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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतआरे मामला: अदालत का हस्तक्षेप देखने में अच्छा है मगर नीयत का सच्चा नहीं

आरे मामला: अदालत का हस्तक्षेप देखने में अच्छा है मगर नीयत का सच्चा नहीं

संविधान के सहारे चलने वाले लोकतंत्र में अदालत का काम लोगों को सरकार की ज्यादती, बहुसंख्यकवाद की जकड़ और जनमत के दबाव से बचाना होता है.

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सर्वोच्च न्यायालय ने आरे वन-मामले में हस्तक्षेप किया है और मेरे पास अदालत के इस कदम की सराहना की पर्याप्त वजहें हैं. मैं कोई हार्ड-कोर पर्यावरणवादी नहीं हूं लेकिन मुझे इतना जरूर समझ में आता है कि कई विकास परियोजनाएं हमारे भविष्य के लिहाज से ठीक नहीं, उनके भीतर कुछ छिपे हुए खतरे हैं और हमें ऐसी विकास-परियोजनाओं की भविष्य में भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. कुछ चीजों पर आने वाले पीढ़ियों का अधिकार है और ये बात मुझे खूब समझ में आती है कि भावी पीढ़ियों को उनके अधिकार से हमें वंचित नहीं करना चाहिए. और, इसी नाते मुंबई मेट्रो के लिए पारिस्थितिकी के लिहाज से अत्यंत नाजुक इलाके में ‘रेड कैटेगरी’ (अत्यंत प्रदूषणकारी) रेलवे कारशेड बनाने के प्रस्ताव को अपने गले उतार पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं.

आरे वन-मामले को लेकर हो रहे संघर्ष से मेरा प्रत्यक्ष जुड़ाव है. मेरा संगठन और मैं इस रेड कैटेगरी के रेलवे कारशेड बनाने के प्रस्ताव के विरोध में पर्यावरणवादी कार्यकर्ताओं के साथ हैं. रातो-रात पेड़ों को काटने के लिए चले अभियान का विरोध कर रहे जिन 29 कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई है उसमें यूथ फॉर स्वराज के हमारे सहकर्मी श्रुति माधवन नायर और कपिल दीप अग्रवाल भी शामिल हैं. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को मुद्दे पर चिट्ठी लिखकर प्रसिद्ध हो चुके कानून के विद्यार्थी ऋषभरंजन भी हमारे स्वराज-परिवार के ही प्रिय सहकर्मी हैं. मुद्दे पर विरोध की जमीन और कानूनी लड़ाई की जमीन तैयार करने वाले अन्य कार्यकर्ता तथा वकीलों का हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. एक नागरिक के रूप में ये सभी गर्व के पात्र हैं.


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मुद्दे पर संघर्ष करे इन नौजवान कार्यकर्ताओं के लिए मेरे मन मे सराहना के भाव हैं और मेरे सोच में ये भी है चल रहा है कि काश! मसले पर सर्वोच्च न्यायालय के कदमों की मैं प्रशंसा कर सकता!

कोई अनजान सा नौजवान एक साधारण सी चिट्ठी लिखे और हमारी शीर्ष अदालत उस चिट्ठी के जवाब में कदम उठाने को तत्पर हो जाये- ये बात किसी किंवदन्ति सी जान पड़ती है. शीर्ष अदालत के ऐसे कदम न्यायपालिका पर नागरिकों का भरोसा पुख्ता कर सकते हैं. दरअसल होता तो यही आया है कि न्यायपालिका अपने दैनंदिन के काम से तनिक आगे बढ़कर कुछ करती दिखे तो हम उसके प्रति श्रद्धा से भरकर सिर नवाने लगते हैं, बशर्ते आपको ये पता ना हो कि ये वही अदालत और वही मुख्य न्यायाधीश हैं जो कर्तव्य-निर्वाह के लिहाज से प्राथमिक माने जाने वाले कुछ मामलों के लिए अपना कीमती समय नहीं निकाल सके. कश्मीर घाटी से आयी बंदी-प्रत्यक्षीकरण की अर्जियों पर देश की सर्वोच्च अदालत ने जिस तरह कदम पीछे खींचे हैं वो बेहद शर्मनाक है. ये किसी अनजान नौजवान की लिखी हुई अर्जियां नहीं हैं. ये विधि-विधान का पूरा पालन करते हुए लिखी हुई अर्जियां हैं और इन्हें विधि-विधान के हिसाब से ही अदालत में दायर किया गया है सो ऐसी अर्जियों पर विचार करना अदालत का पहला कर्तव्य बनता है. लेकिन अभी तक अदालत ने इन अर्जियों पर टालू रवैया अपनाया है या फिर अर्जियों की तरफ से मुंह फेर रखा है. यही अदालत जब आरे मामले पर लिखी गई अर्जी पर सुनवाई के लिए अपना वक्त निकाल लेती है तो मामला बड़े क्रूर किस्म के मजाक का जान पड़ता है.

सुप्रीम कोर्ट में गूंज रहा है सरकारी मत

हमारा लोकतंत्र संविधान पर आधारित है और संविधान पर आधारित लोकतंत्र में न्यायपालिका लोगों को मौजूदा सरकार की ज्यादती, बहुसंख्यकवाद की जकड़ और जनमत के दबाव से बचाने के निमित्त होती है. इन तीनों ही मोर्चे पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने संवैधानिक कर्तव्य के निर्वाह से चूक रहा है.

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कार्यपालिका के ताकतवर हाथों की कारगुजारियां सुप्रीम कोर्ट के भीतर किस हद तक दाखिल हो चुकी हैं- इसके तकरीबन रोज ही नये उदाहरण देखने को मिलते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के जजों को संविधान की हिफाजत हासिल होती है लेकिन ये जज एक निहायत ही संवेदनशील मामले से बिना कोई कारण बताये अपने को एक के बाद एक अलगाते चले गये. ऐसे में किसी के भी मन में सवाल कौंध सकता है कि क्या उस मामले में सुनवाई करना जजों को बहुत जोखिम भरा जान पड़ रहा था? देश के सबसे बेहतरीन जजों में एक को अपमानित करने के गरज से जब सरकार कॉलेजियम पर अपना जोर दिखाकर उसकी सिफारिशें बदलवा ले तो फिर आपको यह अहसास होना ही है कि अब न्यायपालिका की स्वतंत्रतता खतरे में है. एक जज अपने विरोध के इजहार के तौर पर इस्तीफा देता है और इसके तुरंत बाद उसके खिलाफ बदले की भावना से जांच शुरू हो जाती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस जज की हिफाजत नहीं कर पाता तो आपके आगे स्पष्ट हो जाता है कि अब कोई जज सुरक्षित नहीं.


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जहां तक बहुसंख्यकवाद का सवाल है, अयोध्या के राममंदिर मामले में जिस किस्म की चीजें होती जान पड़ रही हैं उससे देश के किसी भी नागरिक का चिन्तित होना स्वावभाविक है. अदालत के सामने सुनवाई के लिए मालिकाना हक के सवाल से जुड़ा एक बड़ा स्पष्ट मामला है कि जिस जगह पर कभी बाबरी मस्जिद खड़ी थी उस जगह का कानूनन किसे मालिक माना जाय ? लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समान ही सर्वोच्च न्यायालय ने भी सवाल से अलग तमाम किस्म की इधर-उधर की बातों जैसे प्रागैतिहास, मिथक, जन-भावना आदि में अपनी दिलचस्पी दिखायी है. क्या इसे मसले पर आने वाले एक असहज से फैसले का पूर्वसंकेत माना जाय ? अभी इस बाबत हम पूरी स्पष्टता से कुछ नहीं कह सकते. लेकिन अभी इतना तो दिख ही रहा है कि बीजेपी के नेताओं के मन में अयोध्या मामले में आने वाले अदालत के फैसले पर एकबारगी श्रद्धाभाव जाग गया है जबकि अयोध्या मामले को इन नेताओं ने कानून की हदों से बाहर का मामला माना था. बीजेपी की छुटभैये नेता कह रहे हैं कि अदालत इस बार हमारे साथ है. क्या ये नेता कुछ ऐसी बातें जानते हैं जो अभी हमारी जानकारी में नहीं हैं ? संयोग देखिए कि सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद को मिसमार करने के मामले में बीजेपी के एक नेता पर चल रहे मुकदमे पर फैसला मुल्तवी करते हुए तय किया है कि पहले फैसला अयोध्या मामले में सुनाया जायेगा.

जहांतक जनमत से निरपेक्ष रहते हुए किसी मसले पर सुनवाई करने की बात है, इसके उदाहरण के तौर पर आरे मामले को देखा जा सकता है. मेट्रो कारशेड के निर्माण को लेकर कानूनी लड़ाई तो 2015 से ही जारी है. तब वनशक्ति नाम के एक स्वयंसेवी संगठन ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में अर्जी डाली थी कि आरे को वनक्षेत्र घोषित किया जाय. राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण तथा बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाला एक विशेष लीव पिटीशन सुप्रीम कोर्ट में 2018 से ही लंबित है. लेकिन आरे वाला मामला बस बीते हफ्ते सुर्खियों में आया है. इस मामले को मध्यवर्ग का साथ (जिसे उचित कहा जायेगा) मिला है और नामचीन हस्तियों का सहारा भी (जो स्वयं में स्वागत योग्य है). ये बातें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जोर लगाने के बाद हुई हैं. न्यायपालिका भी मसले पर सक्रियता दिखा रही है. लेकिन यह कोई निराली बात नहीं, ऐसा पहले भी हो चुका है. मीडिया तुल जाये और मध्यवर्ग उसके साथ हो ले तो फिर न्यायपालिका का ध्यान मसले पर जाता ही है- किसी मुद्दे पर अदालत का ध्यान खींचने का यह सुनिश्चित तरीका है. ऐसे कुछ मामलों में भले ही कुछ अच्छे नतीजें आ जायें लेकिन ये चलन चिन्ताजनक ही कहलाएगा.

आरे मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप को लेकर मेरी परेशानी ये कत्तई नहीं कि अदालत का इस मसले में दखल देना अनुचित है. मेरी परेशानी ये भी नहीं है कि ये हस्तक्षेप दिखावे भर के लिए था क्योंकि आरे मामले में जो नुकसान होना था वो तो हो चुका था. दरअसल मुझे परेशानी इस बात की है कि फिलहाल जो कुछ सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, उसे पूरे संदर्भ में देखते हुए आरे मामले में उठाया गया अदालती कदम वाहवाही लूटने की एक कच्ची कोशिश से ज्यादा नहीं जान पड़ता. और, ये बात प्रासंगिकता तो नहीं लेकिन अभी विश्वसनीयता को तेजी से खोते जा रहे एक संस्थान (अदालत) के लिए मारक हो सकती है.

(लेखकराजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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