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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतगलत आचरण को लेकर सेना के कानून को समय के अनुसार बदलने की जरूरत

गलत आचरण को लेकर सेना के कानून को समय के अनुसार बदलने की जरूरत

धारा 45 और 63 यौन दुराचार के मामलों से निबटने के लिहाज से काफी अस्पपष्ट और अपर्याप्त हैं. ये धाराएं, और कोर्ट मार्शल की कमजोर कानूनी प्रक्रियाएं ऐसी हैं कि उनके मामले एएफटी या ऊंची अदालतों की जांच में विफल हो जाते हैं.

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सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान बेंच ने 31 जनवरी को फैसला सुनाया कि सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार को आपराधिक कृत्य बनाने वाली, आइपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 497 को रद्द करने जो फैसला 2018 में सुनाया था वह व्यभिचार का दोषी पाए गए किसी सैनिक के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करने में बाधक नहीं बन सकता. यह फैसला केंद्र सरकार द्वारा 13 जनवरी 2021 को सुप्रीम कोर्ट में की गई इस अपील के बाद आया है कि सैनिकों को जोसफ शाइन फैसले के नाम से मशहूर इस फैसले के दायरे से अलग रखा जाए. दरअसल यह अपील अतार्किक थी और मेरे ख्याल से गैरज़रूरी थी.

सेना का मामला

संविधान बेंच ने अपने आदेश में कहा कि 2018 का फैसला व्यभिचार पर आर्म्ड फोर्सेज़ एक्ट की धारा 45 (अशोभनीय आचरण से संबंधित) और धारा 63 (सैन्य अनुशासन और सुव्यवस्था तोड़ने से संबंधित) के प्रावधानों पर नहीं सुनाया गया था. संविधान के अनुच्छेद 33 के मुताबिक, सेना पर लागू होने वाले कानून में यह प्रावधान किया गया है कि संसद द्वारा निर्धारित कुछ मौलिक अधिकार सैनिकों पर लागू नहीं होंगे.

आदेश में स्पष्ट किया गया है कि “इस अदालत ने 2018 में जो फैसला दिया था वह केवल सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता) की धारा 45 और 63 की वैधता से संबंधित था… अनुच्छेद 33 के संदर्भ में, इन क़ानूनों पर चूंकि इस अदालत को विचार नहीं करना था इसलिए हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि इस अदालत को आर्म्ड फोर्सेज़ एक्ट के प्रभावों और प्रावधानों पर फैसला नहीं करना था. न ही इस अदालत को आर्मी एक्ट की धारा 45 और 63 के प्रभावों और दूसरे क़ानूनों (नेवी एक्ट और एयर फोर्स एक्ट) के संबंधित प्रावधानों पर फैसला देने के लिए कहा गया और न उसने इसकी कोशिश की.”

सेना का तर्क इस बात पर केंद्रित था कि व्यभिचार की कार्रवाई से सेना की एकता, नैतिकता और अनुशासन पर क्या असर पड़ेगा और इस वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा किस तरह प्रभावित होगी. इसके अलावा इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कि ड्यूटी पर तैनाती के कारण सैनिकों को अपने परिवार से लंबे समय तक अलग रहना पड़ता है इसलिए “अपने परिवार से दूर तथा मुश्किल हालात में काम करते हुए सैनिकों को यह चिंता हमेशा सताती होगी कि कहीं उनका परिवार दूसरे सैनिकों के साथ किसी अप्रिय गतिविधि में तो नहीं लिप्त हो गया.”

उनका तर्क दरअसल यही था. व्यभिचार सहमति से होता है. सैनिक की पत्नी स्वेच्छा से इसमें लिप्त हो जाती है. कानून इसलिए है कि दूसरे सैनिकों को ऐसा करने से रोका जाए. लेकिन व्यभिचार का आरोप केवल पुरुषों पर लगाया जाता है. मैंने कोष्ठकों में स्पष्टीकरण दिया है.

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यह भी तर्क दिया गया कि व्यभिचार के लिए किसी सैनिक के खिलाफ की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई को आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिबुनल (एएफटी) ने जोसफ शाइन फैसले के आधार पर खारिज कर दिया. यह तर्क गलत था क्योंकि सैनिकों को कोर्ट मार्शल के आदेश के खिलाफ अपील करने का अधिकार है, और एएफटी या ऊंची अदालतें ऐसे मामलों पर फैसला कर सकती हैं और यह सैन्य कानूनी प्रक्रियाओं तथा धारा 45 और 63 की खामियों को उजागर कर सकता है. जो भी हो, सेना किसी सैनिक पर धारा 69 (सिविल अपराध से संबंधित) के, जिसे आइपीसी की धारा 497 से जोड़ा जाता है, तहत शायद ही कोई आरोप दायर करती है. इसकी वजह यह है कि सेक्स के मामले में आपसी सहमति को सिद्ध करना चुनौतीपूर्ण होते है.

व्यभिचार से सेना की एकता, नैतिकता, अनुशासन, और इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा के भी प्रभावित होने के सवाल पर सेना से असहमत होने की कोई वजह सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं हो सकती थी. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सेना के इस अधिकार को परोक्ष रूप से स्वीकार किया कि वह आर्मी एक्ट की धारा 45 तथा 63 की तहत सैनिकों को व्यभिचार के मामले में सजा दे सकती है. उसने इस मसले पर कोई टिप्पणी करने से परहेज किया कि इन धाराओं में खास तौर पर व्यभिचार या दूसरे यौन अपराधों का जिक्र नही किया गया है.

सार यह कि सरकार या सेना को सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में कोई सफाई लेने की जरूरत नहीं थी कि व्यभिचार को सेना में अपराध माना जा रहा है जबकि सिविल सोसाइटी में अब इसे दंडनीय अपराध नहीं माना जाता.


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यौन अपराधों के मसले पर सैन्य क़ानूनों की समीक्षा हो

सैनिकों के बीच भावनात्मक लगाव या एकता किसी लड़ाई में सबसे प्रेरक तत्व होता है. सेनाएं एक सुगठित परिवारों की तरह जीती और लड़ती हैं. सैनिकों और अधिकारियों के बीच आपसी सम्मान, विश्वास, अनुशासन और नैतिक आचरण ही इस एकता और लगाव का मूल आधार होता है. साथ-साथ जी और लड़ रहे सैनिकों के बीच समलैंगिक या उभयलैंगिक संबंध इस एकता को और अंततः युद्ध-क्षमता को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं. पदानुक्रम पर आधारित संगठन में यह शोषण का मामला बन सकता है. यौन व्यभिचार आपसी विश्वास को चोट पहुंचा सकता है और सैनिकों पर मानसिक दबाव बना सकता है.

इन वजहों के कारण, ड्यूटी पर या बैरक में यौन संबंध प्रतिबंधित और दंडनीय है. सैन्य अड्डों/छावनियों में सैनिकों और उनके परिवारवालों के अवैध संबंध को भी वर्जनीय माना जाता है और इसे अपराध के रूप में देखा जाता है. ऐसे यौन अपराधों से निबटने के लिए सैन्य नियम, कायदे और कानून बनाए गए हैं.

सहमति के बिना किए गए समलैंगिक या उभयलैंगिक यौनाचार को बलात्कार, यौन दुर्व्यवहार या यातना के रूप में परिभाषित किया गया है और इनके लिए साफ कानून बने हैं, और इनसे संबंधित सैन्य कानून भी अलग नहीं हैं. सहमति से बनाए गए यौन संबंधों के बारे में स्थिति असपष्ट है, खासकर इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार और समलैंगिकता को दंडनीय अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है. सेना में महिलाओं की भर्ती ने समस्या को और बढ़ा दिया है.

सेनाएं आर्मी/नेवी/एयर फोर्स एक्टों के तहत समानान्तर न्याय-व्यवस्था चलाती हैं. संसद से मंजूर ये एक्ट आम तौर पर देश के क़ानूनों के तालमेल में हैं. लेकिन जहां तक सैन्य अपराधों और मुकदमे की प्रक्रिया का सवाल है, सेना में विशिष्ट अनुशासन की जरूरतों के मुताबिक उनमें काफी फर्क किया गया है.

फिलहाल सेना के कानून में, सहमति से बनाए गए यौन संबंध के मामले से निबटने के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है. ऐसे संबंधों को प्रशासनिक आदेश या तीनों सेनाओं की नियमावली के अनुसार प्रतिबंधित घोषित किया गया है. ऐसे अपराधों के लिए अधिकारियों के खिलाफ धारा 45 तथा 63 के तहत आरोप दायर किया जाता है, हालांकि इन धाराओं में यौन अपराधों का विशेष जिक्र नहीं किया गया है.

धारा 45 कहती है—“अशोभनीय आचरण. जो भी अफसर, जेसीओ या वारंट अफसर अपने पद की गरिमा और उससे अपेक्षित चरित्र के लिहाज से अशोभनीय आचरण करेगा उसका (अगर वह अफसर है) कोर्ट मार्शल से दोषी करार दिए जाने के बाद उसे बरखास्त किया जा सकता है या इस एक्ट के तहत इससे कमतर कोई सजा दी जा सकती है.”

इस तरह, अफसर, जेसीओ या वारंट अफसर के यौन दुराचार का मामले को इस एक्ट के तहत निबटाया जाता है.
धारा 63 का दायरा बड़ा है और यह सभी तरह के यौन अपराधों से निबटती है : “सुव्यवस्था तथा अनुशासन का उल्लंघन. इस एक्ट के तहत, कोई भी व्यक्ति जिसने ऐसा काम किया हो या लापरवाही की हो जिसका इस एक्ट में भले जिक्र न किया गया हो मगर जिसके चलते सुवयवस्था और सैन्य अनुशासन भंग होता हो तो कोर्ट मार्शल द्वारा दोषी करार दिए जाने पर उसे सात साल तक कैद की सजा हो सकती है या इस एक्ट के तहत इससे कमतर सजा दी जा सकती है.” सेना के नियमों, सेना/फॉरमेशन/यूनिट के प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन के लिए इस एक्ट के तहत सजा दी जाती है. ये नियम और प्रशासनिक आदेश सहमति से सेक्स और व्यभिचार को प्रतिबंधित करते हैं.

धारा 45 और 63 यौन दुराचार के मामलों से निबटने के मामले में काफी असपष्ट और अपर्याप्त हैं. ये धाराएं और कोर्ट मार्शल की कमजोर कानूनी प्रक्रियाएं ऐसी हैं कि उनके मामले एएफटी या ऊंची अदालतों की जांच में विफल हो जाते हैं.
सेना के कानून वक़्त से कदम मिलाकर चलने में विफल रहे हैं, खासकर यौन दुराचार के मामलों मे. जो भी हो, ये सौ साल से ज्यादा पुराने कानून हैं जिन्हें लगभग बिना परिवर्तन किए संसद से मंजूर कानून बना दाई गया है. वक़्त आ गया है कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस)/ सैन्य मामलों का विभाग (डीएमए) एक साझा आर्म्ड फोर्सेज़ एक्ट तैयार करें जिसमें यौन दुराचार के मामलों से, जो सेना की नैतिकता-अनुशासन- एकता को चोट पहुंचाते हैं, निबटने के विशेष प्रावधान हों.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा दी है. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादनः आशा शाह)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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