेपी कोई चुनाव हार भी जाए लेकिन विमर्श के केंद्र में बीजेपी ही रहेगी.

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भारतीय लोकतंत्र के भीड़ भरे बाज़ार में बेशुमार पार्टियां हैं. लेकिन बीजेपी अकेली राष्ट्रीय पार्टी है जिसे विचारधारा और पॉलिटिक्स के आधार पर अलग से पहचाना जा सकता है. उसके पास कुछ ऐसा है जो बाकी पार्टियों के पास नहीं है. मार्केटिंग की भाषा में बीजेपी के पास यूएसपी यानि यूनिक सेलिंग प्वायंट या प्वायंट्स हैं. इस यूएसपी के सहारे बीजेपी ने भारतीय राजनीति में वो जगह बना ली है जिसकी वजह से ये कहा जा सकता है कि हम बीजेपी सिस्टम यानि बीजेपी के वर्चस्व वाली राजनीति के दौर में प्रवेश कर चुके हैं या करने वाले हैं. ये दौर लंबा चल सकता है.

क्या है एक पार्टी के वर्चस्व वाला सिस्टम

इस अर्थ में ये 1977 में कांग्रेस सिस्टम की विदाई के बाद, फिर से किसी एक पार्टी के वर्चस्व वाले सिस्टम की वापसी है. कांग्रेस सिस्टम शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले राजनीति विज्ञानी प्रोफेसर रजनी कोठारी ने किया था. उन्होंने भारत के तत्कालीन पार्टी सिस्टम की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘ये एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें एक सर्वसम्मति की पार्टी होती है और कई सारी दबाव डालने वाली पार्टियां होती हैं. सर्वसम्मति की पार्टी के अंदर कई खेमे होते हैं जो एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं. इस सर्वसम्मति वाली पार्टी के बाहर कई विपक्षी पार्टियां, सत्ताधारी दल से छिटके समूह और महत्वपूर्ण लोग होते हैं. ये सत्ताधारी दल के विकल्प नहीं होते लेकिन इन्हें लेकर सत्ताधारी दल को हमेशा खतरा बना रहता है कि अगर उसने जनमत का समर्थन खो दिया और सत्ताधारी दल के अंदर गुटों के बीच संतुलन बिगड़ गया तो विपक्षी दल सत्ता पर काबिज हो जाएंगे.’

इस परिभाषा के तहत बेशक बीजेपी ने अभी वो रुतबा हासिल नहीं किया है जो कभी कांग्रेस को हासिल था. लेकिन वह उस दिशा में बढ़ रही है. बीजेपी की इस मामले में सबसे बड़ी खामी ये है कि बीजेपी के अंदर उस तरह का पार्टी लोकतंत्र और असंतुष्टों को समेटकर चलने की क्षमता अब तक नहीं बन पाई है, जो एक पार्टी के वर्चस्व वाले सिस्टम को टिकाए रखने के लिए जरूरी है. इस मामले में आरएसएस की अब तक काफी भूमिका रही है और बीजेपी के अंदर के प्रतिपक्ष की भूमिका उसने निभाई है. लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के उभार के बाद आरएसएस की वह हैसियत खत्म हो गई है.

बहरहाल इस लेख का उद्देश्य बीजेपी की अंदरूनी राजनीति की समीक्षा करना नहीं है, बल्कि ये समझने की कोशिश करना है कि भारतीय राजनीति में बीजेपी ने अपनी एक अलग पहचान कैसे बनाई है और बाकी पार्टियों ने अपने विशिष्ट पहचान को कैसे खो दिया है.


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कांग्रेस का रुतबा और उसका अंत

भारत में कांग्रेस सिस्टम 20वीं सदी के दूसरे दशक के आसपास यानि 1919 के असहयोग आंदोलन के बाद शुरू हुआ, जब कांग्रेस की कमान गांधी ने संभाल ली. ये सिलसिला 1977 तक यानि लगभग 100 साल चला, जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पहली बार केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई. हालांकि उसके बाद भी कई बार केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी लेकिन कांग्रेस ने सर्वसम्मत सत्ता पक्ष वाली जगह खो दी.

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दरअसल इस बीच में कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति में बदलाव तो आया ही और असंतुष्ट गुटों को समेटकर रखने की कांग्रेस की क्षमता कम होती चली गई लेकिन साथ ही कांग्रेस पर जनता का ये विश्वास कम होता चला गया कि उसके नेतृत्व में भारत एक विकसित और समृद्ध देश बनेगा. 1947 के अगस्त महीने की 14-15 अगस्त के बीच वाली रात को नेहरू ने कांग्रेस की ओर से देश से जो वादे किए थे, वे हकीकत की जमीन से टकराकर टूटते चले गए. बेशक नेहरू ने देश को जोड़े रखने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया, वरना उस दौर में आजाद हुए कई देश बिखर गए और कई जगह सैनिक शासन लग गया था.

लेकिन भारत नेहरू के नेतृत्व में या उसके बाद इंदिरा के शासन में विकसित देश नहीं बन पाया. आर्थिक विकास दर 2 प्रतिशत के आसपास टिकी रही और स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सेवाओं को जन-जन तक पहुंचाने का काम अधूरा रह गया. आज भी भारत मानव विकास के मानदंड पर दुनिया का 129वें नंबर का देश है.

इस बीच बेशुमार दंगे भी हुए और आखिरकार राजीव गांधी के कार्यकाल में 1986 में सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर का ताला हिंदू श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया. इससे अल्पसंख्यकों का ये भरोसा टूटा कि कांग्रेस की सरकार हर किसी की सरकार है. इस घटना की क्रिया और प्रतिक्रिया में ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जिसकी छाया आज की राजनीति पर भी नज़र आती है. बीजेपी के केंद्रीय सत्ता में पहुंचने में कांग्रेस की राजनीति का बड़ा योगदान है. खासकर जनता के उन टूटे हुए सपनों का जिसे पूरा करने का जिम्मा कांग्रेस का था.

गैर कांग्रेस-गैर बीजेपी दलों ने निराश किया

1977 से लेकर 2014 तक दरअसल किसी एक पार्टी के वर्चस्व वाली व्यवस्था कायम नहीं हो पाई. कांग्रेस कमज़ोर हो रही थी और बीजेपी अपनी ताकत लगातार बढ़ा रही थी. इस बीच में मुख्य रूप से समाजवादियों, कम्युनिस्टों और बीएसपी को अलग-अलग राज्यों में और खासकर समाजवादी नेताओं को केंद्र में भी यदा-कदा मंत्रालय संभालने का मौका मिला. लेकिन जनता की आकांक्षाओं पर ये पार्टियां भी खरी नहीं उतर पाईं.

बिहार में 15 साल तक निरंतर शासन करने का मौका मिलने के बावजूद लालू यादव और राबड़ी देवी राज में बिहार की बदहाली की पुरानी तस्वीर ज्यों की त्यों कायम रही, हालांकि उसके बाद के 15 साल में नीतीश कुमार भी बिहार को कहीं पहुंचा नहीं पाए. सीपीएम को पश्चिम बंगाल में लगातार 33 साल राज करने का अवसर मिला लेकिन विकास से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य में पश्चिम बंगाल देश का पिछड़ा प्रांत बना रहा.

उत्तर प्रदेश में बार-बार राज करने का मौका सपा और बसपा को मिला लेकिन ये दल भी अपने वादे पर खरे नहीं उतर पाए. साथ ही ये दल अपनी राजनीतिक पहचान भी गंवाते चले गए और नाम और नेता के अलावा बाकी मामलों में वे किसी भी और दल की तरह नज़र आने लगे. इन दलों ने अपने पुराने नारे तक छोड़ दिए.


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बीजेपी ने बाकी दलों के कार्यक्रमों को अपनाया

इस तरह भारत की राजनीति में एक शून्य बनने लगा जिसे बीजेपी ने आगे चलकर भर दिया. बीजेपी जीतती और हारती रही है लेकिन उसने अपने मुद्दे और पहचान को कभी नहीं छोड़ा. ये बात बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत बन गई. इस वजह से उसका कोर वोट उसके साथ लगातार जुड़ा रहा क्योंकि बीजेपी ने उन्हें कभी निराश नहीं किया. विचारधारा और सरकार के बीच चुनने का मौका आने पर उसने सरकार को छोड़ने और विचार को पकड़ने का फैसला लिया.

बीजेपी विकास, प्रशासनिक कार्य और शिक्षा, स्वास्थ्य और नागरिक सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में बाकी दलों की तरह ही है. जैसे बाकी दल देश और प्रदेशों का ‘विकास’ कर रहे हैं, वैसे ही बीजेपी भी ‘विकास’ कर रही है. बाकी दलों की तरह बीजेपी भी भ्रष्टाचार से लड़ती रहती है! बीजेपी उतनी ही भ्रष्ट और नाकारा है, जितनी बाकी पार्टियां हैं. मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मानव विकास के मामले में बीजेपी कांग्रेस से भी लचर साबित हुई है.

बिहार में बीजेपी लंबे समय से सत्ता में है लेकिन उसने कोई अलग पहचान नहीं छोड़ी है. इन कारणों से बाकी पार्टियों के वोटर पार्टी बदल लेते हैं लेकिन बीजेपी का वोटर बीजेपी के साथ टिका रहता है. उसे इस बात से शिकायत नहीं है कि दुनिया भर में कच्चा तेल सस्ता होने के बाद पेट्रोल और डीजल सस्ता होने के दौर में भी भारत में डीजल और पेट्रोल क्यों महंगा हो गया. उसे शिकायत नहीं है कि स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल क्यों हैं और शिक्षा के मामले में भारत तरक्की क्यों नहीं कर रहा है. चीन के साथ सीमा विवाद को लेकर भी उसे बीजेपी से शिकायत नहीं है.

बीजेपी ने गैर-बीजेपी सरकारों की कई योजनाओं को जस का तस उठा लिया है. नरेगा से उसे शिकायत है लेकिन नरेगा को उसने कभी बंद नहीं किया बल्कि नरेगा का पैसा बढ़ाया गया. जनता को सीधे पैसा पहुंचाना कांग्रेस की योजना थी, लेकिन उसे आगे बढ़कर बीजेपी लागू कर रही है. पीएस किसान और गरीब कल्याण रोजगार योजना के जरिए बीजेपी सीधे गरीबों के खाते में छोटी सी रकम डाल रही है. गरीबों को सस्ते दर पर एलपीजी के सिलेंडर भी दिए जा रहे हैं. इस तरह से न किसी की गरीबी दूर हो रही है, न देश का विकास हो रहा है लेकिन इससे जनाक्रोश से सरकार बच जाती है और वोट भी मिल जाते हैं. कांग्रेस के इस खेल को बीजेपी ने आगे बढ़कर खेला है.

प्रतीकों की राजनीति करके विभिन्न सामाजिक समूहों को लुभाने के कांग्रेस खेल को भी बीजेपी ने पूरी तरह अपना लिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी ओबीसी पहचान का जिक्र बार-बार करते रहते हैं, वहीं बीजेपी ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बना कर दलित समुदाय को लुभाने की कोशिश की है. बीएसपी के पार्कों के जवाब में बीजेपी ने बाबा साहेब के जीवन से जुड़े पांच स्थानों को विकसित करके पंचतीर्थ बना दिया है. मोटे तौर पर बीजेपी वो सब काम कर सकती है या कर रही है, जो बाकी पार्टियां कर सकती है.

बीजेपी बाकी दलों से अलग कैसे?

यहां तक बीजेपी कांग्रेस या बाकी पार्टियों की तरह ही नज़र आती है. लेकिन इसके बाद उन तीन मुद्दों की बात जिनसे बीजेपी को अलग पहचान मिली है और इस वजह से कोई पार्टी बीजेपी जैसा नहीं बन पाएगी.

1. एम यानि मुस्लिम फैक्टर: बीजेपी में ये अद्भुत क्षमता है कि किसी भी मुद्दे को वह हिंदू बनाम मुसलमान के रंग में रंग सकती है. कोई सोच भी नहीं सकता था कि कोरोनावायरस के मामले को सांप्रदायिक बनाया जा सकता है लेकिन तबलीगी जमात के जमावड़े से संबंधित मामले को उछालकर बीजेपी ने कोरोना संक्रमण में भी राजनीतिक अवसर तलाश लिया. उसी तरह पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से 2014 से पहले आए शरणार्थियों को नागरिकता देने का मामला एक सीधा सा मानवीय मुद्दा हो सकता था. लेकिन बीजेपी ने उनमें से मुसलमानों को बाहर करके और साथ में एनआरसी की बहस को जोड़कर इसे भी सांप्रदायिक रंग दे दिया.

मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए तलाक को मुश्किल बनाने का मामला भी आखिरकार इसी रंग में रंग गया. ये अपने आप नहीं हो रहा है. बीजेपी अपने वोटर्स को पहचानती है और जानती है कि वे क्या चाहते हैं. मुसलमानों के सवाल पर बीजेपी जो करती है, उससे बीजेपी का वोटर खुश होता है और बीजेपी उन्हें कभी निराश नहीं करती. बीजेपी उन्हें राम मंदिर दे रही है. कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म हो चुका है और जम्मू-कश्मीर राज्य विभाजित हो चुका है. सीएए-एनआरसी का विरोध करने वालों की संपत्तियां जब्त की जा रही हैं और मुसलमान समाज के नेताओं और बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया जा रहा है. कोई भी और पार्टी इस हद तक मुसलमान विरोध नहीं कर सकती है.


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2. विदेश नीति यानि पाकिस्तान विरोध- बीजेपी की विदेश नीति ही नहीं, घरेलू नीति के केंद्र में भी पाकिस्तान विरोध है. बीजेपी को मालूम है कि पाकिस्तान को लेकर भारतीय मानस में किस तरह की कटुता है. बीजेपी इसका इस्तेमाल करने से कभी नहीं चूकती. हालांकि इस मामले में किसी षड्यंत्र की आशंका की बात मैं नहीं करता लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि करगिल और बालाकोट दोनों मामलों के बाद हुए आम चुनाव में बीजेपी को इनका राजनीतिक फायदा हुआ है. ऐसे मामलों को चुनावी मुद्दा बनाने से बीजेपी कभी नहीं चूकती.

केंद्र में बनी हर सरकार को पाकिस्तान की हरकतों का सामना करता पड़ता है लेकिन बीजेपी के लिए ये विदेश और सामरिक नीति का ही नहीं, राजनीतिक और चुनावी मुद्दा भी होता है. इस मामले में चीन बीजेपी के काम का नहीं है. चीन के बारे में भारत के लोग काफी कम जानते हैं. एक आम भारतीय के मन में चीन के लोगों की ये छवि है कि वे बौने होते हैं (ये सच नहीं है) और सांप और कीड़े खाते हैं. भारतीय लोग चीन को दुश्मन की हैसियत देने के लिए तैयार नहीं है. उन्हें मुकाबले में पाकिस्तान चाहिए और बीजेपी उन्हें निराश नहीं करती.

3. सवर्ण तुष्टिकरण: बीजेपी की ये खास पहचान बन चुकी है. अब तक देश में कई सरकारें आई और गईं. लेकिन आज तक किसी ने सवर्ण (एससी-एसटी और ओबीसी के अलावा बाकियों को) आरक्षण देने की हिम्मत नहीं की थी. ये आरक्षण जातीय और आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला पहला आरक्षण है और इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा. इस आरक्षण के लिए सवर्ण जातियां अरसे तक बीजेपी की एहसानमंद रहेंगी.

बीजेपी लैटरल एंट्री के जरिए बड़े पैमाने पर सरकार में उच्च पदों पर अफसरों को नियुक्त करके आरक्षण को बेअसर कर रही है. इसके अलावा केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ये भी कहा था कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग होता है. इस वजह से एससी-एसटी एक्ट ही खतरे में पड़ गया था. सवर्णों के हित में इस तरह आगे बढ़कर कोई और पार्टी काम नहीं करती. इसने भी बीजेपी को एक विशिष्ट पहचान दी है.

किसी भी पार्टी का अस्तित्व सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि वह कितने चुनाव जीतती है. बल्कि ये बात महत्वपूर्ण है कि उसकी राजनीति क्या है. कोई पार्टी ये नहीं कह सकती कि विकास का काम या स्कूल खोलना या सड़क बनाना उसकी राजनीति है. ये किसी भी सरकार का काम होता है. विपक्षी दलों को अपनी राजनीति की तलाश करनी चाहिए. वैसी राजनीति जिसकी नकल बीजेपी न कर सके.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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1 टिप्पणी

  1. किसी भी पार्टी का अस्तित्व सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि वह कितने चुनाव जीतती है. बल्कि ये बात महत्वपूर्ण है कि उसकी राजनीति क्या है.
    Sure

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