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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतकोविड-19 और देश में हो रही मौतों की वजह जानने के लिए मृत्यु पंजीकरण में सुधार की ज़रूरत है

कोविड-19 और देश में हो रही मौतों की वजह जानने के लिए मृत्यु पंजीकरण में सुधार की ज़रूरत है

अब जब देश में कोविड-19 महामारी ने पैर पसार लिया है तो जरूरत है कि मृत्यु पंजीकरण पद्धति में सुधार किया जाए, जिससे यह पता लगाने में मदद मिले की आखिर मौत की वजह क्या है.

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कोविड-19 और लॉकडाउन की वजह से हुई कई मौतों की कोई गिनती किसी के पास नहीं होगी. इसलिए अब ज़रूरत है मृत्यु पंजीकरण की व्यवस्था में तेज़ी से सुधार लाने की. जिससे इस संकट के समय और उसके बाद, स्वास्थ्य सेवाएं और आर्थिक सहयोग वहां पहुंचाया जा सके जहां उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.

इस समय जब हम अपने हाथ और भी ज़्यादा अच्छे से धो रहे हैं, आपस में दूरी बना रहे हैं, और कोविड-19 से जूझ रहे हैं, हम खुदको जनसांख्यिकी और रोग-विज्ञान के कई सवालों से घिरा पाते हैं. यह वायरस कितना फैलेगा? इस की मृत्यु-दर क्या है? सबसे ज़्यादा खतरा किन लोगों को है? स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे ज़्यादा ज़रूरत कहां है? इन सवालों के जवाब स्वास्थ्य के आंकड़े तैयार करने वाली प्रणाली की विश्वसनीयता पर टिके हैं. स्वास्थ्य के सबसे अहम आंकड़े काफी आसानी से जुटाये जा सकते हैं: हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण अगर सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम में हो.

इसके अलावा बीमारियों, इसके प्रकोप और पुराने मामलों पर भी नज़र रखा जा सकता है. जैसे स्वास्थ्य सुरक्षा की सुविधा हर जगह मौजूद है. स्वास्थ्य डाटा सिस्टम भी हर जगह हैं जिसपर आंकड़े जुटाने का दवाब भी है. लेकिन भारत में ये चुनौतियां बड़ीं हैं क्योकि यहां बड़ी संख्या ऐसी है जो अपने परिवार में हुई मृत्यु का पंजीकरण कराने नहीं जाती है और मृत्यु के आंकड़े भी काफी दिनों या यूं कहें सालों बाद जारी किए जाते हैं.


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कोविड-19 के प्रभाव का शुरुआती आकलन इस बीमारी से हुई मौतें, बीमारी के मामले, और उनके भाग से किया जा रहा है. अंग्रेज़ी में इस भाग को केस फेटेलिटी रेट या मामला मृत्यु दर कहते हैं. इस समय यह सौ में से 0.58 (इसराईल में) से लेकर 12.3 प्रतिशत (इटली में) के बीच में है. इस दर में इतना अंतर कई वजहों से हो सकता है – जैसे कि कोई आबादी कितनी बूढ़ी है, उनका स्वास्थ्य पहले कैसा था, और वहां की स्वास्थ्य सेवाएं इस बीमारी का किस हद तक सामना कर पायीं. जैसे कि अब काफी लोग समझते हैं, कितने लोगों की इस बीमारी के लिए जांच हुई है, इस से भी मृत्यु दर में असर पड़ता है. एक और कारण है जो महत्वपूर्ण है: कब और किस हद तक कोविड-19 से हुई मृत्यु को पहचाना जाता है. जिन देशों में सभी मौतों का पंजीकरण होता है, उन देशों में भी कोविड-19 की मौतों के आंकड़े ज़्यादातर अस्पतालों से आ रहे हैं. घर पर हुई मौतों की जानकारी इन देशों में धीरे-धीरे आ रही है, मगर मौत के कारण में कुछ संदेह के साथ. फिर भी, इन देशों में सरकारें अस्पताल में हुई और घर पर हुई दोनों तरह की मौतों की जानकारी पर ध्यान दे रही हैं.

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चित्र 1: भारत में मृत्यु के पंजीकरण का अधूरापन

भारत जैसे देशों में, जहां मृत्यु का पंजीकरण अधूरा है और ज़्यादातर मौतों की वजह नहीं पता चलती, कोविड-19 के प्रभाव की समझ बनाना बहुत मुश्किल है. हालांकि इस में सुधार आया है, 2017 में भारत में पांच में से एक मृत्यु पंजीकृत नहीं हुई थी. जिन मौतों में मौत की कोई वजह पता चली थी वो और भी छोटा भाग हैं – पांच में एक. देरी से इन आंकड़ों का संकलन करने से और दिक्कतें आती हैं: बीते वर्ष जिन आंकड़ों के आधार पर कोई रिपोर्ट बनाई गयी है वो 2017 है. इस से भी ज़्यादा कठिनाई इस बात से आती है कि एक अध्ययन के हिसाब से 38 प्रतिशत मौतों में उम्र की जानकारी नहीं थी, और 8 प्रतिशत में लिंग की जानकारी नहीं थी. आपातकालीन स्वास्थ्य संबंधी स्थिति से जूझ रहे संगठनो के लिए ऐसा आधा-अधूरा मृत्यु पंजीकरण का सिस्टम कोई काम का नहीं है.

किसी भरोसेमंद पंजीकरण प्रणाली के अभाव में, भारत सरकार का समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) कोविड-19 के मामलों और मृत्यु की जानकारी अस्पतालों और जांच करने वाली प्रयोगशालाओं से इकट्ठा कर रहा है. यह संस्था इस समय ज़रूरी काम कर रही है, और इस संस्था के कर्मचारियों को इस वक्त काफी मेहनत करनी पड़ रही होगी. वो हमारी प्रशंसा के हकदार हैं. मगर समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम की सबसे बड़ी खामी यह है कि अस्पताल से बाहर हुई मौतों की जानकारी पर उसका कोई ध्यान नहीं है. समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम पर पूरी तरह निर्भर रहना हमारी कोविड-19 के हमारी मुहीम में काफी नुकसान पहुंचता है. सबसे पहले, यह निगरानी कार्यक्रम उन मौतों को नज़रअंदाज़ कर देता है जो कोविड-19 से तो हुईं मगर जिनमें बीमारी की जांच नहीं हुई थी.

हम ऐसे बहुत सारे लोगों को नहीं गिन पाएंगे जिनकी पहले की बीमारी कोविड-19 के कारण और बिगड़ गयी और वो बिना कोविद-19 की जांच के मर गए. दूसरा, ऐसे कई लोग मर जाएंगे क्योंकि जो स्वास्थ्य सेवाएं उनको बचा सकती थीं वो कोविड-19 के रोकथाम की तरफ लगा दी गयीं. इन मौतों की भी गिनती नहीं होगी. तीसरा, कोविड-19 से बचाव के लिए जो लॉकडाउन हुआ है उसका स्वास्थ्य पर प्रभाव पता लगाना भी काफी मुश्किल है. सी.बी. अमन, जी.एन. थेजेश और कनिका शर्मा ने मीडिया रिपोर्ट इकट्ठा कर यह पता लगाया कि भूख, चलने में थकान, और पुलिस की बर्बरता के कारण कम से कम पचास लोग मर चुके हैं. असल संख्या इस से काफी ज़्यादा होगी. मृत्यु पंजीकरण अधूरा होने के कारण सरकार के पास हमारी कुपोषित और कमजोर आबादी पर लॉकडाउन का क्या प्रभाव पड़ा इस पर कोई जानकारी नहीं होगी. अगर यह सभी तरह की मौतों की निगरानी होती तो स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारी मदद कितनी और कहां पर जाए उस पर थोड़ा असर पड़ता.

कैसे करें मृत्यु दर की गणना

आखिरकार, इन प्रयोगशालाओं और अस्पतालों से मिले डाटा पर इसलिए नहीं निर्भर रहा जा सकता क्योंकि कुछ ही लोग इन तक पहुंच पाते हैं. इसी वजह से एक मृत्यु पंजीकरण का पूरा होना और समय पर उसके नतीजे निकालना बहुत ज़रूरी है. मृत्यु पंजीकरण सिस्टम में सभी मृत्यु की जानकारी जाती हैं, बस कुछ बीमारियों की नहीं. मौत के कारण की जानकारी जिस हद तक उपलब्ध है, वो इस सिस्टम में नोट की जा सकती है. जानकारी इकट्ठा करना और नोट करना आसान है – किसी प्रयोगशाला की तरह तकनीकी जानकारी और उपकरण की ज़रूरत नहीं है. और यह सार्वजनिक होता है – किसी की भी मौत की जानकारी दी जा सकती है, बिना किसी परेशानी के. एक भरोसेमंद मृत्यु पंजीकरण प्रणाली वहां संसाधन भी पहुंचाती हैं जहां जरूरत होती है. सिर्फ वहां नहीं अस्पताल और लैब्स हों.

बाएं: एक महिला पंचायत-कार्यालय से मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए इंतज़ार कर रही है. दाएं: पंचायत-कार्यालय की ओर से घोषणा की जाती है कि यह जन्म और मृत्यु का उप-पंजीयक कार्यालय भी है.

तो मृत्यु पंजीकरण में सुधार कैसे लाया जाए? सबसे पहले, भारत में ऐसे कई राज्य हैं जिनमें मृत्यु का पंजीकरण पूरा है. उन से सीखने की ज़रूरत है. मृत्यु के पंजीकरण के लिए सरकार यह कर सकती है कि जिस जानकारी को इतनी मेहनत से लोग देते हैं और जिसको मृत्यु पंजीकरण का सिस्टम रिकॉर्ड करता है उसका जल्दी से जल्दी संकलन किया जाए. आखिरी बार के लाइफ एक्सपेक्टेंसी (यानि औसतन उम्र कितनी है किसी की अगर वो आज की मृत्यु दरों से गुजरे) के आंकड़े 2013-2017 के हैं. परिवारों से जानकारी लेने के आधार पर जो मृत्यु के कारण के आंकड़े एकत्रित किए गए हैं वो 2010-13 के हैं. समन्वित रोग निगरानी कार्यक्रम की आखिरी साप्ताहिक रिपोर्ट भी 2020 के जनवरी महीने तक की ही है. अब जब लोगों को बांटने वाले राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में देरी हो गयी है, जनगणना विभाग के अफसरों का कीमती वक्त मृत्यु पंजीकरण के आंकड़े जोड़ने में लगाया जा सकता है.

एक दिन की मृत्यु की रिपोर्ट जितनी जल्दी मिल जाए उतना अच्छा है. फोन पर मृत्यु की जानकारी लेना, उन लोगों के घर जाकर मृत्यु का कारण समझने की कोशिश करना जिनकी अस्पताल में मृत्यु नहीं हुई और उसे पंजीकरण सिस्टम में डालना एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है. और कोविड-19 की जांच के लिए एक बड़ा सैंपल सर्वे तैयार करने के लिए लॉकडाउन का असर फोन पर सर्वे से पता लगाने की कोशिश करने जैसे कई प्रयास किए जा सकते हैं. यह भी याद रखना ज़रूरी है कि जिन लोगों को यह बीमारी हुई है उनको परेशान करना या उन्हें दोष देना इस बीमारी से लड़ाई में सबसे बड़ी बाधा बन सकता है.


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भारत स्वास्थ्य संबंधी विश्वसनीय डेटा को एकत्र करने में काफ़ी समय से अग्रणी रहा है. सन् 1954 में राष्ट्रीय सेंपल सर्वेक्षण ने मृत्यु-दर पर एक सर्वेक्षण किया था. यह सर्वेक्षण विश्व में इस ढंग के पहले सर्वेक्षणों में से था. सत्तर के दशक में भारत ने सैंपल पंजीकरण प्रणाली (एसआऱएस) के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभायी थी. यह मृत्यु-दर पर राष्ट्रीय स्तर का प्रतिनिधि पैनल सर्वे है. सैंपल पंजीकरण प्रणाली के पैनल पर मौतों के कारणों को सुनिश्चित करने के लिए इंटरव्यू विधि का इस्तेमाल करने में भी भारत अग्रणी रहा है. वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2010-13 और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 विश्व के सबसे बड़े सर्वेक्षणों में गिने जाते हैं. यहां तक कि 1918 में आई इन्फ्लूएंजा महामारी, ब्रिटिश भारत के स्ट्रैस्टिकल निकाले गए आंकड़े भी उस दौरान हुई वैश्विक मौत के महत्वपूर्ण स्रोत हैं.

भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तत्काल करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य हो सकते हैं. इन में से एक ज़रूरी काम स्वास्थ्य डेटा प्रणाली में सुधार लाना भी है. अगर हम भारत की विरासत को ध्यान में रखते हुए मृत्यु के पंजीकरण को पूरा करें तो वह इस संकट के दौर में और उसके बाद स्वास्थ्य सुधारने में हमारे लिए काफी मददगार साबित होगा.

(आशीष गुप्ता पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में जनसांख्यिकी और समाजशास्त्र में डॉक्टरेट के विद्यार्थी हैं. यह लेख पहले भारत में बदलाव प्रकाशन में छपा था, जिसे पेंसिल्वानिया विश्वविद्यालय का सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया निकालता है.)

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1 टिप्पणी

  1. Gupta ji dunia mahamari se kaise nipte is PR kuch samay lagai…foakt ke lekh mat likho jinaka koi mahtav nahi…yadi aap ke pass Gyan hai to uska sadupypg karo desh Seva Mai…….China ki galti se laho log mare ja rahe hai…usko b expose karo…….

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