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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतमोदी-शाह असम में उन लपटों से खेल रहे हैं जो हिंदू-मुसलमान में फर्क नहीं करती

मोदी-शाह असम में उन लपटों से खेल रहे हैं जो हिंदू-मुसलमान में फर्क नहीं करती

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भाजपा के लिए 2019 में असम एक मुख्य मुद्दा बनकर उभरने वाला है। लेकिन यह ज़हरीली आग हिंदुओं को भी नहीं बख़्शेगी

ैं आपको रवांडा की कहानी नहीं सुनाने वाला। विकिपीडिया आपको वह जानकारी मुझसे बेहतर दे सकता है। 35 वर्ष पहले, नेली में हुए नरसंहार की कहानियां सुनाने के लिए भी आपको मेरी ज़रूरत नहीं। ये सब हमारे राजनैतिक लोक-साहित्य का एक हिस्सा बन गयी हैं। आइये मैं आपको कुछ अन्य जगहों के बारे में बताता हूँ जो इतनी प्रसिद्ध नहीं: खोइराबाड़ी, गोहपुर एवं सिपाझाड़। आज जब नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस को लेकर हो रही बहस में ध्रुवीकरण का बोलबाला है, वैसे में हमें ब्रह्मपुत्र के उत्तरी छोर पर बसी इन जगहों को याद रखना चाहिए।

ब्रह्मपुत्र घाटी में 1983 के नरसंहार में लगभग 7,000 लोग मारे गए। इनमें से 3,000 से अधिक मुसलमानों को कुछ ही घंटे पहले, 18 फरवरी की सुबह को नेल्ली में कत्ल कर दिया था। बाकी सभी हर जगह फैले थे, और ज्यादातर मुस्लिम। हमने जिन तीन स्थानों का उल्लेख किया, वहाँ मरने वाले अधिकांश हिन्दू थे और उनकी मौत भी अपने हिन्दू भाइयों के हाथों ही हुई थी

फिर आखिरकार हिंदुओं ने हिंदुओं का नरसंहार क्यों किया जब गुस्सा “विदेशी नागरिकों” (यानि कि मुस्लिम) के खिलाफ था।

 

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पूर्वोत्तर की ज्यादातर चीजों की तरह, यह कहानी भी काफी जटिल है। आइये इसे परत दर परत खोलते हैं। हमलावर हिन्दू असमिया भाषी थे और जिनकी हत्या हुई वह बांग्लाभाषी। भाषाई और जातीय नफरत सांप्रदायिक रक्तपात से कम भीषण नहीं थी। जहां यह दोनों चीज़ें एक साथ मिल गयीं (उदाहरण के तौर पर नेल्ली के बंगाली, मुस्लिम इलाके) वहां तस्वीर ज़्यादा साफ है क्योंकि यहां असमिया हिंदुओं ने बंगाली मुस्लिमों की हत्या की। हर कोई दूसरे की जान लेने पर तुला था। भाजपा और अब सुप्रीम कोर्ट ने उसी भयानक खिचड़ी को फिरसे आंच दी है।

ार मिलियन लोग एनआरसी के अंतिम ड्राफ्ट में जगह बनाने में नाकाम रहे हैं। भाजपा देश की सरकार के रूप में बोल रही है या एक पार्टी के रूप में , इस बिना पर उन्हें अलग-अलग वर्णित किया गया है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं कि यह केवल पहला अंतरिम मसौदा है। अमित शाह उन्हें संसद में “घुसपैठिए” कहते हैं। यदि आप इस सूची में हों तो आप इसे पढ़कर कैसा महसूस करेंगेे? आपको लगेगा कि आप निशाने पर हैं।

असम के वित्त मंत्री (और असल में मुख्यमंत्री भी, कभी भी नाम पर नहीं जाना चाहिये) हिमंता बिस्वा शर्मा ने हमें बताया कि 40 लाख की इस आबादी का कम से कम एक तिहाई हिस्सा हिन्दू है। भाजपा का सुझाया समाधान: नया नागरिकता बिल जिसके अनुसार पड़ोसी देशों के हिंदुओं और सिखों को एक आदर्श मानदंड के रूप में भारतीय नागरिकता दी जाएगी। अगर यह कानून पास भी हो जाये फिर भी “स्वदेशी” असमिया नागरिकों की इस बाबत प्रतिक्रिया देखने योग्य होगी। उन्हें इन बंगालियों, मुस्लिमों एवं हिंदुओं के साथ मिलकर रहने की कोई इच्छा नहीं। याद रखियेगा कि 1983 में दोनों ही समुदाय उनके निशाने पर थे। हालांकि प्रफुल्ल कुमार महंता, जोकि असम के पूर्व मुख्यमंत्री रहने के अलावा असम गण परिषद के अध्यक्ष और अब जूनियर भाजपा सहयोगी हैं , वे पहले से ही इस पर असहमति व्यक्त कर चुके हैं।


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कयास लगाए जा रहे हैं कि इन 4 मिलियन लोगों में से आधे मिलियन आखिरी गिनती में अपना स्थान नहीं बना पाएंगे। इस प्रक्रिया में एक विसंगति है जो बरक़रार नहीं रह सकती। गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने अपने ज्ञान में “स्वदेशी” मांग को या कहकर मान्यता दी है कि गांव पंचायतों द्वारा दिए गए प्रमाणपत्र को नागरिकता के सबूत के रूप में नहीं माना जाएगा। आखिर ये गरीब कौन सा दूसरा प्रमाण ला सकते हैं क्योंकि आधार की सुविधा भी उस वक़्त नहीं ही थी। राज्य सरकार ने इसके खिलाफ अपील नहीं की। दरअसल इससे सारा मज़ा किरकिरा हो जाता। किसी और ने सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दी। सुप्रीम कोर्ट उच्च न्यायालय के आदेश को मंजूरी तो नहीं दी, लेकिन उच्च न्यायालय से उन मानदंडों को तैयार करने के लिए कहा गया, जिनके लिए पंचायत प्रमाण पत्र वैध होंगे। इसी भ्रम में सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी की तैयारियों को लेकर हड़बड़ी मचा दी। यदि इन प्रमाणपत्रों पर सही तरीके से विचार किया जाए तो शायद ही कोई “एलियन” बचेगा। भाजपा को यह कतई मंज़ूर नहीं।

अदालत ने 1985 में हुए राजीव-एएसयूयू / एएजीएसपी शांति समझौते की भावना का ध्यान रखा। इस समझौते में 25 मार्च 1971 को नागरिकता के लिए एक कट ऑफ वर्ष मानकर एक एनआरसी का वादा किया था।

इसका मतलब यह कि जो कोई भी उस तारीख से पहले भारत आया था वह एक वैध नागरिक होगा। यह इंदिरा-मुजीब समझौते पर आधारित था, जिसके अनुसार बांग्लादेश भारत में बसे अपने एक करोड़ के आसपास शरणार्थियों को वापस लेने पर सहमत हो गया था। इनमें से लगभग 80 प्रतिशत हिंदू थे। इंदिरा गांधी चाहती थी कि वे सब वापस लौट जाएं, चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम।

33 साल पहले, 1985 में राजीव ने असम में आंदोलनकारियों के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए थे और इस आधार पर एनआरसी के अनुपालन का वादा भी किया था। कई कारणों से यह एनआरसी आजतक बनकर तैयार नहीं हो पाई। तब से अब तक दो पीढ़ियाँ गुज़र चुकी हैं। क्या आप अब उन्हें निर्वासित या बेदखल कर सकते हैं? भाजपा भी जानती है कि यह असंभव है।

गर कोई भाजपा का आदमी आपको कहे कि इसमें कोई राजनीति नहीं तो आप उनसे यह ज़रूर पूछें कि क्या उन्होंने अमित शाह का भाषण नहीं सुना? हालांकि उन्हें पारदर्शिता के लिए पूर्ण अंक दिए जाने चाहिए क्योंकि उन्होंने 201 9 अभियान के लिए अपनी पिच खुलकर रखी थी। चूंकि “विकस” के दावे हमेशा उनके वादों से कम मोहक होते हैं इसलिए “राष्ट्रवादी” ध्रुवीकरण ही भाजपा को दूसरे कार्यकाल तक ले जा सकता है। असम में मुद्दा तब तक उबलता रहेगा। भाजपा लाखों लोगों को घुसपैठिये के नाम से बुलाएगी। निहितार्थ यह, कि हर बंगाली भाषी मुस्लिम घुसपैठिया है।


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वाम बौद्धिक ऐसे लोगों का समर्थन अवश्य करेंगे और “सेकुलर” विपक्ष को भी दबाव में वैसा ही करना होगा। भाजपा यह उम्मीद कर रही है कि वीएएस इसे घुसपैठियों के समर्थन के रूप में जनता के सामने पेश करेगी। सबटेक्स्ट होगा: वे मुस्लिम समर्थक और राष्ट्र विरोधी हैं। कांग्रेस यह जाल देख तो रही है लेकिन अभी इसका कोई तोड़ नज़र नहीं आता। अगर 2019 का चुनाव मुस्लिमों के मुद्दे (पक्ष या विपक्ष, फर्क नहीं पड़ता) पर लड़ा गया तो मान लीजिए कि भाजपा का जीतना तय है।

असम अमित शाह के लिए दरअसल एक ऐसी सीटी की तरह है जिसे बजाते ही पूरे देश के वफादार राष्ट्रवादियों का खून उबालें मारने लगता है। अमित शाह और भाजपा अपनी चुनावी राजनीति को हमसे बेहतर समझती है। लेकिन क्या वे असम को जानते हैं?

मैं आपको आज से 35 साल पहले के गुवाहाटी में ले चलता हूँ जहाँ मैं नंदन होटल के एक छोटे से कमरे में ठहरा था । मुझसे मिलने आये चारों सज्जनों के आसपास नम्रता के साथ साथ शक्ति की एक आभा थी। वे भी उलझन में थे। नेता के.एस. सुदर्शन थे जो आगे जाकर आरएसएस के “बौद्धिक प्रमुख” बने । वह आगे सरसंघचालक भी बने।

बाकी लोगों में से दो आरएसएस के उत्तरपूर्व “विशेषज्ञ” थे और फिलहाल संघ एवं भाजपा में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि आखिर उस महीने की शुरुआत में असम में भड़के दंगों में इतने हिंदुओं की जानें कैसे गयीं। क्या ये असमिया लोग “मुस्लिम घुसपैठियों और हिन्दू शरणार्थियों” के बीच के अंतर से अंजान थे? सुदर्शन समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर खोइराबाड़ी में इतने हिन्दू कैसे मारे गए। मैंने उन्हें जितना हो सका, असम की भाषायी और जातीय जटिलताओं के बारे में बताया। एक अत्यंत क्रूर तरीके से यह नरसंहार बिल्कुल सेकुलर था। इसके जवाब में सुदर्शन ने कहा, “किन्तु हिन्दू तो अरक्षित है”

यह वार्तालाप मेरी 1984 में छपी किताब, असम:ए वैली दिवाईडेड में दर्ज है इसके बाद आरएसएस ने असमिया आंदोलनकारियों को फिर से शिक्षित करने के लिए एक धैर्यपूर्ण अभियान शुरू किया। आखिरी असेंबली चुनाव, जैसा कि मैंने अपने ‘राइटिंग ऑन द वॉल’ में लिखा था, इसकी सफलता की ट्रॉफी थी। वर्तमान में असम भाजपा का अधिकांश हिस्सा दूसरे दलों (पहले एएएसयू और बाद में एजीपी) से आये लोगों का है। मुख्यमंत्री एवं उनके शक्तिशाली सहयोगी भी इसी श्रेणी में आते हैं।

लेकिन जैसा कि उन्होंने 1983 में अपनी जवानी में किया था, वे फिर से आरएसएस / बीजेपी की शर्तों पर बनी एनआरसी बनाने में असमर्थ ही होंगे। भाजपा चाहती है कि हिंदुओं को गले लगाकर बंगाली मुस्लिमों को निशाना बनाया जाए। । भाजपा ने असम को 2019 के चुनाव की कुंजी के रूप में इस्तेमाल करने का फैसला किया है। जैसा कि नोटबन्दी ने हमें दिखाया, शाह-मोदी दोनों बड़े जोखिम ले सकते हैं। हालांकि राजनीतिक लाभ के लिए आर्थिक नुकसान का खतरा उठाना एक बात है, जटिल असम में पुरानी आग को भड़काना बिलकल अलग। यह संभव है कि कोई गड़बड़ी न हो लेकिन अगर कुछ भी होता है तो यह फिरसे हिन्दू बनाम मुस्लिम और असमिया बनाम बंगाली (हिन्दू या मुस्लिम) होगा। हिन्दू भी आपस में लड़ेंगे और मुस्लिम भी।

Read in English : Amit Shah & Modi are playing with a fire that doesn’t distinguish between Muslim & Hindu

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