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Wednesday, 24 April, 2024
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इंसेफेलाइटिस से जूझ रहे बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं का सच: 28,392 मरीजों पर 1 डॉक्टर

ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 50 प्रतिशत भारतीयों को निजी स्वास्थ्य सेवाओं का विकल्प चुनना पड़ता है क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अपर्याप्त है.

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नई दिल्ली: बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम यानी (एईएस) के प्रकोप से तीन सप्ताह से कम समय में 145 बच्चों की मौत हो चुकी है. यह 2014 के बाद से राज्य का सबसे खराब स्वास्थ्य संकट है, जब 355 बच्चों की मौत हो गई.

इसका प्रकोप की शुरुआत तिरहुत प्रमंडल में जून में शुरू हुई. इस त्रासदी का केंद्र बना मुजफ्फरपुर. जहां अब तक 127 मौतें हो चुकी हैं. इंसेफेलाइटिस से प्रभावित अन्य जिले हैं पश्चिम चंपारण, पूर्वी चंपारण, वैशाली और सीतामढ़ी.

बिहार में आई इस आपदा ने राज्य के सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा ढांचे को लाइमलाइट में ला दिया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल रिपोर्ट से बिहार के स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की स्थिति स्पष्ट है, जिससे पता चलता है कि राज्य का देश में सबसे खराब डॉक्टर-मरीज अनुपात है. प्रत्येक डॉक्टर 28,392 लोगों की सेवा करता है. केवल यही नहीं, राज्य पिछले सात वर्षों में केवल 3,179 डॉक्टरों को ही जोड़ पाया. इस दर से, बिहार को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक, प्रति 1,00,000 लोगों पर 62 डॉक्टर, को पूरा करने में 140 साल लगेंगे.

बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं का भविष्य भी अंधकारमय दिखता है. बिहार में  सिर्फ 13 मेडिकल कॉलेज हैं. 11 करोड़ आबादी वाला बिहार देश का तीसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला राज्य है. लेकिन वहां के 13 मेडिकल कॉलेजों में कुल 1350 सीटे हैं. जो कि देशभर की 56,838 सीटों के 3 प्रतिशत से भी कम है.


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विशिष्टताओं के बिना अस्पताल

ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 50 प्रतिशत भारतीयों को निजी स्वास्थ्य सेवाओं का विकल्प चुनना पड़ता है क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अपर्याप्त है. लैंसेट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, हेल्थकेयर खर्च हर साल 39 मिलियन लोगों को गरीबी में धकेल देता है.

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हालांकि, एईएस से पीड़ित बच्चों के लिए, मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों में भी यह विकल्प सीमित था.

आयुष्मान भारत (केंद्र सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना) की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, मुजफ्फरपुर में इसके तहत 28 अस्पताल हैं. इनमें से 18 सार्वजनिक अस्पताल हैं, लेकिन इनमें से किसी में भी सामान्य चिकित्सा, बाल चिकित्सा प्रबंधन और आपातकालीन कक्ष पैकेज जैसी बुनियादी विशेषता सेवाएं नहीं हैं.

अन्य 10 अस्पतालों में ये बेसिक सुविधाएं हैं, लेकिन उनमें से आठ लाभकारी अस्पताल हैं. यह अन्य इंसेफेलाइटिस प्रभावित जिलों में एक समान कहानी है. वैशाली में आयुष्मान भारत के तहत सूचीबद्ध 18 सार्वजनिक अस्पताल हैं, जबकि शहर के पास चार, चंपारण के 20 और सीतामढ़ी के 21 हैं. लेकिन कोई भी बुनियादी विशेषता नहीं है, अकेले ही इंसेफेलाइटिस से निपटने के लिए आवश्यक बाल चिकित्सा सेवाएं दें.

ओवरबर्डन सिस्टम

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की वेबसाइट के अनुसार, बिहार में 10,337 स्वास्थ्य उप-केंद्र हैं, स्वास्थ्य व्यवस्था में लोगों के लिए संपर्क का यह पहला केंद्र है जिसमें कुल 11,612 कार्यकर्ता हैं. हालांकि, इन केंद्रों में से 3,325 में कोई भी स्वास्थ्य कर्मचारी नहीं है.

हेल्थकेयर से जुड़े अन्य पहलुओं पर गौर करें तो, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, ऐसी ही कहानी बताते हैं. बिहार में 1,883 पीएचसी हैं, जिनमें से प्रत्येक को 100 गांवों में लगभग एक लाख लोगों को कवर करना है. हालांकि, इन पीएचसी पर सेवारत डॉक्टरों की कुल संख्या सिर्फ 2,078 है. जबकि वास्तविकता यह है कि लगभग 75 प्रतिशत पीएचसीज में केवल एक डॉक्टर हैं.

बेड ऑक्यूपेंसी रेट और ‘अस्पताल में रहने का समय’ दो अन्य उपाय हैं जो अस्पतालों की कार्यात्मक क्षमता को दर्शाते हैं. पूर्व उपलब्ध बिस्तर क्षमता के इस्तेमाल एक उपाय है, और एक वर्ष में रोगियों द्वारा कब्जा किए गए बेड के प्रतिशत की ओर इशारा करता है.

बिहार के मुजफ्फरपुर में सबसे अधिक 329 प्रतिशत बेड ऑक्यूपेंसी रेट है. भागलपुर (181 प्रतिशत) और मधेपुरा (159 प्रतिशत) दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं.  इसका मतलब है कि मुज़फ़्फ़रपुर में हर अस्पताल के बिस्तर पर औसतन, एक ही समय में हर बिस्तर पर तीन से अधिक मरीज़ थे.

बिहार के जिलों में स्थानीय स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव का अनुमान राज्य सरकार द्वारा जारी 2019 के आर्थिक सर्वेक्षण से भी लगाया जा सकता है. खगड़िया, मधेपुरा और मुज़फ़्फ़रपुर जिलों में क्रमशः 489, 449 और 443 पर प्रतिदिन अस्पतालों में जाने वाले रोगियों की संख्या सबसे अधिक थी. डॉक्टरों की कमी के साथ, यह एक आपदा होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

एक और पहलू जो मुजफ्फरपुर के बच्चों को निराश करता है, वह आशा कार्यकर्ताओं की कमी थी. ये श्रमिक ऐसी आपदाओं को रोकने में जागरूकता फैलाकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, लेकिन मुजफ्फरपुर में, केवल 3,880 आशा कार्यकर्ता ही हैं, जो 4,510 के लक्ष्य से बहुत कम हैं.  चिकित्सा आवश्यकताओं में वृद्धि के बावजूद लक्ष्य को 2015 से संशोधित नहीं किया गया है.


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गंभीर कुपोषण का प्रभाव

इन्सेफेलाइटिस से पीड़ित कुपोषित बच्चों में ग्लूकोज स्तर में एक गंभीर गिरावट देखी जा सकती है. हीट वेव और शुद्ध भोजन न मिलने के कारण बच्चे डिहाइड्रेशन का शिकार हो जाते हैं.

डाउन टू अर्थ द्वारा किए गए शोध के अनुसार लीची नमक फल में मिथाइलीनसाइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसिन (एमसीपीजी ) विष एक कुपोषित बच्चे द्वारा सेवन किए जाने पर ब्लड शुगर लेवल में गिरावट का कारण बन जाता है, जो वर्तमान बीमारी फैलने का कारण भी हो सकता है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चला है कि मुजफ्फरपुर और इसके आसपास के जिलों में पांच साल से कम उम्र के लगभग आधे बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं. मुजफ्फरपुर में 42.3 प्रतिशत कुपोषित बच्चे हैं, जिनमें पश्चिम चंपारण के 39.1 प्रतिशत और सीतामढ़ी के 47.7 प्रतिशत के साथ सबसे खराब है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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