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Friday, 19 April, 2024
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कैसे अरुण जेटली ने मोदी को समलैंगिकता पर रूख नर्म करने के लिए किया राज़ी

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अरुण जेटली पिछले कुछ समय से अपनी पार्टी के विपरीत धारा 377 को ख़त्म करने के लिए बयान देते रहे हैं

शुक्रवार को होनेवाली बहस में इस औपनिवेशिक काल के क़ानून के पक्ष में दलीलें सुनी जाएंगी। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस धारा के समर्थन में याचिका दायर करनेवाले हर व्यक्ति को अपनी राय रखने के लिए पांच मिनट (सारी याचिकाओं को मिलाकर डेढ़ घंटे ) का समय दिया है।

गर हल्ले गुल्ले को छोड़ दें तो फैसला करीब करीब हो चुका है। केंद्र ने एडिशनल सोलोसिटर जेनरल तुषार मेहता के माध्यम से अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है। इस बात की पूरी सम्भावना है की सुप्रीम कोर्ट आपसी सहमति से किये समलैंगिक सेक्स को क़ानून की सीमा से बाहर कर दे। ऐसी सूरत में मोदी सरकार इस फैसले का विरोध नहीं करेगी।

आखिर सरकार इस नतीजे पर पहुंची कैसे ? पाँच साल पहले की बात है जब 2013 में भाजपा नेता और वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि उनकी पार्टी किसी सूरत में समलैंगिकता को विधिसम्मत बनाने का समर्थन नहीं करेगी। फिर आखिर पिछले हफ्ते ऐसा क्या हुआ जिसके कारण भाजपा ने बदलते सामाजिक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए इस मुद्दे पर अपने पक्ष को नरम किया ?

जवाब है अरुण जेटली। बिना किसी विभाग के मंत्री बने रहनेवाले जेटली पार्टीलाइन के खिलाफ जाकर धारा 377 को ख़त्म करने के पक्ष में हैं। उनका मानना है कि नागरिकों के शयनकक्ष में सरकार का दखल नहीं होना चाहिए।

पिछले कुछ दिनों से जेटली चिकित्सकीय कारणों की वजह से लोक- सम्बन्धी कार्यक्रमों से दूर रहे हैं। उसके बावजूद जेटली ने भाजपा के वरीय नेताओं से इस दिशा में सोचने का आग्रह किया है।

एक सूत्र के मुतबिक , “इस विचार विमर्श में प्रधानमंत्री कार्यालय शामिल है, यहाँ तक कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी भी।

जेटली ने यह ज़रूर याद दिलाया होगा कि मार्च 2016 के इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में आर एस एस के वरीय नेता दत्ता होसबले ने कहा था कि आपसी सहमति से हुए समलैंगिक यौनाचार / सेक्स को जुर्म की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए।

संभव है कि प्रधानमंत्री ने महसूस किया कि इस मुद्दे पर वैश्विक समुदाय की निगाहें टिकी हैं। पिछले चार वर्षों के दौरान मोदी ने कई देशों के दौरे तो किये ही हैं, वे आगामी ब्रिक्स एवं जी -20 शिखर सम्मलेन के दौरान भी कई देशों के नेताओं से मुलाकात करेंगे. इन नेताओं में से कई का मानना है कि आपसी सहमति से किया समलैंगिक यौनाचार सामान्य है.

भारत का पक्ष इस मामले में लगातार अप्रासंगिक होता जा रहा था। धारा 377 जैसे काले क़ानून की तरफदारी बिलकुल संभव नहीं थी। स्वयं ब्रिटेन, जिसने वर्ष 1861 में इस नियम (1533 के बगरी ऐक्ट के जैसा ) को लागू किया था, कबका आगे बढ़ चुका है।

इसके अलावा जनता की राय सुनना भी ज़रूरी था। अगर भाजपा इस चुनाव में स्वयं को एक ऐसी पार्टी के रूप में दिखाना चाहती थी जो लोगों की मांगों को ध्यान में रखती हो तो इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता था.

इन सबसे ऊपर, भाजपा के पास कॉंग्रेस को नीचा दिखाने का मौका था। राहुल गाँधी और उनके समर्थक आज चाहे धारा 377 को लेकर जितना भी शोरगुल मचा लें , यू पी ए की सरकार ने इस पुरातन नियम को ख़ारिज करने के लिए संशोधन की मांग तब क्यों नहीं उठाई जब समीक्षा याचिका ख़ारिज हो चुकी थी ?

यह सच है कि होसबले ने यह भी कहा था कि धारा 377 के हटाए जाने के बाद समलैंगिक विवाह नहीं होने चाहिए। उनका मानना था कि विषमलिंगी विवाह ही पवित्र एवं सामाजिक रूप से वैध हैं। आर एस एस ने तब भी अपनी परंपरागत मान्यता को बरकरार रखा जिसके मुताबिक़ समलैंगिक प्रेम विदेशों से आयातित है और यह परंपरागत भारतीय संस्कारों के लिए एक खतरा है।

पिछले कुछ दिनों में भाजपा सरकार ने इस मुद्दे पर विचार विमर्श किया है और सूत्रों के अनुसार यह साफ है कि

” भाजपा का विकास हुआ है ”

एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को मध्यममार्ग अपनाने का निर्देश मिला है जोकि अपने आप में रोचक है।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वे इस मामले के सीमित जनादेश पर बात करेंगे। इससे साफ़ पता चलता है कि सरकार आपसी सहमति से बनाये गए समलैंगिक यौन संबंधों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जुर्म की श्रेणी से हटाए जाने के पक्ष में है। हालाँकि यह भी सच है कि सरकार का मानना है कि यह मुद्दा आगे नहीं बढ़ना चाहिए , कम से कम विवाह या उत्तराधिकार सम्बन्धी बातें तो नहीं ही होनी चाहिए।

मेहता की टिप्पणी पार्टी के साथ साथ प्रधानमंत्री की सोच को भी प्रदर्शित करती है।

हालाँकि यह कोई नहीं कह सकता कि ऊँट किस करवट बैठेगा। यह भी संभव है कि सुप्रीम कोर्ट याचिकाओं को पढ़ने तक सीमित न रहकर धारा 14 , 15 , 19 एवं 21 ( कानून के समक्ष समानता का अधिकार ;धर्म, जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव से स्वतंत्रता भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) पर अपना फैसला सुना दे। ऐसी हालत में धारा 377 का खारिज होना तो तय है ही, एलजीबीटीक्यू समुदाय को बाकी मूल अधिकार मिलने की भी सम्भावना है।

सुप्रीम कोर्ट के ऐसा क्रन्तिकारी कदम उठाने की सूरत में भाजपा इसे स्वीकार करेगी। भाजपा अपने मूल वोट बैंक, दक्षिणपंथी वोटरों को यह कहकर चुप करा सकती है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कैसे विरोध किया जा सकता है।

यही कारण है कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का धारा 377 के मामले में मध्यम मार्ग अपनाना एक बुद्धिमत्तापूर्ण कदम है। इस मामले पर भाजपा का अपनी राय ज़ोर शोर से ज़ाहिर नहीं ज़िम्मेदारी से भागने के रूप में भी देखा जा सकता है। यह राजनैतिक पैंतरा निश्चय ही भाजपा के पक्ष में काम करेगा।

इस मामले में मोदी अपनी पीठ थपथपा सकते हैं।

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