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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतगणेश की सूंड़ के ऑपरेशन पर भी ताली बजाई, ऐतिहासिक स्तंभों को गिराकर भी ताली ही बजाई

गणेश की सूंड़ के ऑपरेशन पर भी ताली बजाई, ऐतिहासिक स्तंभों को गिराकर भी ताली ही बजाई

देश की विभिन्न ऐतिहासिक किलों, पत्थरों और मूर्तियों के हालत भी इन गिराए गए स्तंभों से अच्छी हालत में नहीं हैं.

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दो-चार रोज पहले सोशल मीडिया पर एक वायरल वीडियो में तीन युवक हंपी के विष्णु मंदिर के एक स्तंभ को धक्का मारकर गिरा रहे थे. इस ऐतहासिक काम को अंजाम देने के बाद वो अति उत्साह में हंस भी रहे थे. वीडियो को शेयर करने वाले ने दुखी मन से लिखा था, “ये बच्चा लोग जाने कब सुधेरगा”. एक और व्यक्ति ने इस वीडियो का कैप्शन दिया था- “खंडहरों को खंडर बनाते हुए”. उसके बाद ट्विटर की दुनिया में फैले आक्रोश के बाद पुलिस को उन तीनों युवको के खिलाफ एक्शन लेना पड़ा. इस वीडियो में मंदिर के बाकी स्तंभ भी गिरे औ नष्ट ही प्रतीत हो रहे हैं. दो-तीन साल पहले विज्ञान कांग्रेस में भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा गणेश भगवान के सूंड़ के ऑपरेशन का जिक्र करना और इतिहास के नाम पर सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची मूर्ति बनाना भी इन युवकों को इतिहास के प्रति जागृत नहीं कर पाया.

उदासीनता या मूर्खता?

1820 में एक ब्रिटिश खोजी चार्ल्स मैसन को भारत में पुरानी दीवारें और ईंटें मिलीं. 1856 में रेल पटरी बनाते हुए ब्रिटिश रेलवे इंजीनियर्स को इन्हीं जगहों पर खूब ईंटें नजर आईं जिनक इस्तेमाल आस-पास के लोग कर रहे थे पर किसी को नहीं पता था कि ये ईंटें किसने बनाई. 1920 में पुरातत्वविदों ने गंभीरता से इनका इतिहास खोजना शुरू किया और इस प्रकार हड़प्पा-मोहनजोदड़ो सभ्यता के बारे में हमें पता चला. विडंबना है कि गुलामी के दौरान हमें अपने पुराने इतिहास के बारे में जानकारी हुई.

देश की विभिन्न ऐतिहासिक किलों, पत्थरों और मूर्तियों की हालत भी इन गिराए गए स्तंभों से अच्छी हालत में नहीं हैं. इनकी दीवारों पर अक्सर प्रेमी/प्रेमिकाओं के नाम कुरेदे हुए मिलते हैं. साहित्य की नज़र से देखेंगे तो दो-चार कविताएं लिखने के लिए ये एक अच्छा टॉपिक है. लेकिन इतिहास की बची हुई कुछ चीज़ों के प्रति हमारी ये उदासीनता गंभीर मसला है.


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क्योंकि ऐसा ही हाल हमारे इतिहास के ज्ञान का हो चला है. इंटरनेट के आने से पहले किताबें कुछ ही लोगों की पहुंच तक थी. इसलिए जिसकी पहुँच इन किताबों तक हो गई वो पढ़ पाया और जान पाया. इंटरनेट के आने के बाद से होना तो ये चाहिए था कि इतिहास के प्रति रुझान बढ़ता और लगभग हर व्यक्ति ऑनलाइन लाइब्रेरी और रिसर्च पेपर्स की खोजकर वो सारी बातें जान पाता जो पहले कुछ लोगों तक सीमित रह गई थी. अफ़सोस कि ऐसा हुआ नहीं.

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इतिहास के प्रपंचों में सबको रुचि, इतिहास में किसी को नहीं

सोशल मीडिया की वेव को ध्यान से देखा जाए तो पता चलता है कि लोग पहले से ज़्यादा राजनीतिक हो गए हैं. हर किसी के पास हर मुद्दे पर बोलने के लिए कुछ न कुछ है. लेकिन इतिहास के नाम पर सबके पास व्हाट्सऐप वाला ज्ञान है. किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता कि हम अपने अतीत से कितने अनभिज्ञ हैं. यह बात मायने ही नहीं रखती कि हम अपने राष्ट्र को आकार देने वाली घटनाओं और आंदोलनों को कम क्यों जानते हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में पीएचडी कर रही श्वेता बताती हैं कि किसी देश लोकतांत्रिक ढांचे का मूल आधार है कि राजनीतिक डिस्कोर्स, लोगों के ‘इन्फॉर्मड कंसेंट’ से चले. देश के नागरिक तर्कसंगत और जानकारी रखने वाले हों. अगर हम अपने राजनीतिक और सामाजिक सिस्टम को स्वतंत्र और लोकतांत्रिक बने रहन चाहते हैं तो हमारे नागरिकों को न केवल यह पता होना चाहिए कि किस उम्मीदवारों को वोट करें और उनके दावों को कैसे जज करें. बल्कि उनका यह जानना भी ज़रूरी है कि हमारे पास जो संस्थान हैं उनके बनने की क्या प्रक्रिया रही.

इतिहास को एक विषय के तौर पर देखे जाने की बात पर हरियाणा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के इतिहास के प्रोफेसर नरेंद्र परमार कहते हैं कि इतिहास को एक विषय के तौर पर पढ़ने और समझने का ये मतलब नहीं है कि हर कोई किसी एक निर्णय पर ही पहुंचे बल्कि हर कोई मौजूदा मुद्दों पर हम स्वतंत्र निर्णय ले सकने में सक्षम हो.

इतिहास के बिगड़े हुए रूप का इतना असर होता है कि देश में चुनावों के समय बिना ऐतिहासिक दृष्टिकोण वाले मतदाताओं को इमोशनल अपील के द्वारा लुभाना आसान हो जाता है. ऐसे में अलग-अलग पार्टियां विज्ञापनों में सरगर्मी से किसी उम्मीदवार के अच्छे लगने या करिश्मा के फार्मूला का इस्तेमाल करती हैं. तभी तैमूर, औरंगजेब और अलाउद्दीन खिलजी की बातों को मुद्दा बना दिया जाता है. ये भी सवाल उठने लगता है कि मुगल शासकों के बारे में ही ज्यादा क्यों पढ़ाया जाता है. इसे किसी एजेंडे की तरह प्रस्तुत किया जाता है. पर ये भुला दिया जाता है कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन्हीं शासकों के बारे में ज्यादा दस्तावेज उपलब्ध हैं. सम्राट अशोक के बारे में उतने दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं. हां, ये बात है कि अगर हमें अपने इतिहास के बारे में जानना है तो बाकी जगहों के राजाओं और सभ्यता इत्यादि के बारे में गंभीरता से खोज करनी होगी. ना कि जो उपलब्ध है उसे बर्बाद किये जाने की साजिश हो.

खत्म की जा रही है इतिहास के बारे में जानने की जिज्ञासा

ऐसे में इतिहास के बारे में जानने की जिज्ञासा को धीरे-धीरे खत्म करने की कोशिशें चलती रहती हैं. इतिहास का समझ हमें अपने आज को समझने में मदद तो करती ही है, साथ ही यह हमारी दिमागी आज़ादी के लिए भी ज़रूरी होती है. अतीत के बारे में ना जानने की जिज्ञासा सरकारों द्वारा सेंसरशिप लगाने या फैक्ट्स तोड़-मरोड़ कर बताने सार्वजनिक भाषणों में बताने से ही नहीं खत्म हो रही. बल्कि इसके पीछे एक वजह वर्तमान युग में ये हम सबकी इतिहास को लेकर उदासीन और अज्ञान भी है.

सोशल मीडिया पर तात्कालिक दिक्क्तों की लम्बी लिस्ट के साथ मिला बिगड़े स्वरूप में इतिहास

ऐतिहासिक समझ का लगातार कम होना विशेष रूप से सोशल मीडिया पर एक्टिव पीढ़ी के बीच स्पष्ट तौर पर नज़र आता है. इतिहास के साथ छेड़खानी से हो सकता है राजनीतिक लोग माहौल को अपने पक्ष में करने हो सकें लेकिन एक समाज के लिए इसके दूरगामी नतीजे बेहद खतरनाक होंगे. इसका ताज़ा उदाहरण बॉलीवुड एक्ट्रेस पायल रोहतगी का है. पायल ने महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर लिखा कि गांधी की हत्या जायज है क्योंकि उन्होंने पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया.


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उस ट्वीट पर लोगों ने पायल को जवाब दिए कि गांधी जी की हत्या 1948 में हुई, पटेल का देहांत 1950 में हुआ और भारत के पहले जनरल इलेक्शन1951 में. ऐसे ट्ववीट्स में वो आरएसएस से लेकर बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल्स को भी टैग करती हैं.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी जी अक्सर ही अपने भाषणों में पटेल और नेहरू का ज़िक्र करते रहते हैं.

एएसईआर की रिपोर्ट ने बताए हैं चेताने वाले आंकड़े

गैर सरकारी संस्था एएसईआर की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक 10 साल पहले के मुकाबले 2018 में स्कूली छात्रों के प्रदर्शन के स्तर में गिरावट आई है. 8वीं पास करने वाले वाले 56% छात्रों को सामान्य गणित भी नहीं आता है. पांचवीं कक्षा के 72% छात्रों को भाग करना नहीं आता। तीसरी कक्षा के 70 प्रतिशत बच्चों को घटाना ही नहीं आता. 14 से 16 साल उम्र के लड़कों में से 50 फीसदी भाग के गणित को ठीक-ठीक सुलझा सकते हैं.

जब पढ़ने और गणित में बच्चों के प्रदर्शन को लेकर राष्ट्रीय और राज्य शैक्षिक एजेंसियों के साथ-साथ गैर सरकारी संस्थाएं भी नियमित रूप से परीक्षण करती हैं तो हम इतिहास की समझ को क्यों नहीं जांचते हैं? लेकिन इस दिशा में कोई प्रयास नहीं उठाए जाते.

यही हाल कॉलेज के स्तर पर है. देश के दो-तीन यूनिवर्सिटीज को छोड़कर बाकी सब जगह इतिहास आसानी से पास करने वाला सब्जेक्ट है जिसे टाइमपास के लिए लिया जाता है.

हर किसी ने सीख लिया है कि इतिहास सब्जेक्टिव है, लेकिन क्या सच में इतिहास पढ़ा?

आज हर किसी के हाथ में मोबाइल लिए टूटी-फूटी भाषा के साथ धड़ाधड़ कमेंट्स करते युवाओं ने ये कहना सीख लिया है कि इतिहास तो सब्जेक्टिव है. उनके पास बहुत सारे दृष्टिकोण और राय हैं, लेकिन उनके पास समस्या का विश्लेषण करने के लिए ज्ञान की कमी है. हम ऐतिहासिक स्मृति के बिना एक पीढ़ी को आगे बढ़ा रहे हैं जो किसी भी देश के आदर्श स्थिति नहीं है.

अमेरिका ने इसके बारे में ”सोचना” बहुत पहले से ही सोच लिया था. वहां इतिहास के बारे में बढ़ती उदानसीनता पर रिसर्च पेपर्स पब्लिश किए जा रहे हैं और सरकरों को चेताया जाता रहा है. लेकिन भारत में वैसा सीन भी दिखाई नहीं देता. यहां त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव देव ये बयानबाज़ी करने में व्यस्त हैं कि महाभारत में इंटरनेट था और हम सब इतिहास को लेकर उनके विचारों पर हंस रहे हैं.

बाद में राहुल कंवल के साथ हुए इंडिया टुडे के एक इंटरव्यू में बिप्लव देव ने अपने बयान को सही ठहराते हुए कहा कि सब विदेशों की तारीफें करते हैं, हमें भी अपने देश की सभ्यता पता होना चाहिए और उस पर गर्व होना चाहिए.

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