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Friday, 29 March, 2024
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स्कूल छोड़ चुकीं मुस्लिम लड़कियों को कैसे मिल रही है ‘पहचान’

'पहचान' एक समाजसेवी संगठन है जो मुस्लिम समुदाय की उन लड़कियों को शिक्षा के लिए प्रेरित करता है जिनकी पढ़ाई बचपन में किन्हीं कारणों से छूट गई है.

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नई दिल्ली: विगत कुछ वर्षों से हमारे देश में जब भी मुस्लिम महिलाओं का मुद्दा आता है तो वो केवल ट्रिपल तलाक के ही इर्द-गिर्द घूमता दिखाई देता है. उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और कम उम्र में होनी वाली शादियों से जुड़े मसलों को कहीं न कहीं नजरअंदाज किया जाता है.

सेंसस 2011 के डाटा के अनुसार देश की 42.7 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं शिक्षित नहीं हैं. ऐसा कहा जाता है कि अगर एक लड़की को शिक्षा दी जाए तो पूरा परिवार शिक्षित होता है. मुस्लिम लड़कियों के स्कूल नहीं पहुंचने के तीन प्रमुख वजहें होती हैं. घर में पैसों की कमी, अभिभावकों की रूढ़िवादी सोच और कई बार स्कूल का घर से दूर होना.


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क्या है ‘पहचान’

दिल्ली में कई समाजसेवी संगठन महिलाओं के मुद्दे पर काम कर रहे हैं. इन्हीं में से एक संस्था है ‘पहचान’. यह मुस्लिम समुदाय की उन लड़कियों को शिक्षा के लिए प्रेरित करती है जिनकी पढ़ाई बचपन में किन्हीं कारणों से छूट गई है. दिल्ली के जैतपुर (ओखला) में व्यक्तिगत दान से चलने वाली ये संस्था जामिया मिल्लिया इस्लामिया बोर्ड से 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं पास कराती है.

‘पहचान’ संस्था से इस साल 10वीं और 12वीं की परीक्षा पास करने वाली लड़कियों को सर्टिफिकेट प्रदान करते हुए दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया | फोटो / शुभम सिंह

इस संस्था में पढ़ाई कर रही बिहार के मोतिहारी जिले से आईं 24 वर्षीय नुसरत खातुन अपने अनुभवों को साझा करती हैं, ‘मैं तीन साल की उम्र में दिल्ली आ गई थी. मेरे 6 भाई बहन हैं. पिता जी कोई काम नहीं करते हैं और आर्थिक तंगी के कारण 2013 में 18 साल की उम्र में मेरी शादी करा दी गई. मेरी बचपन से इच्छा थी कि मैं भी पढ़ाई-लिखाई कर सकूं. पिछले साल मुझे ‘पहचान’ संस्था के बारे में पता चला और मैंने एक साल में यहां पढ़ाई कर इस बार 10वीं की परीक्षा दी. सात में से 6 विषयों में मैंने पेपर क्लियर कर लिया लेकिन अंग्रेजी में मेरा कंपार्टमेंट आ गया. मुझे पूरी उम्मीद है कि ईद के बाद होने वाले कंपार्टमेंट में मैं इसे भी क्लियर कर लूंगी.’

वहीं, इस साल 12वीं की परीक्षा पास करने वाली आजमां कहती हैं, ‘मैं बचपन से पढ़ाई करना चाहती थी लेकिन कम उम्र में ही पिता जी ने मेरी शादी करा दी. कहा जाता है कि लड़कियों की शुरुआत शादी से शुरू और शादी पर खत्म होती है. मैं बहुत नर्वस हो गई थी. मेरे पिता की तबीयत खराब रहती थी. मेर मेरे पास कोई डिग्री नहीं थी, फिर मैंने ‘पहचान’ के बारे में सुना. पिछले साल एडमिशन लिया. मैं नजदीक के ही एक अस्पताल में 12 घंटे काम करती हूं, इसके साथ ही ‘पहचान’ में चार से पांच घंटे पढ़ाई भी करती थी. 12वीं की परीक्षा पास करने के बाद अब मैं आगे की पढ़ाई कर सकूंगी.’

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‘पहचान’ की संस्थापक 50 वर्षीय फरीदा खान जब 12 साल की थीं, तभी उनकी शादी हो गई थी लेकिन दहेज के चलते उनकी शादी टूट गई और 15 साल की उम्र में वो दो बच्चों के साथ अकेली रहने लगीं. जिसके बाद दिल्ली में चलने वाले एक एनजीओ में उन्होंने पढ़ाई की. फरीदा बताती है, ‘मैं खुद तो कभी स्कूल नहीं गई लेकिन मेरा ख्वाब था कि मैं अपने बच्चों को शिक्षित करूं.’ वो बताती हैं कि उन्होंने अपने ही घर में 2009 में कुछ औरतों को पढ़ाना शुरू किया जिससे उनको सामान्य जानकारी हो. वे लिखना-पढ़ना सीख जाएं.

और कारवां बढ़ चला

फरीदा कहती हैं,’ 2011 में जब कुछ छात्र मेरे यहां से 10वीं और 12वीं की परीक्षा पास किए तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था. इससे मेरे अंदर गजब का उत्साह आया.’

यह पूछने पर कि किस तरह से लड़कियों को ‘पहचान’ से जोड़ा जाता है?

फरीदा कहती हैं, ‘मैं और मेरे साथी फरहत उन बस्तियों में जाते थे, जहां से ज्यादातार लड़कियां स्कूल छोड़कर घर में बैठ गई हैं.’

लड़कियों को पढ़ाना है
समाज को बढ़ाना है
लड़का लड़की एक समान
उठाओ बस्ता चलो पहचान 

हम लोग इस तरह नारे लगाते थे, नुक्कड़ करके अपनी बात रखते थे. उन्हीं में से कुछ अभिभावक हमारी बातों पर भरोसा रखते हुए अपनी बच्चियों को हमारे यहां भेजते. जो लड़कियां हमारे यहां आती थी, उनसे बाकी लड़कियों के बारे में पता लगता था, जो स्कूल जाने से वंचित हैं. फिर हम उन तक भी पहुंचना शुरू किए.’

पिछले तीन सालों में 114 लड़कियां ‘पहचान’ के माध्यम से 10वीं और 12वीं की परीक्षा पास कर बेहतर भविष्य की तलाश में आगे बढ़ रही हैं जिनमें 20 लड़कियां बीए में दाखिला ले चुकी हैं, कई ने एमसीए तो वहीं तीन लड़कियां  फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही हैं.

पढ़ाई का मॉड्यूल क्या है

700 में से 509 अंक प्राप्त कर पहचान संस्था की इस बार की 10वीं की टॉपर सानिया बताती हैं, ‘पहले दो महीने हमें केवल तीनों भाषाएं (हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू) सिखाई जाती हैं. ये हमारे ऊपर है कि हम किस भाषा में बाकी विषयों को सीखते हैं.’ लड़कियों को कोर्स की पढ़ाई के अलावा अन्य चीज़ों के बारे में भी चर्चाएं कराए जाती हैं.

फरीदा कहती हैं, ‘हमारे यहां हर हफ्ते वर्कशॉप आयोजित की जाती है. हेल्थ, जेंडर, व्यक्तित्व विकास, फे़क न्यूज और इंटरनेट जैसे मुद्दों पर जानकारियां दी जाती हैं.’

लेकिन फंड की तो दिक्कत है

मेवात से शुरू हुआ ये सेंटर, हरियाणा और द्वारका में भी खोला गया लेकिन आर्थिक कमी के चलते जैतपुरा को छोड़ बाकी सभी सेंटरों को बंद कर दिया गया.

‘पहचान’ के सात ट्रस्टी में से एक इकबाल खान बताते हैं, ‘हमारा एनजीओ पहचान पूरी तरीके से फंड पर आधारित है. ऐसे में शिक्षकों को दिए जाने वाली महीने की तनख्वाह, परीक्षा शुल्क, रूम रेंट के अलावा स्कूल के मेंटिनेंस के लिए भी फंड जुटाना पड़ता है.

2016 में क्राउडफंडिग से हमने 2.5 लाख रुपये इकट्ठा किए थे लेकिन अब वो भी खत्म हो चुका है.’


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प्रयोग को पॉलिसी लेवल पर शामिल किया जाए

इस बार ‘पहचान’ संस्था से 10वीं और 12वीं एग्जाम पास करने वाली छात्राओं को लेकर रविवार को एक अभिनंदन समारोह रखा गया. इसमें मुख्य अतिथि थे दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया. उनसे हमने पूछा कि ‘पहचान’ एक प्रयोग है इसको पॉलिसी लेवल पर कैसे लाया जाए.

मनीष सिसोदिया दिप्रिंट से कहते हैं, ‘पॉलिसी तो इस पर कई सारी बनी हैं लेकिन अब जरूरत है इसको लागू करने की. और ये अकेले सरकार नहीं कर सकती, इसके लिए इस तरह के संगठनों को आगे आना होगा. सबको मिलकर काम करना होगा.’

इसके अलावा मनीष ने बताया कि ड्रापआउट वाले मुद्दे का समाधान निकालना चाहिए. स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों को  वापस दाखिला दिलाना, केवल एक पहलू है. जबकि इसको कई तरीके से देखा जाना चाहिए. सिसोदिया ने कहा कि सबसे पहले इस पर इलाज होना चाहिए कि लोग स्कूल छोड़ क्यों रहे हैं. एक कारण है कि एजुकेशन बहुत बोरिंग है, जिनको तनख्वाह मिलती है अच्छी उनके लिए वो जरूरी है लेकिन ऐसे देखा जाए तो पढ़ना-पढ़ाना बोरिंग लगता है. इसकी सबसे बड़ी वजह पढ़ना क्यों है ये जस्टिफाई नहीं हुआ और जब ये नहीं हुआ तो कैसे है, इसका भी जवाब नहीं मिल सका.

इसके लिए क्या मॉडल बनाया जाए चर्चा इस पर होनी चाहिए. हम सब को मिलकर सोचना होगा कि कैसे तनख्वाह से इतर पढ़ाई के लिए काम हो.

वहीं संस्था की एक और ट्रस्टी व सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी कहती हैं, ‘ये एक पूरा सेगमेंट है मुस्लिम लड़कियों का जिसको पॉलिसी लेवल पर लाना होगा. 5-6 साल की उम्र में कोई लड़की स्कूल छोड़ती है तो उसे वापस दाखिला दिलाना आसान होता है जबकि 15-16 साल की लड़कियों को वापस स्कूल भेजने में दिक्कत आती है.’

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