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Thursday, 25 April, 2024
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क्या आप उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति के ‘के-फैक्टर’ के बारे में जानते हैं?

उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख पिछड़ी जाति कुर्मी अगले लोकसभा चुनाव में किस ओर रुख करेगी? उन्हें लुभाने की कोशिश तमाम दल कर रहे हैं.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अघोषित मान्यता रही है कि सनातन समाज व्यवस्था ही भारत के लिए श्रेष्ठ व्यवस्था है. सनातन भारतीय समाज जाति और वर्ण की श्रेणियों में बंटा है जिसमें हर जाति किसी से ऊपर या नीचे है. आरएसएस इन्हें बनाए रखते हुए इनके बीच समरसता चाहता है. संघ से जुड़ी पार्टी बीजेपी इसी के मुताबिक चुनावी गोटियां फिट करती है. बीजेपी यूपी विधानसभा चुनावों में परोक्ष रूप से न सिर्फ ब्राह्मण, बल्कि पिछड़ी जाति के नेताओं को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में पेश करती रही है. क्षेत्रीय राजनीति में शीर्ष पर न होने के कारण किसान जातियों के कुर्मी, लोध, गुर्जर बीजेपी के बड़े समर्थक बनकर उभरे. इनमें से कुर्मी की मौजूदगी पूरे प्रदेश में है.

1989 से राज्य की राजनीति देखें. उस समय कुर्मी मतदाताओं ने एकमुश्त जनता दल को वोट किया. पिछड़े वर्ग के सबसे बड़े नेता मुलायम सिंह यादव के दाहिने हाथ थे बेनी प्रसाद वर्मा. वर्मा की पकड़ कुर्मी बहुल उत्तर प्रदेश के तराई इलाकों यानी पड़रौना से लेकर बस्ती, गोंडा, बलरामपुर, बहराइच, बाराबंकी सहित तमाम जिलों में थी, जबकि मुलायम सिंह यादव इटावा, संभल सहित पूरे प्रदेश में प्रभावी थे. जब मुलायम सिंह केंद्र की सरकार में रक्षा मंत्री बने तो उस समय बेनी प्रसाद संचार मंत्री बने.

उधर, कांशीराम भी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन कर कुर्मियों को लुभा रहे थे. उन्होंने इस खेतिहर तबके की पूरे प्रदेश में उपस्थिति और ताकत को महसूस किया और पार्टी में तमाम कुर्मी नेताओं को जोड़ा. यह वो दौर था, जब बूथ कैप्चरिंग से लेकर दलितों का वोट न पड़ने देना अहम समस्या थी और बसपा को एक प्रभावशाली जाति के सहयोगी की जरूरत थी.

कुर्मियों का सपा और कुछ साल तक लोध नेता कल्याण सिंह के चलते बीजेपी की ओर रुझान था. संभवतः बसपा ने इसी कारण कुर्मी समुदाय से दूरी बना ली. बावजूद इसके, कुर्मी क्षेत्रीय स्तर पर बसपा से जुड़े रहे. कुर्मियों के कई प्रभावशाली नेता बीएसपी से आए. लेकिन वह पुराने दौर की बात है.

सपा के बेनी प्रसाद वर्मा कांग्रेस में आए तो ‘के फैक्टर’ कांग्रेस के साथ आ गया. 2009 के लोकसभा चुनाव में तराई इलाके में कांग्रेस 80 में से 21 सीटों पर काबिज हुई. संभव है कि इस जीत में किसान कर्जमाफी और मनरेगा ने भी अहम भूमिका निभाई हो, क्योंकि इसका ज्यादातर पैसा गांवों में किसानों के पास ही जाता है. इस जीत को राहुल गांधी की जीत के रूप मे प्रसारित किया गया. लेकिन बरसों पहले कैबिनेट मंत्री रहे वर्मा को कांग्रेस ने यूपीए सरकार में राज्य मंत्री तक समेट दिया. इसकी कुर्मी समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन कांग्रेस इससे नावाकिफ रही. 2012 में चुनाव आने पर कांग्रेस ने वर्मा को ताकतवर बनाने की कोशिश की, लेकिन गलत परसेप्शन बन जाने के बाद वर्मा के लिए अपने मतदाताओं को समेटना संभव नहीं हुआ.

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बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद आदित्यनाथ को सत्ता सौंप दी. कुर्मी समाज को उम्मीद थी कि जिस तरह बीजेपी ने हरियाणा में आरएसएस से मनोहरलाल खट्टर को उठाकर मुख्यमंत्री बना दिया, उसी तरह से स्वतंत्रदेव सिंह को सीएम बनाया जाएगा. बीजेपी ने यहां पर कुर्मियों को निराश किया.

ओबीसी में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी खेतिहर जाति कुर्मी राजनीतिक शीर्ष पर जाने के सपने देखती रही है. उसे जलन होती है कि यादवों को मुलायम सिंह यादव के रूप में नेता और मुख्यमंत्री मिले. कुशवाहा नेताओं का भी कमोबेश जलवा रहा. लोध नेता कल्याण सिंह भी मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे. लेकिन कुर्मी समुदाय राज्य की राजनीति में दोयम दर्जे पर ही बना रहा. बीजेपी ने 2017 में कुर्मियों को जो झुनझुना पकड़ाया था, वह बजा ही नहीं. कुर्मियों को भरोसा था कि वह बीजेपी में ओबीसी नेताओं में सबसे ऊपर रहने का तमगा हासिल कर लेंगे, लेकिन वह भी जाता रहा.

बीजेपी संतोष गंगवार को कुर्मी चेहरे के रूप में पेश करती है. लेकिन जाति के नेता के रूप में उनकी पहचान कमजोर है. और उनका असर भी बरेली और आसपास में ही है. वे ओबीसी या कुर्मी हितों के लिए बोलते-काम करते नजर भी नहीं आते. बीजेपी ने इसके अलावा अपना दल के संस्थापक दिवंगत सोनेलाल पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल को भी अपने साथ जोड़ा है. उन्हें सांसद और केंद्रीय मंत्री भी बनाया है. लेकिन वे भी पार्टी में ओबीसी की अनदेखी और निजी कारणों से बीजेपी से नाराज चल रही हैं.

समाजवादी पार्टी ने यादव पार्टी होने के तमगे के बीच नरेश उत्तम पटेल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया. वह जबर्दस्त सक्रिय और उत्साही हैं. लेकिन वह कुर्मियों के इस जलन का कोई उपचार नहीं कर पा रहे कि सपा में हर हाल में कुर्मी नेताओं को दोयम दर्जे का ही रहना है.

कांग्रेस पार्टी इस वर्ग को लुभाने के लिए तरुण पटेल को हीरो बना रही है. लेकिन तरुण की छवि अभी बड़े नेता की नहीं बन पाई है. राज बब्बर और आरपीएन सिंह को ओबीसी समाज अपना नेता महसूस नहीं कर पाता, ज्यादातर लोगों को तो यह कन्फ्यूजन है कि यह लोग ओबीसी हैं भी या नहीं. कांग्रेस जिस तरह से किसानों को लुभाने की कोशिश कर रही है, उसमें वह कुर्मियों को मानसिक रूप से अपनी ओर खींचने में सफल रही है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ओबीसी तबके से मुख्यमंत्री बनाए जाने से कुर्मियों में कांग्रेस को लेकर थोड़ा उत्साह है. लेकिन साफ नहीं है कि वह ओबीसी राजनीति पूरी तरह से सपा के लिए छोड़कर खुद ब्राह्मण, क्षत्रिय राजनीति साधने जा रही है, या उत्तर प्रदेश में ओबीसी नेतृत्व को आगे करेगी.

कुर्मी मूलरूप से किसान जाति है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी है. हालांकि अब शहरों में भी उनकी संख्या है. गांवों में किसानों की सबसे बड़ी समस्या पशुओं व पेड़ पौधे न बिकना, लावारिस घूम रहे पशुओं का खेत चर जाना है. पेड़ और पशु की बिक्री किसानों की नकदी का साधन है. लेकिन इनके दाम घटकर एक चौथाई पर पहुंच गए हैं. इसके सबसे ज्यादा शिकार कुर्मी जैसी जातियां हैं, जो छोटे से लेकर मझोले किसान और कुछ इलाकों में भूमिधर श्रमिक हैं. किसानों की समस्याओं का समाधान कर पाने में बीजेपी को अब तक खास कामयाबी नहीं मिली है.

ऐसे में साफ नहीं है कि उत्तर प्रदेश में ‘के फैक्टर’ किस करवट बैठेगा. उसके पास उत्तर प्रदेश में सपा, कांग्रेस और बसपा विकल्प के रूप में हैं. वहीं बीजेपी भी उसके विकल्प में शामिल है क्योंकि 2017 में पहली बार 1989 के स्तर पर कुर्मी विधायक जीते हैं और उन्होंने यादवों को पीछे छोड़कर अपना जातीय अहम तुष्ट कर लिया है.

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