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Saturday, 20 April, 2024
होमदेशअर्थजगत10 सालों में मुश्किल से बढ़ी पक्की नौकरियां, अग्निपथ के खिलाफ युवा आक्रोश के पीछे हो सकती हैं ये चार वजहें

10 सालों में मुश्किल से बढ़ी पक्की नौकरियां, अग्निपथ के खिलाफ युवा आक्रोश के पीछे हो सकती हैं ये चार वजहें

पिछले सप्ताह जारी सरकार के ताजा पीरिऑडिक लेबर फोर्स सर्वे से पता चलता है कि भारत में वेतनभोगी वर्ग ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में 3 प्रतिशत अंक और 1 प्रतिशत अंक की वृद्धि दर्ज की है.

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नई दिल्ली: सशस्त्र बलों में अल्पकालिक भर्ती को लेकर मोदी सरकार की अग्निपथ योजना के खिलाफ पिछले हफ्ते देश के कई हिस्सों में गुस्सा फूट पड़ा.

बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और तेलंगाना तक युवा सड़कों पर उतर आए, सार्वजनिक संपत्तियों, खासकर ट्रेनों में तोड़फोड़ की और उन्हें आग के हवाले भी कर दिया.

लेकिन आखिरकार इस योजना ने इतने सारे युवाओं को इतना ज्यादा क्रोधित क्यों कर दिया?

इसका जवाब कहीं न कहीं सरकार के ताजा पीरिऑडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) में छिपा हो सकता है, जो जुलाई 2020 से जून 2021 (महामारी के दौरान) की अवधि को कवर करते हुए पिछले सप्ताह ही जारी किया गया है.

देश में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति के आकलन के लिए ग्रामीण और शहरी भारत में किए गए इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि भारत के वेतनभोगी वर्ग ने पिछले एक दशक में ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 3 प्रतिशत अंक और शहरी क्षेत्रों में 1 प्रतिशत अंक से भी कम वृद्धि दर्ज की है.

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सर्वेक्षण ‘नियमित/वेतनभोगी कर्मचारियों’ को इस तरह परिभाषित करता है—’वे व्यक्ति जो दूसरों के खेत या गैर-कृषि उद्यमों (घरेलू और गैर-घरेलू दोनों) में काम करते हैं’ और बदले में नियमित आधार पर वेतन या मजदूरी प्राप्त करते हैं (यानी दैनिक वेतनभोगी या कुछ अवधि बाद अनुबंध के नवीनीकरण के आधार पर काम करने वाले नहीं हैं)

इस श्रेणी में पेड अप्रेंटिस, फुल-टाइम और पार्ट-टाइम दोनों शामिल हैं.

ताजा पीएलएफएस के मुताबिक, 2011-12 में 9.6 प्रतिशत की तुलना में अब 13 प्रतिशत ग्रामीण परिवार नियमित वेतन/मजदूरी करने वाले हैं.

अब कुल कार्यबल में शहरी वेतनभोगी वर्ग की हिस्सेदारी 42.5 प्रतिशत है, जबकि 2011-12 में यह 41.7 प्रतिशत थी.

चित्रण : दिप्रिंट टीम

2011-12 के आंकड़े सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) से लिए गए हैं. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ, जो उसी मंत्रालय में आता है) की तरफ से शुरू किया गया पीएलएफएस पहली बार 2017-18 में हुआ था.

2017-18 में वेतनभोगी वर्ग की हिस्सेदारी ग्रामीण क्षेत्रों में 12.7 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 41.4 प्रतिशत थी.

अग्निपथ एक अल्पकालिक भर्ती योजना है जिसमें चार साल की अवधि के लिए 17.5 से 21 वर्ष (इस वर्ष के लिए 23) आयु वर्ग के युवाओं को भारत के सशस्त्र बलों में शामिल करने की तैयारी की गई है.

नई नीति की आलोचना करने वालों का तर्क है कि चार साल के बाद सशस्त्र बल एक बैच में भर्ती किए गए लोगों में से केवल 25 प्रतिशत को ही समाहित करेंगे.

इसके अलावा, ‘अग्निवीर’ कहे जाने वाले ये रंगरूट नियमित सैनिकों की तरह महंगाई भत्ते या पेंशन के हकदार भी नहीं होंगे.

माना जाता है कि इस योजना का विरोध करने वालों में ज्यादातर युवा शामिल हैं जो एक स्थिर नौकरी पाने की उम्मीद में रक्षा भर्ती परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं.

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के अनौपचारिक क्षेत्र और श्रम अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर अर्चना प्रसाद के मुताबिक, पीएलएफएस में वेतनभोगी वर्ग के अनुपात में स्पष्ट वृद्धि भ्रामक है क्योंकि इसमें अब गिग वर्कर और ड्राइवर (उदाहरण के तौर पर भोजन पहुंचाने वाली कंपनियों के डिलीवरी एक्जीक्यूटिव) शामिल हैं

उन्होंने कहा, ‘वेतनभोगी/नियमित वेतन पाने वालों की हिस्सेदारी में मामूली वृद्धि पिछले एक दशक में श्रम के अनौपचारिकीकरण का नतीजा है.’

उन्होंने कहा, ‘आप देख सकते हैं इन लोगों को केवल वेतन मिल रहा है और भविष्य निधि (पीएफ), सवेतन अवकाश, सुरक्षित नौकरी जैसे कोई लाभ नहीं मिल रहे हैं.’

उन्होंने कहा कि ये ऐसे पैरामीटर हैं जो औपचारिक क्षेत्र को अनौपचारिक क्षेत्र से व्यापक स्तर पर अलग बनाते हैं. साथ ही जोड़ा, ‘इस संदर्भ में देखा जाए तो अग्निपथ योजना युवाओं की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती.’

गुणवत्तापूर्ण नौकरियों में वृद्धि धीमी

भारतीय रेलवे की तरह रक्षा भर्तियां के जरिये भी परंपरागत तौर पर सबसे ज्यादा सरकारी नौकरियां मिलती रही है. हालांकि, पिछले छह वर्षों में रेलवे ने 72,000 पदों को खत्म कर दिया है.

वहीं, सेना ने कोविड-19 के चलते पिछले दो साल से अपनी भर्तियां बंद कर रखी हैं. धीमी गति से या कोई भर्ती न होना ही इतने व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन की एक बड़ी वजह रहा है.

नवीनतम पीएलएफएस में चार लाख से अधिक लोगों के साथ एक लाख से अधिक घरों (55,300 ग्रामीण और 44,950 शहरी) को कवर किया गया.

सर्वेक्षण का अनुमान है कि किसी भी आर्थिक गतिविधि में लगे लगभग 54 प्रतिशत ग्रामीण परिवार 2020-21 में स्व-रोजगार कर रहे थे.

अनुमानित तौर पर इसमें 24.2 प्रतिशत कैजुअल लेबर थे—यानी जो लोग दूसरों के खेत में काम कर रहे थे या गैर-कृषि उद्यमों में लगे थे और बदले में उन्हें दैनिक आधार पर या कुछ अवधि के अनुबंध के की शर्तों पर मजदूरी मिल रही थी.

लगभग 8 प्रतिशत को ‘अन्य’ की श्रेणी में रखा गया.

शहरी भारत में, लगभग 33 प्रतिशत कार्यबल स्वरोजगार में लगा था, जबकि 12 प्रतिशत कैजुअल लेबर के तौर पर काम कर रहा था.


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क्षेत्रीय विषमताएं

देशभर की बात करें तो ग्रामीण क्षेत्रों में 13 प्रतिशत वेतनभोगी वर्ग होने अनुमान है. पीएलएफएस 2020-21 के डेटा से पता चलता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश, जो अभी अग्निपथ विरोध के केंद्र बने हुए हैं, में भी वेतनभोगी वर्ग की कुल श्रम बल में हिस्सेदारी कम है.

पीएलएफएस के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में कुल कामकाजी आबादी में वेतनभोगी वर्ग की हिस्सेदारी 6.5 फीसदी है.

चित्रण : दिप्रिंट टीम

शहरी क्षेत्रों में राज्य के केवल 24 प्रतिशत परिवार नियमित वेतन/मजदूरी कमाते हैं—जो देश में सबसे कम है.

2017-18 की तुलना में 2020-21 में वेतनभोगी वर्ग का आकार घटा है. 2017-18 में बिहार में करीब 9.5 फीसदी ग्रामीण परिवारों और करीब 25 फीसदी शहरी परिवारों ने नियमित वेतन/मजदूरी अर्जित की.

देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों में 2017-18 में 7.3 प्रतिशत की तुलना में 2020-21 में 7.2 प्रतिशत लोगों ने नियमित वेतन/मजदूरी अर्जित की. शहरी क्षेत्रों के लिए यह आंकड़ा 2017-18 में 32.1 प्रतिशत की तुलना में 2020-21 में 35.1 प्रतिशत रहा.

माना जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के वेतनभोगी वर्ग में रक्षा बलों में जाने वाले रंगरूटों का एक बड़ा हिस्सा होता है.

लोकसभा में एक सवाल के जवाब में रक्षा मंत्रालय की तरफ से साझा किए गए आंकड़ों के मुताबिक, 2018-19 में सेना में भर्ती 54,431 लोगों में से लगभग 78 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों से आए थे. 2019-20 में, 80,000 नई भर्तियों में ग्रामीण क्षेत्रों की हिस्सेदारी 77 प्रतिशत थी.

कमाई का दबाव

पीएलएफएस इन युवा उम्मीदवारों पर पड़ने वाले दबाव के संबंध में एक और फैक्टर को रेखांकित करता है, जो उन पर उनके परिवार की तरफ से डाला जाता है.

सर्वेक्षण से पता चला कि जिन राज्यों में नियमित वेतनभोगी कम हैं, वहां गैर-कामकाजी आबादी यानी बच्चों (0-14 वर्ष) और बुजुर्गों (65 साल से ज्यादा) का निर्भरता अनुपात ज्यादा है. यानी हर 100 कामकाजी व्यक्तियों (15-64 वर्ष आयुवर्ग) के लोगों पर परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी ज्यादा होती है.

यह अनुपात बिहार में सबसे ज्यादा है, जहां हर 100 कामकाजी लोगों पर 58 लोग ऐसे हैं जो उन पर निर्भर हैं.

चित्रण : दिप्रिंट टीम

अर्चना प्रसाद का कहना है कि अगर नियमित नौकरियों में वृद्धि सुस्त बनी रहती है तो अग्निपथ जैसी योजना से बेरोजगारी की स्थिति में कोई बदलाव आने की संभावना नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘नाराज युवा उम्मीदवार दरअसल एक औपचारिक नौकरी वाली अर्थव्यवस्था और गुणवत्ता वाली नौकरियों के सभी लाभ मिलने की आकांक्षा रखते हैं. उनकी निराशा की वजह यही है कि ऐसी वांछित नौकरियां बिल्कुल नहीं बढ़ी हैं.’

प्रसाद के मुताबिक, इसका समाधान औपचारिक रोजगार सृजित करने के लिए बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश किया जाना है, न कि अग्निपथ जैसी योजनाएं.

उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि यह योजना भारत की बेरोजगारी की समस्या दूर करने में मददगार होगी. चार साल की ट्रेनिंग के बाद क्या होगा अगर औपचारिक नौकरियां नहीं बढ़ीं.’

उन्होंने कहा, ‘बेरोजगार युवाओं का विशाल समूह मूलत: श्रम को सस्ता बनाता है, जिससे उनकी अधिक कमाई की संभावना घट जाती है. मुझे नहीं लगता कि बेरोजगार युवाओं को चार साल के लिए सैन्य प्रशिक्षण देना और फिर उन्हें नौकरी के बाजार में वापस भेज देना कोई समाधान है, खासकर तब जब वेतनभोगी नौकरियां तेजी से नहीं बढ़ रही हैं.’

स्वरोजगार बहुत ज्यादा आकर्षक नहीं

पीएलएफएस के आंकड़ों के मुताबिक, आर्थिक गतिविधियों में लगे ग्रामीण भारत के अधिकांश निवासी स्व-नियोजित हैं, जबकि शहरी भारत के मामले में यह आंकड़ा लगभग एक तिहाई है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद करने के लिए स्वरोजगार को प्रोत्साहित कर रही है.

2015 में केंद्र सरकार ने स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री मुद्रा योजना शुरू की, जिसे सामान्य तौर पर मुद्रा के नाम से जाना जाता है. यह योजना सूक्ष्म/लघु व्यावसायिक उद्यमों और लोगों को अपनी व्यावसायिक गतिविधियां शुरू करने या उनका विस्तार करने में सक्षम बनाने के लिए 10 लाख रुपये तक कोलैटरल-फ्री ऋण मुहैया कराती है.

चित्रण : दिप्रिंट टीम

श्रमिकों की औसत मासिक आय पर पीएलएफएस के आंकड़े बताते हैं कि स्वरोजगार—जैसे पकौड़े बेचने, घर पर किराने की दुकान खोलने आदि—से होने वाली आय वेतनभोगी वर्ग द्वारा अर्जित मजदूरी का 30-40 प्रतिशत है.

उदाहरण के तौर पर, सर्वेक्षण से पहले के महीने में ग्रामीण भारत में एक नियमित वेतन/मजदूरी पाने को औसतन 15,000 रुपये प्रति माह का भुगतान किया जा रहा था, जबकि स्वरोजगार करने वाला एक व्यक्ति लगभग 10,000 रुपये प्रतिमाह कमा रहा था.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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