होम मत-विमत अरविंद केजरीवाल का स्टार्ट-अप ‘आप’ दशक का राजनीतिक ‘यूनिकॉर्न’ है

अरविंद केजरीवाल का स्टार्ट-अप ‘आप’ दशक का राजनीतिक ‘यूनिकॉर्न’ है

आप ने हमारी राजनीति में नए लोगों के लिए प्रवेश द्वार खोल दिया है- जाति, जातीयता, विचारधारा, वंशवाद - खुद को अखिल भारतीय मान्यता के साथ दिल्ली पार्टी के रूप में स्थापित किया है.

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चित्रण: सोहम सेन / दिप्रिंट

अभी-अभी बीते दशक में अपने देश में जो सकारात्मक बातें हुई हैं उनमें एक है ‘स्टार्ट अप’ का उभार. सैकड़ों नये ‘स्टार्ट अप’ सामने आए हैं और इनमें से दर्जनभर से ज्यादा ने ‘यूनिकॉर्न’ वाली हैसियत बना ली है, यानी उनका मूल्य कम समय में ही 1 करोड़ डॉलर से ज्यादा का हो गया है. उनके बारे में खूब लिखा-कहा जा रहा है और उनकी तारीफ की जा रही है.

वैसे, हमारी नज़र तो राजनीति पर ही रहती है. इसलिए हमारे खाते में राजनीति के मैदान में ‘दशक के स्टार्ट अप’ का सेहरा तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (‘आप’) के माथे पर बंधता है. इसकी कई वजहें भी हैं, जिनकी चर्चा हम यहां करेंगे.

पहली बात तो यह है कि स्थापित राजनीतिक दलों, और लोकसभा से लेकर पंचायत स्तर तक वोट बैंक से लैस जातीय-क्षेत्रीय-विचारधारात्मक ताकतों की वजह से हमारी राजनीति के प्रवेशद्वार पर नये प्रवेशार्थियों के लिए बाड़ें बहुत ऊंची-ऊंची लगी हुई हैं. यही कारण है कि पिछले सभी ‘स्टार्ट अप’— जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, जनता पार्टी से लेकर तेलुगु देसम, बीजेडी, तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसी मजबूत पार्टी तक— ने अपनी विचारधारा, अपना नेतृत्व, वोट बैंक या जातीय/स्थानीय निष्ठाएं पहले से मौजूद ताकतों से हासिल की. लेकिन ‘आप’ सबसे अलग है. एक छोटे से मगर महत्वपूर्ण राज्य में स्थापित होकर पूरे देश में अपने ब्रांड की पहचान कायम कर लेना उसकी जबरदस्त उपलब्धि है.


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‘आप’ को औपचारिक तौर पर 26 नवंबर 2012 को लांच किया गया था. लेकिन हमारे खाते के मुताबिक इसके बीज या इसका विचार 2010 के आखिरी दिनों में बो दिया गया था. यह तब की बात है जब यूपीए ने या सच कहें तो कांग्रेस ने समय से पहले अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी और इसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा तब तैयार नहीं थी. उस दौरान थोड़े से समय के लिए, जब तक कि नरेंद्र मोदी ने भाजपा की बागडोर नहीं संभाली थी, एक खाली जगह बन गई थी.

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तभी केजरीवाल एक ऐसे परोपकारी ऐक्टिविस्ट और भ्रष्टाचार विरोधी ऐसे पहरुए के रूप में राष्ट्रीय ख्याति कमा रहे थे जिसे भ्रष्ट नहीं किया जा सकता. याद रहे कि यह वह साल भी था जब राजनीति से लेकर नौकरशाही और मीडिया और यहां तक कि कॉर्पोरेट जगत तक, पुराने तंत्र के लगभग सभी संस्थान अपनी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा गंवा चुके था. राडिया टेप कांड इसकी एक मिसाल था. इसने ‘सब चोर हैं’ वाली मानसिकता को और पुष्ट ही किया. बढ़ते आक्रोश ने किसी स्थापित दल या नेता को नहीं छोड़ा. जब हरेक को चोर घोषित कर दिया गया, तब भारत उस शख्स की खोज में लग गया जो चोर नहीं था. यहीं पर बागियों, केजरीवाल और उनकी युवा मंडली ने मंच पर कदम रखा, जिसने सत्ता का स्वाद नहीं चखा था और इस तरह वे भ्रष्टाचार से अछूते थे.

उनका रहनसहन सादा था, वे सीधी-सहज भाषा बोलते थे और विश्वसनीय लगते थे क्योंकि वे सिर्फ स्थापित राजनीतिक जमात और तमाम कुलीनों (मनमोहन सिंह से लेकर मुकेश अंबानी तक) को देश के भरोसे के काबिल नहीं बताते थे. अण्णा हजारे ने मंच पर प्रकट होकर उनकी ताकत और बढ़ा दी. वैसे, अण्णा का इस्तेमाल करके उन्हें दो साल में ही परे कर दिया गया, (उनका अनशन 2011 में हुआ) और ‘आप’ 2012 में एक राजनीतिक दल के रूप में अवतरित हो गया. कई दशकों के बाद एक ऐसा नया दमदार राजनीतिक दल उभरा, जो किसी राजनीतिक विरासत से नहीं जुड़ा था; जिसका कोई वोट बैंक, कोई परिवार और यहां तक कि अपनी कोई विचारधारा भी नहीं थी.


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यह नया विकल्प न तो वामपंथी था, न दक्षिणपंथी और न ही मध्यमार्गी. इसलिए यह ऐसी किसी विचारधारा वाली पार्टी पर बड़ी आसानी से हमला कर सकता था या उससे तालमेल करके बाद में उसे खारिज कर सकता था— चाहे वह कांग्रेस हो या पंजाब का कोई कट्टरपंथी सिख संगठन. राजनीतिक उद्यमशीलता के मामले में केजरीवाल की प्रतिभा यह थी कि उन्होंने इन सबका किस तरह इस्तेमाल किया. विचारधारा और राजनीतिक निष्ठा का अभाव; दोस्त हो या दुश्मन, सबका इस्तेमाल करके खारिज कर देने की क्रूरता; राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाकर जनकल्याणवाद को परिभाषित करना (‘भारत माता की जय’ के नारे और भगत सिंह के पोस्टर)  ये तमाम बातें उनके इस नये उपक्रम की अपनी ख़ासियतों में शुमार थीं. सियासत की मंडी में वे एक ऐसा माल लेकर घूम रहे थे जैसा किसी और के पास नहीं था. यही तो शानदार उद्यमशीलता है!

जैसा कि असली ‘स्टार्ट अप’ के साथ होता है, ‘आप’ भी लुप्त होने के कगार तक कई बार पहुंची, जिनमें से कुछ में तो उसका अपना ही हाथ था. मसलन, 2019 के लोकसभा चुनाव में वह दिल्ली विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस से भी नीचे तीसरे नंबर पर रही. साफ होने के कगार पर पहुंचने के बाद उसने अच्छी वापसी की है और ऐसा लगता है कि अगले कुछ सप्ताहों के बाद दिल्ली विधानसभा के चुनाव की दौड़ में वह सबसे आगे रहेगी.

वैसे, इसने अहंकार का भी प्रदर्शन किया और गोवा तथा पंजाब में इसकी कीमत चुकाई. ठेठ ‘स्टार्ट अप’ की तरह इसे एचआर (मानव संसाधन) से संबन्धित मुश्किलों का भी सामना करना पड़ता रहा है, जो कि खासी गंभीर भी हुई हैं. इसके मंत्रियों समेत कई अहम नेताओं को भ्रष्टाचार से लेकर विवाहेतर सम्बन्धों या सहमति से सेक्स के मामलों के लिए निष्कासित करना पड़ा है. जैसा कि हम कई ‘स्टार्ट अप’ में देख चुके हैं, ‘आप’ के भी कई संस्थापक सदस्य इससे अलग होते गए हैं. यहां मैं बात को लंबा खींच रहा हूंगा, मगर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को केजरीवाल के मामले में वही स्थान दिया जा सकता है, जो स्थान मार्क जुकरबर्ग के मामले में जुड़वा विंकेलवोस बंधुओं को दिया जाता है. इन दोनों ने भी ‘स्टार्ट अप’ वाली वही खासियत अपना ली है, जो कि आत्म विनाश का भी कारण बन जाती है— एक नेता के इर्दगिर्द व्यक्तिपूजा का तामझाम.


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मुझे पढ़ने-सुनने वाले जानते होंगे कि ‘आप’ की राजनीति को मैं अधिकतर सावधानी की नज़र से देखता रहा हूं और अण्णा के जमाने से एक टिप्पणीकार के नाते मैं उनसे बहस करता रहा हूं. उनकी अस्तित्वहीन विचारधारा की थाह लेने के लिए मैंने केजरीवाल के बेस्टसेलर मांगपत्र ‘स्वराज’ को पढ़ा. पर्चानुमा इस पुस्तिका को पढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगता है. मैंने इसे बंगलोर से दिल्ली की उड़ान में भोपाल के ऊपर पहुंचने तक पढ़ डाला था. इसे करीब ढाई हज़ार साल में किंवदंतियों के रूप में उभरे विचारों और आदर्शों की कीमियागीरी ही माना जा सकता है.

इसका मूल विचार प्राचीन वैशाली गणतंत्र से लिया गया है. पूरा विचार इतना बचकाना और कॉमिक-बुक सरीखा है कि मैंने इस पर अपना एक पूरा स्तम्भ ‘नेशनल इंटरेस्ट’ लिख डाला था और इसका शीर्षक दिया था— ‘अरविंद चित्रकथा’. मैंने लिखा था कि अगर वे देश और ‘सिस्टम’ को इसी तरह से बदलना चाहते हैं, तो यह तो कभी बदलने से रहा. लेकिन उन्हें इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि सत्ता में आने के बाद वे धीरे-धीरे सत्तातंत्र वाली शांति की मुद्रा में चले गए, या ऐसा दिखता भी है. अब आप उन्हें शायद ही कभी किसी की निंदा करते, ‘मोर्चा’ निकालते, आक्रोश जताते देखते हैं. वे कानून और संविधान का पालन कर रहे हैं, एक साफ-सुथरी सरकार चला रहे हैं और विचारधारा-मुक्त जनकल्याणवाद चला रहे हैं, जो निचले तबकों के लिए है. आलोचकों को इस परिवर्तन और कामयाबी को कबूलना होगा.

https://youtu.be/Sm2ZHNvm4yE

केजरीवाल की तुलना आप उनके आयुवर्ग के दूसरे नेता राहुल गांधी से कीजिए. मैं केवल यह देखूंगा कि मोदी के आने के बाद से हमारी राजनीति के सामने राष्ट्रवाद, धर्म और जनकल्याणवाद के रूप में जो तीन सबसे बड़ी चुनौतियां खड़ी हुई हैं उनका इन दोनों के पास क्या जवाब है. राहुल के विपरीत केजरीवाल जेएनयू में हंगामे के दौरान वहां कभी नहीं गए. ‘टुकड़े टुकड़े’ वाली उस आग से वे बड़ी चतुराई से दूर रहे. जरा पता कीजिए कि कन्हैया कुमार और उमर खालिद की गिरफ्तारी पर केजरीवाल ने क्या कहा था. उन्होंने कहा था कि अगर पुलिस उनके नियंत्रण में होती तो वास्तव में ‘टुकड़े टुकड़े’ के नारे लगाने वाले जेल में होते और बेकसूर लोग जेल से बाहर होते. मैं जानता हूं कि जागरूकता की आज की परीक्षा में यह खरा नहीं उतरेगा. लेकिन इस पर खरा उतारने की कोशिश में राहुल को क्या हासिल हुआ? केजरीवाल ने सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट हमले वगैरह की तुरंत तारीफ की और अनुच्छेद 370 के पक्ष में आवाज़ उठाई. वे राष्ट्रवाद का मोहरा मोदी के लिए छोड़ने को तैयार नहीं थे. और, भगत सिंह तो बेशक सावरकर से ज्यादा ताकतवर ‘आइकन’ हैं.


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राहुल तो मंदिर-मंदिर दौड़ते रहे, लेकिन केजरीवाल अपनी हिंदू पहचान को लेकर नरम बने रहे और खालिस धर्मनिरपेक्षता को लेकर वामपंथी आग्रह के लालच में भी कभी नहीं पड़े. बल्कि बुज़ुर्गों के लिए मुफ्त तीर्थयात्रा का कार्यक्रम लेकर आए. याद रहे कि इन तीर्थों में अजमेर शरीफ भी शामिल है लेकिन इनमें से अधिकतर तीर्थ हिंदुओं और सिखों के हैं. और, इस कार्यक्रम के विज्ञापन ने उन्हें किंवदंती बने आदर्श पुत्र श्रवण कुमार के रूप में पेश किया, जिन्होंने अपने वृद्ध माता-पिता को कंधे पर उठाकर सभी 84 तीर्थों की यात्रा कराई थी. इसी के साथ उन्होंने तुरंत टी.एम. कृष्ण का कन्सर्ट आयोजित किया, जिसे हिंदुत्ववादियों के विरोध के कारण कहीं और करना पड़ा था; इसके अलावा उन्होंने पटाखों के विरोध को रेखांकित करने के लिए दीवाली पर लेजर शो आयोजित किया.

हमें मालूम है कि ब्रांड केजरीवाल-आप अगर दिल्ली का चुनाव जीत भी जाए तो उसे अभी बहुत लंबा सफर तय करना है. लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि वह लचीली राजनीति करने वाली पार्टी के रूप में स्थापित हो चुकी है. हम इससे कई बार सहमत हो सकते हैं, कई बार असहमत हो सकते हैं लेकिन यह एक ऐसी ताकत बन चुकी है जिसकी अनदेखी कोई नहीं कर सकता, मोदी भी नहीं, क्योंकि यह अपनी ताकत से ज्यादा आक्रामकता दिखाती रहेगी. हमें मालूम है कि ‘स्टार्ट अप’ वाली कसौटी पर कसें तो एक दशक में केवल एक राज्य पर प्रभुत्व जमाना काफी मामूली उपलब्धि मानी जाएगी. लेकिन किसी भी देश, खासकर भारत जैसे देश के लिए एक दशक काफी छोटी अवधि है.

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