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Thursday, 25 April, 2024
होमदेशआज अगर महाश्वेता देवी ज़िंदा होतीं तो अर्बन नक्सल कहलातीं

आज अगर महाश्वेता देवी ज़िंदा होतीं तो अर्बन नक्सल कहलातीं

आदिवासियों के साथ घुलना-मिलना व नक्सलबाड़ी आंदोलन की संक्षेप में किताब लिखना महाश्वेता देवी को आज एेसे आरोप लगने वालों की फेहरिस्त में शामिल कर देता.

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‘एक लम्बे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी.’

इन शब्दों के साथ जीवन भर संघर्ष करने वाली महाश्वेता देवी ने जुलाई 2016 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन उनके संघर्ष की आवाज चारों ओर गूंज रही है. बंगाल और बिहार के आदिवासियों और महिलाओं की आवाज दिल्ली तक पहुंचाने वाली महाश्वेता देवी अगर आज जिंदा होतीं तो पिछले एक साल से प्रचलन में आए ‘अर्बन नक्सल’ शब्द के दायरे में आ जातीं. लेकिन ऐसा क्यों. उससे पहले जानते हैं महाश्वेता देवी को.

जीवन

14 जनवरी 1926 को महाश्वेता देवी का जन्म ढाका (बंगलादेश) में हुआ था. मां धारति देवी साहित्य और समाजसेवा में गहरी रुचि रखती थीं और पिता मनीष घटक भी अपने जमाने के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार थे. शुरुआती शिक्षा ढाका के इंडेन मांटेसरी स्कूल में हुई. माता-पिता दोनों साहित्य से जुड़े थे, इसका असर यह हुआ कि वह बचपन में ही बांग्ला भाषा में लिखना-पढ़ना सीख गईं. घर में लाइब्रेरी होने से उनका मन किताबों की दुनिया में लगा रहता था. पहली बार वे 10 साल की उम्र में शांति निकेतन में पढ़ने गईं. वहां आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी पढ़ाते थे और रबींद्रनाथ टैगोर बांग्ला की क्लास लिया करते थे. उस दरमयान उन्होंने केवल तीन साल वहां बिताए, जिसके बाद उनका परिवार कोलकाता आ गया. शांति निकेतन दोबारा वे गईं बीए की पढ़ाई करने. अंग्रेजी में स्नातक करने के बाद उन्होंने एमए कलकत्ता यूनिवर्सिटी से किया.

बचपन में बहुत ही नटखट रहने वाली महाश्वेता देवी अपने जीवन के शुरुआती दिनों से ही अपराध साहित्य पढ़ना और क्रॉसवर्ड हल करना शुरू कर दी थीं. यह सिलसिला उनके जीवन के अंतिम समय तक जारी रहा.

बंगाल में अकाल ने जीवन को नई दिशा दी

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने के साथ ही उनका मन परिपक्व होने लगा था. इसके एक साल बाद बंगाल में भयानक अकाल पड़ा. इसमें लगभग 30 लाख लोगों ने भूख से तड़प कर जान गंवाई. ऐसे समय में एक दिन काली घाटी में राहत शिविर लगा था. वहां महाश्वेता देवी ने अपनी आंख के सामने कई लोगों को मरते हुए देखा. इस घटना ने उनके जीवन और साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला. बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में महाश्वेता देवी कहती हैं, ‘मैंने 60 साल पहले बंगाल में अकाल के दौरान लोगों को भूख से मरते देखा था. तभी से मैं लोगों को उनकी बुनियादी ज़रूरतें दिलाने के लिए संघर्ष कर रही हूं. लिहाजा, मेरे साहित्य के पात्र भी वही लोग हैं, जो मेरे लेखों में नज़र आते हैं. ’इसके बाद वे समाज सेवा में पूरी निष्ठा के साथ जुट गईं.

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साहित्य और समाजसेवा

1956 में पहली रचना ‘झांसेर की रानी’ (झांसी की रानी) आई. इसके लिए वे मुंबई से लेकर झांसी तक परिक्रमा कीं. रानी लक्षमीबाई के बारे में जितना जान सकती थीं, पढ़ सकती थीं, खोज सकती थीं. सब कुछ किया. कलम को धार मिलनी शुरू हो चुकी थी. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के परिदृश्य में धड़ाधड़ दो किताबें और लिख दीं. ‘नटी’ और ‘अग्निशिखा’. एक तरफ वे मेदिनीपुर के लोढ़ा और पुरूलिया के शबरा आदिवासियों खासकर आदिवासी महिलाओं के लिए जमीन पर काम कर रही थीं, वहीं दूसरी ओर अपने लेखनी से उनके संघर्षों को देश के अन्य हिस्सों में पहुंचा रही थीं. बिहार के पलामू में बंधुआ आदिवासियों के साथ काम किया और अंत तक उनके साथ परिवार का हिस्सा बनकर रहीं.

फिर आया 1970 का दौर. महाश्वेता देवी ने सिस्टम से सीधा लोहा लेना शुरू किया. औद्योगीकरण के लिए बनाई जा रही नई नीतियों का खुल कर विरोध किया. 70 के ही दशक में वे बिरसा मुंडा के काम से प्रभावित होकर बांग्ला में ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) उपन्यास लिख डालीं. बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी हुकूमत से ही नहीं, बल्कि समाज के उस दौर में पनपी सामंतवादी व्यवस्था, जमींदारी व्यवस्था और हर तरह के धार्मिक कुप्रथाओं के खिलाफ थीं. 1979 में इस कालजयी उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. इसके अलावा उन्होंने अपनी किताब ‘हजार चौरासी की मां’ में नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रेरित होकर क्रांति की राह पर निकल पड़े युवकों के दमन के खिलाफ एक मां की पीड़ा का वर्णन था. गोविंद निहलानी ने 1998 में इस लोकप्रिय उपन्यास पर फिल्म भी बनाई.

आज अगर होतीं तो अर्बन नक्सल कहलातीं

रमन मेग्सेसे, पद्मविभूषण, पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित की जानी वाली महाश्वेता देवी आदिवासियों को बाकी भारत से अलग देखने के नजरिये के बिल्कुल खिलाफ थीं. वे उन चुनिंदा लेखकों में से हैं, जो समाजिक कार्यकर्ता भी रहे हैं. उन्होंने दमन के खिलाफ अपनी आवाज उठाने के लिए हर चुनौतियों से लोहा लिया. अपनी रचना ‘द्रौपदी’ से उन्होंने समाज के तथाकथित राष्ट्रवादी तबके को नाराज भी कर दिया. हरियाणा विश्वविद्यालय में सितंबर 2016 में महाश्वेता देवी के नाटक ‘द्रौपदी’ का मंचन कराने वाले दो शिक्षकों को निलंबित कर दिया गया. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इसको ‘देशद्रोही’ करार देते हुए यह दलील दी थी कि इस नाटक में सेना का गलत चित्रण किया गया है. 90 साल की आयु में इस दुनिया को अलविदा कह देनी वाली महाश्वेता देवी पिछले तीन चार साल से स्वास्थ्य कारणों से परेशान थीं.

महाश्वेता देवी का आदिवासियों के प्रति समर्पण बहुमूल्य रहा है. उनके साथ घुलना-मिलना और नक्सलबाड़ी आंदोलन के संक्षेप में किताब लिखना महाश्वेता देवी को उन लोगों के फेहरिस्त में शामिल कर देता है, जिन पर सरकार अर्बन नक्सल का आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंद कर रही. आज अगर महाश्वेता देवी जीवित होतीं तो अपने कलम की धार से वर्तमान सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जरूर लिखतीं.

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