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Friday, 19 April, 2024
होमदेशजस्टिस जेबी पारदीवाला के रूप में SC को मिला एक भावी CJI, मन्ना डे के प्रशंसक और क्रिकेट प्रेमी नंबर 1

जस्टिस जेबी पारदीवाला के रूप में SC को मिला एक भावी CJI, मन्ना डे के प्रशंसक और क्रिकेट प्रेमी नंबर 1

न्यायमूर्ति पारदीवाला उच्चतम न्यायालय तक पहुंचने वाले केवल चौथे पारसी हैं, और मई 2028 में भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने की क़तार में हैं, जहां उनका कार्यकाल दो साल तीन महीने का होगा.

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नई दिल्ली: न्यायमूर्ति जमशेद बुरजोर पारदीवाला के सोमवार को सुप्रीम कोर्ट जज की शपथ लेने के साथ ही, शीर्ष अदालत को भारत का एक भावी मुख्य न्यायाधीश मिलना तय हो गया है, जो मन्ना डे का प्रशंसक है, क्रिकेट प्रेमी है, और एक ऐसा जज है जो झगड़ने वाले जोड़ों के लिए अतिरिक्त प्रयास करने, और अपने फैसलों को एक ‘मानवीय स्पर्श’ देने के लिए जाना जाता है.

एक जज के रूप में तरक्की पाने के केवल 11 साल के अंदर ही शीर्ष अदालत तक पहुंचने में जस्टिस पारदीवाला उच्च न्यायालयों के कई जजों और मुख्य न्यायाधीशों से आगे निकलकर, सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल होने वाले सबसे नये जज बन गए हैं.

गुजरात हाईकोर्ट जज और गौहाटी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सुधांशु धूलिया के भी सुप्रीम कोर्ट में आने के साथ ही, 30 महीने के अंतराल के बाद शीर्ष अदालत के जजों की तादात अपनी स्वीकृत संख्या 34 तक पहुंच गई है. कॉलीजियम से उनका नामांकन मिलने के सिर्फ 48 घंटों के भीतर, केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय ने उनकी नियुक्ति को औपचारिक रूप दे दिया.

न्यायमूर्ति पारदीवाला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने वाले पारसी समुदाय के केवल चौथे सदस्य हैं, और मई 2028 में भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने की क़तार में हैं, जहां उनका कार्यकाल दो साल तीन महीने का रहेगा.

एक हाईकोर्ट जज के नाते अपने 11 साल लंबे कार्यकाल में जस्टिस पारदीवाला के फैसले कई बार सुर्ख़ियां बने हैं- इनमें वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को रद्द करने की अपील से लेकर, एक यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने, और कोविड-19 के प्रबंधन को लेकर सरकार की खिंचाई करने वाले कई आदेश, तथा आधी रात में एक सुनवाई करते हुए राज्य में जगन्नाथ रथ यात्रा की अनुमति से इनकार जैसे बहुत फैसले शामिल हैं. वो उन चुनिंदा जजों में से भी हैं जो अपने एक आदेश में आरक्षण के खिलाफ टिप्पणी करने पर महाभियोग प्रस्ताव से बच गए थे.

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‘जापू’ से जस्टिस पारदीवाला तक

परिवार में प्यार से ‘जापू’ कहे जाने वाले जस्टिस पारदीवाला दक्षिणी गुजरात मे वलसाड के एक वकीलों के परिवार से आते हैं. उनके दादा कावसजी नवरोजजी पारदीवाला ने 1929 में वकालत शुरू कर दी थी जो उन्होंने 1958 तक जारी रखी. उनके पिता बुरजोर कावसजी पारदीवाला भी एक वकील थे, और दिसंबर 1989 से लेकर मार्च 1990 तक सातवीं गुजरात विधानसभा के स्पीकर भी रहे.

जस्टिस पारदीवाला ने 1988 में वकालत शुरू कर दी, और फरवरी 2011 में उन्हें हाईकोर्ट का अतिरिक्त जज नियुक्त किया गया. जनवरी 2013 में उन्हें स्थायी जज बना दिया गया.

1992 से जस्टिस पारदीवाला के दोस्त वरिष्ठ अधिवक्ता जल उनवाला ने दिप्रिंट को बताया कि वकालत शुरू करने से पहले जज एक अच्छे टेनिस खिलाड़ी हुआ करते थे. लेकिन वो अभी भी एक ‘शौक़ीन क्रिकेट प्रशंसक’ बने हुए हैं.

‘पिछले पांच-सात सालों से वो वैसे किसी एक टीम को फॉलो नहीं करते, लेकिन अगर भारत खेल रहा है तो वो हमेशा ताज़ा स्कोर की जानकारी रखते हैं’.

उनवाला ने दिप्रिंट को बताया कि जस्टिस पारदीवाला संगीत के शौक़ीन हैं, ‘ख़ासकर पुराने हिंदी गानों के…और जो भी थोड़ा बहुत समय उन्हें मिलता है उसमें वो किशोर कुमार, मोहम्मद रफी, मन्ना डे, लता मंगेशकर, और आशा भोसले को सुनते हैं’.

उन्होंने आगे कहा कि जस्टिस पारदीवाला एक बहुत धार्मिक व्यक्ति हैं, भगवान से प्यार करने वाले हैं, और भाग्य में बहुत विश्वास रखते हैं’.

लेकिन ‘जापू’ से जस्टिस पारदीवाला का बदलाव तब आया, जब ‘एक जज बनने के बाद वो सामाजिक हलक़ों से दूर हो गए’. उनवाला ने बताया कि वो क़ानून और इंसाफ के पुराने स्कूल को मानने वाले जज हैं कि जजों को ज़्यादा घुलना-मिलना नहीं चाहिए, और ज़्यादा सामाजिक मेल-मिलाप से परहेज़ करना चाहिए, और इस तरह न्याय के अपने स्तर को ऊंचा रखना चाहिए’.

‘मानवीय स्पर्श’

दिप्रिंट से बात करने वाले युवा वकीलों ने उन्हें अपना ‘पसंदीदा जज’ बताया, और उनके विनोदी स्वभाव, भाषा पर पकड़, और उस ‘मानवीय स्पर्श’ के बारे में बात की, जो वो अपने फैसलों में जोड़ते हैं.

एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने अपना नाम न बताने की इच्छा के साथ दिप्रिंट को बताया कि ‘जब ऐसे जोड़ों के फिर से मिलने की बात आती हैं जिनके बच्चे हैं, तो वो उन्हें हमेशा चैम्बर में बुलाते हैं और उनसे विनती करते हैं कि अपने बच्चों को तकलीफ में न डालें’.

एक और युवा वकील ने, जो अपना नाम नहीं बताना चाहती थीं, कहा कि जस्टिस पारदीवाला एक ‘पारिवारिक व्यक्ति’ की तरह लगते थे. उनका कहना है कि जस्टिस पारदीवाला कोर्ट का समय पूरा जाने के बाद, समय निकालकर व्यक्तिगत रूप से किसी जोड़े के साथ अपने चैम्बर में बैठकर बात करते थे, जिसमें पत्नी कहती थी कि अब वो पति के साथ नहीं रहना चाहती, लेकिन पति उसे छोड़ना नहीं चाहता. उन्होंने आगे कहा, ‘इंसाफ करने में वो बहुत व्यक्तिगत रुचि रखते थे, और सिर्फ क़ानून की नज़र में ही नहीं बल्कि दो व्यक्तियों के नाते दोनों पक्षों के साथ न्याय करते थे’.

वकील ने बताया कि जब तलाक़ के कोई ऐसे मामले आते थे जिनमें बच्चे भी शामिल हों, ‘तो वो भावुक हो जाते हैं और उनसे (पति-पत्नी) से कहते हैं, कि उनकी वजह से किस तरह उनके बच्चों पर असर पड़ रहा है. वो एक पारिवारिक आदमी की तरह लगते हैं’.

अप्रैल 2018 में, जस्टिस पारदीवाला ने वैवाहिक बलात्कार के खिलाफ भी बोला था, और कहा था कि जो ‘विनाशकारी रवैया’ किसी विवाह में रेप को बढ़ावा देता है, उसे वैवाहिक बलात्कार को ‘ग़ैर-क़ानूनी’ बनाकर ही दूर किया जा सकता है.

जज ने लिखा था, ‘वैवाहिक बलात्कार का पूरी तरह से वैधानिक उन्मूलन समाज को ये सिखाने की दिशा में पहला क़दम है कि महिलाओं के साथ अमानवीय बर्ताव को सहन नहीं किया जाएगा, और वैवाहिक बलात्कार किसी पति का विशेषाधिकार नहीं है बल्कि एक हिंसक कृत्य और अन्याय है, जिसे अपराध बनाया जाना चाहिए’.

एक और युवा वकील ने, जो दो साल से अधिक से जस्टिस पारदीवाला की अदालत में हाज़िर होती रही हैं, बताया कि उनके फैसले कितने समग्र होते हैं. उन्होंने कहा, ‘जब वो कोई फैसला सुना रहे होते हैं, तो उनका एंगल बहुत सहानुभूतिपूर्ण और तर्कसंगत होता है, और वो तथ्यों का भी पूरा सम्मान करते हैं’.

2015 में जस्टिस पारदीवाला की उनके उन विचारों के लिए सराहना की गई, जिनमें ‘अच्छी तरह से स्थापित रूढ़िवादिताओं पर सवाल खड़े किए गए’- जिनमें जैनियों के बीच बाल दीक्षा और मुसलमानों के बीच बहु-विवाह शामिल हैं. बाल दीक्षा या बहुत कम आयु में संसार को त्यागने पर उन्होंने पूछा था, ‘कम उम्र के बच्चों को ‘दीक्षा’ लेकर संसार को त्यागने के लिए क्यों प्रोत्साहित किया जाता है. ये उनके अपने आध्यात्मिक फायदे के लिए है, या फिर बड़े स्तर पर समुदाय के फायदे के लिए धर्म ऐसा कहता है?’

उन्होंने बहुविवाह को एक ‘जघन्य पितृसत्तात्मक हरकत’ क़रार दिया था. मुस्लिम पर्सनल लॉ में 15 साल से ऊपर की लड़कियों, या जो शारीरिक रूप से सयानी हो गई हैं उनके विवाह की अनुमति दिए जाने पर जस्टिस पारदीवाला ने कहा था, कि ‘जिन लोगों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव की इजाज़त नहीं दी है उन्होंने समुदाय का बहुत बड़ा अहित किया है’. इन दोनों ही आदेशों में उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड के बारे में बात की.

जस्टिस पारदीवाला उस बेंच का भी हिस्सा थे, जिसने 23 जून 2020 की आधी रात में एक सुनवाई की, और अहमदाबाद में जगन्नाथ रथ यात्रा पर पाबंदी के अपने पहले के आदेश को वापस लेने से इनकार कर दिया था. उस मामले की सुनवाई आधी रात के बाद शुरू हुई थी और फिर 2 बजे तड़के आदेश जारी किया गया.

महामारी के दौरान वो उस बेंच का हिस्सा थे जिसने कोविड-19 के प्रबंधन के लिए कई बार राज्य, केंद्र सरकार और निजी अस्पतालों की कटु आलोचना की. मसलन, 22 मई 2020 को वो उस समय सुर्ख़ियों में आए जब उन्होंने अहमदाबाद सिविल अस्पताल की ‘काल कोठरी जैसी’ स्थिति के लिए राज्य सरकार की जमकर खिंचाई की. एक और आदेश में बेंच ने कोविड-19 प्रकोप को एक ‘गंभीर युद्ध जैसी स्थिति’ क़रार दिया, और निजी अस्पतालों को चेतावनी दी कि या तो वो अपनी ‘बेहद ऊंची फीस’ को नियमित कर लें, या फिर अपने लाइसेंस रद्द हो जाने के लिए तैयार रहें.

उनके फैसलों के अलावा वकीलों ने कोर्ट में वादियों के साथ होने वाली उनकी बातचीत की भी सराहना की.

हाईकोर्ट में वकालत कर रहे एक अधिवक्ता ने दिप्रिंट से कहा, ‘जब वो कोई फैसला सुना रहे होते हैं जिसमें, मिसाल के तौर पर, लोग वास्तव में ग़रीब होते हैं या अंग्रेज़ी नहीं समझ पाते, उनके लिए वो अतिरिक्त प्रयास करके फैसले को कोर्ट में गुजराती में समझाते हैं, जिससे कि वो आदेश के नतीजों से आगाह हो जाएं’.


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महाभियोग से बचें

लेकिन 18 दिसंबर 2015 को जस्टिस पारदीवाला एक बड़े विवाद में घिर गए, जब 58 राज्यसभा सांसदों ने अध्यक्ष हामिद अंसारी के समक्ष एक याचिका पेश करके, उनके खिलाफ एक महाभियोग प्रस्ताव लाने की गुज़ारिश की.

उस क़दम की एक वजह एक टिप्पणी थी जो जस्टिस पारदीवाला ने 1 दिसंबर 2015 के अपने एक फैसले में की थी. फैसले में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के मामले पर पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पास) संयोजक हार्दिक पटेल के खिलाफ देशद्रोह के आरोप को ख़ारिज कर दिया गया, लेकिन उसमें कहा गया था, ‘अगर कोई मुझसे दो चीज़ों का नाम पूछे, जिन्होंने इस मुल्क को तबाह किया है, या इस देश को सही दिशा में आगे नहीं बढ़ने दिया है, तो वो हैं आरक्षण और भ्रष्टाचार’.

फैसले में आगे चलकर कहा गया था कि किसी भी नागरिक के लिए ‘बहुत शर्म’ की बात है, कि आज़ादी के 65 साल बाद भी आरक्षण की मांग करे, और ‘आरक्षण ने सिर्फ एक अमीबीय राक्षस की भूमिका निभाई है, जिसने लोगों के बीच कलह के बीज बोए हैं.

उसमें आगे कहा गया, ‘स्थिति की पैरोडी ये है कि भारत ज़रूर दुनिया का अकेला देश होगा, जहां कुछ नागरिक पिछड़े कहे जाने के लिए तरसते हैं’.

महाभियोग की संभावना को देखते हुए जस्टिस पारदीवाला ने तब, कुछ घंटों के भीतर ये कहते हुए उन टिप्पणियों को काट दिया था कि याचिका पर निर्णय के लिए वो ‘प्रासंगिक’ या ‘आवश्यक’ नहीं थीं. उस समय टिप्पणियों को हटाए जाने का आवेदन राज्य सरकार की ओर से दिया गया था.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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