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Tuesday, 16 April, 2024
होमदेशअपने मृत बेटे को दफना नहीं सके पद्मश्री पुरस्कार विजेता और फिर टूटे दिल से उन्हें मिला एक नया मिशन

अपने मृत बेटे को दफना नहीं सके पद्मश्री पुरस्कार विजेता और फिर टूटे दिल से उन्हें मिला एक नया मिशन

मोहम्मद शरीफ ने कोविड की दूसरी लहर सहित 5,000 से अधिक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार किया है. अब इस पद्म श्री पुरस्कार विजेता को अतिरिक्त मदद की जरूरत है.

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अयोध्या/फैजाबाद: अयोध्या पुलिस लाइन क्षेत्र में स्थित मोहल्ला खिरकी अली बेग इलाके की एक संकरी लेकिन साफ-सुथरी पक्की गली, एक मामूली घर की ओर ले जाती है. नीली रंग से ताजी रंगी दीवारों और इस पर लगी एक छोटी सी पट्टिका जिस पर हिंदी में लिखा है कि यह ‘पद्म श्री मो. शरीफ का घर है’ को छोड़कर यह घर काफी साधारण सा दिखता है.

इस किराए पर लिए गए आवास, जिसमें परिवार के 15 सदस्य रहते हैं, के अंदर का महौल अभी भी काफी उत्साहपूर्ण था. हालांकि 85 वर्षीय मोहम्मद शरीफ जिन्हें प्यार से शरीफ चाचा के नाम से जाना जाता है, को दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में आयोजित शानदार पद्म पुरस्कार समारोह में शामिल हुए कुछ सप्ताह हो चुके हैं.

लावारिस या परित्यक्त शवों का अंतिम संस्कार करने प्रति उनके समर्पण भाव लिए अस्सी के दशक की आयु के इन उम्रदराज़ शख्स को 2020 में भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान, पद्म श्री, से सम्मानित किया गया था लेकिन कोविड प्रतिबंधों के कारण वो इसे इस वर्ष प्राप्त करने में सक्षम हो सके. साइकिल मैकेनिक से सामाजिक कार्यकर्ता बने मोहम्मद शरीफ ने अब तक 2,500 मुसलमानों और 3,000 हिंदुओं को यह सुनिश्चित करते हुए दफनाया या उनका अंतिम संस्कार किया है कि कम से कम मौत के बाद में उनकी गरिमा कायम रहे.

इसी घर के एक कोने में 15 बटा 15 फ़ीट के कमरे में अपने बिस्तर पर बैठे शरीफ चाचा ने अपने काले नेहरू जैकेट पर पद्म श्री पदक को गर्व से धारण किया हुआ है. उनके बगल में पद्म श्री स्क्रॉल (पत्रावली) और राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद द्वारा हस्ताक्षरित उद्धरण चिह्न रखे थे. शरीफ ने दिप्रिंट को एक चौड़ी सी मुस्कान के साथ बताया, ‘अब तो दिल्ली तक से लोग आ रहे हैं.’ साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि वह और उनका परिवार अभी भी कठिनाई में ही जी रहे हैं.


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शोक से शुरू हुआ एक समर्पित मिशन

अपने जीवन के ज्यादातर हिस्से के दौरान शरीफ ने एक साधारण, मेहनती जीवन जीया और घर चलाने के लिए साइकिल मरम्मत का काम किया. उनके लिए उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ 28 साल पहले तब आया जब उनका एक बेटा, 25 वर्षीय मोहम्मद रईस, पास के जिले सुल्तानपुर गया लेकिन कभी वहां से वापस लौटा हीं नहीं. कई हफ्तों तक सारे परिवार ने उसकी तलाश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

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इसके बाद जो कुछ भी हुआ उसे याद करते हुए शरीफ की आंखों में आंसू आ गए. वो कहते हैं ‘एक महीने बाद, एक पुलिसवाला आया और उसने हमें एक शर्ट दिखाई जो मेरे बेटे की निकली.’ परिवार वालों का मानना है कि रईस की हत्या की गई थी. वो कहते हैं ‘पुलिसवाले ने बताया कि उसकी लाश लावारिस समझकर गोमती नदी में फेंक दी गई थी.’

यह वह लम्हा था जब शरीफ ने जितना हो सके लावारिस शवों को सम्मानजनक विदाई देने की कसम खाई थी.

शरीफ ने दिप्रिंट को बताया, ‘उसी दिन मैंने तय किया था कि मैं फैजाबाद में किसी भी लावारिस लाश को सड़ने नहीं दूंगा चाहे फिर किसी भी धर्म की क्यों न हो. मैंने हिंदू लोगों को हिंदू प्रथा के हिसाब से अलविदा कहा और मुस्लिम को उनके तरीके से.’

अब एक व्यवस्था सी बन गई है अगर 72 घंटे के बाद भी कोई शव लेने का दावा नहीं करता है तो स्थानीय प्रशासन उसे शरीफ को सौंप देता है. उनके अंतिम संस्कार के लिए शरीफ दुकानदारों और उनके काम में विश्वास करने वाले अन्य लोगों से चंदा इकट्ठा करते हैं.

उन्होंने आपातकालीन मामलों के लिए अपने बिस्तर के नीचे रखे कपड़ों और कफन की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘कई बार मुझे रात के 2 बजे भी अस्पताल या पुलिस से फोन आते हैं.’

बहिष्कार से लेकर पुरस्कारों तक  

अब उनके पास सामाजिक स्वीकृति और सम्मान दोनों है लेकिन शरीफ के अनुसार 15 साल पहले चीजें काफी अलग थीं. उस समय लोगों ने उन्हें सामाजिक समारोहों में बहिष्कृत कर दिया था और कई बार उनके साथ खाने से भी इनकार कर देते थे. उन्होंने कहा, ‘मैंने शवों को श्मशान घाट तक ले जाने के लिए ठेले खरीदे.’ उन्होंने याद करते हुए यह भी कहा कि लोग उन्हें ‘पागल‘ कहते थे और कहते थे, ‘देखो जल्लाद आया.’

शरीफ ने अब तक हजारों लोगों का अंतिम संस्कार किया है लेकिन वह जितना हो सके उतना रिकॉर्ड रखते हैं. उन्होंने दिप्रिंट को दाह संस्कार (या दफनाए जाने) से पहले किए जाने वाले रीति-रिवाजों को करते हुए खुद की तस्वीरें दिखाईं और एक पुराने कपड़े के थैले से कई एल्बम निकाले जिनमें गुमनाम मृतकों की तस्वीरें थीं. इनमें से कुछ का अत्यंत हिंसक अंत हुआ था. इन तस्वीरों को देखना कठिन था और उनमें से कई वीभत्स भी थे.

शरीफ ने कहा, ‘लोग तो नाक बंद कर लेते हैं लेकिन मुझे उन्हें देखकर घृणा नहीं होती. मैं सुकून महसूस करता हूं कि इन लोगों में से कोई भी इस दुनिया से उस तरह विदा हुआ, जिस तरह से मेरा बेटा गया था.’

शरीफ के प्रयासों को पिछले कुछ वर्षों के दौरान मान्यता मिली है. 2009 में, उन्हें मुंबई में रियल हीरोज अवार्ड दिया गया और 2012 में टीवी शो सत्यमेव जयते में भी इसके बारे में दिखाया गया. उनके जीवन पर ‘राइजिंग फ्रॉम द एशेज‘ शीर्षक से एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई गई है.

हालांकि, पिछला साल शरीफ के ऊपर काफी भारी पड़ा है.

कोविड के दिनों के तनाव

शरीफ ने दिप्रिंट को बताया कि इस साल की शुरुआत में कोविड की दूसरी घातक लहर के दौरान लावारिस और लोगों द्वारा छोड़ दिए गए शवों की संख्या काफी बढ़ गई थी.

शरीफ ने कहा, ‘भय का माहौल था. परिवार के परिवार लाशों को छोड़ रहे हैं. पहले तो लावारिस लाशें मिलती थी लेकिन अप्रैल में तो वारिस के परिवार वाले भी सामने नहीं आए.’ उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने 35 से अधिक ऐसे लोगों का अंतिम संस्कार किया जिन्होंने कोविड से अपनी जान गंवाई थी.

शरीफ के बेटे मोहम्मद सगीर जो 50 वर्षीय हैं और एक ड्राइवर के रूप में काम करते हैं. उन्होंने कहा कि उनके पिता अब बूढ़े हो रहे हैं और उन्हें मदद की ज़रूरत है.

सगीर कहते हैं, ‘एक साल से इनके घुटने जाम हो गए हैं. पहले वे खुद ठेला खिंचते थे और साइकिल से जाते थे लेकिन अब मुझे स्कूटी पर ले जाना पड़ता है.’

शरीफ ने कहा कि कुछ सांसदों सहित कई गणमान्य लोगों ने उनसे आर्थिक सहायता और एक घर का वादा किया है लेकिन परिवार अभी भी इस सब के लिए संघर्ष कर रहा है.

शरीफ ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘इतने साल की सेवा में सरकार की मदद कभी नहीं मिली है. कोविड के दौरान भी मैंने सब कुछ खुद किया. मुझे उम्मीद है कि सरकार अब हमारी मदद कर सकती है और हमें एक घर दे सकती है.’

(यह ख़बर अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) 


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