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Friday, 29 March, 2024
होमदेश‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अतीक अहमद की मृत्यु कैसे हुई’, हिंदू राइट विंग प्रेस ने कहा

‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अतीक अहमद की मृत्यु कैसे हुई’, हिंदू राइट विंग प्रेस ने कहा

हिंदुत्व समर्थक मीडिया ने पिछले कुछ हफ्तों में विभिन्न खबरों और सामयिक मुद्दों को कैसे कवर किया और उन पर क्या संपादकीय टिप्पणी की, इसी पर दिप्रिंट का राउंड-अप.

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नई दिल्ली: अतीक अहमद और उनके भाई अशरफ की पिछले हफ्ते हत्या दक्षिणपंथी प्रेस में चर्चा का विषय बना रहा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के हिंदी मुखपत्र पांचजन्य ने दावा किया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि गैंगस्टर से राजनेता बने अतीक को कैसे मारा गया.

15 अप्रैल की रात प्रयागराज के एक अस्पताल के बाहर पत्रकारों से बात करते समय दोनों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. पुलिस दोनों को मेडिकल जांच के लिए ले गई थी.

हिंदू दक्षिणपंथी लेखकों और स्तंभकारों द्वारा कवर किए गए अन्य विषयों में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के खिलाफ भाजपा का भ्रष्टाचार का आरोप, जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के पुलवामा हमले के बारे में दावे, ‘मन की बात’ का 100वां एपिसोड और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मामला शामिल है. 

‘अतीक अहमद के मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता’

पांचजन्य की कवर स्टोरी गैंगस्टर और पूर्व सांसद अतीक अहमद की हत्या पर केंद्रित थी. इसमें कहा गया था कि उत्तर प्रदेश प्रशासन ने राज्य के माफियाओं के मन में डर पैदा कर दी है. अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की हत्या को भले ही उत्तर प्रदेश पुलिस की नाकामी कही जा सकती है, लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार की सख्ती ने उत्तर प्रदेश में उन्हीं माफियाओं के मन में आतंक पैदा कर दिया है जो पहले आम जनता को आतंकित करता था. 

इसमें कहा गया है कि एक टेलीविजन सर्वेक्षण में, ’51 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वह एक माफिया (डॉन) था, इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसे मरा’.

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वास्तव में राहत की इस सांस की एक वजह यह भी है कि अब तक सरकारें अतीक अहमद और उसके जैसे अन्य (गैंगस्टरों) की हर हरकत पर न केवल आंख मूंद रही थीं, बल्कि उन्हें संरक्षण और प्रोत्साहन भी दे रही थीं. उस चल रही प्रथा के बंद होने पर भी जनता के इस हर्षित स्वर का विचार किया जाना चाहिए.

पाञ्चजन्य के संपादकीय में भारत की बढ़ती जनसंख्या पर भी चिंता व्यक्त की गई है. इसमें कहा गया है कि भारत को अपने जनसांख्यिकीय संतुलन को बनाए रखते हुए अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करना चाहिए.

कवर स्टोरी में कहा गया है, ‘एक युवा राष्ट्र होने के नाते, इस समय भारत के पास जो लाभ है, वह सांख्यिकीय अनुमानों के अनुसार केवल तीन दशकों तक चलने वाला है. यह माना जाता है कि उसके बाद वृद्धों की जनसंख्या का अनुपात बढ़ने लगता है और युवाओं का अनुपात घटने लगता है. चीन लंबे समय से इस स्थिति का सामना कर रहा है.’

संपादकीय में उदाहरण के तौर पर चीन का हवाला दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि चीन ने 2016 में अपनी एक-बच्चे की नीति को छोड़ दिया था और 2021 के बाद से माता-पिता को तीन बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने की नीति बन गई.

इसमें कहा गया है, ‘इसके बावजूद, यह माना जाता है कि चीन शायद ही बड़े पैमाने पर जनसांख्यिकीय पतन को रोकने में सक्षम हो सकता है. जनसंख्या नीति की एक विशेष विशेषता यह है कि इसे अचानक किसी दिशा में नहीं मोड़ा जा सकता और किसी भी नीति के परिणाम आने में कम से कम एक पीढ़ी का समय लगता है.

‘डीएमके का भ्रष्टाचार मॉडल’

आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र आर्गेनाइजर में एक लेख में तमिलनाडु भाजपा प्रमुख के. अन्नामलाई द्वारा एम.के. स्टालिन के नेतृत्व वाली राज्य सरकार पर भष्टाचार को लेकर किए गए हमले के बारे में लिखा गया है.

14 अप्रैल को, अन्नामलाई ने डीएमके पर एक कथित ‘खुलासे’ का वीडियो जारी किया था. उन्होंने दावा किया कि कथित तौर पर 1.34 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति 12 डीएमके सदस्यों के पास है, जिनमें स्टालिन, उनके बेटे और राज्य के मंत्री उदयनिधि, उनके दामाद वी. सबरीसन और उनकी बहन, लोकसभा सांसद कनिमोझी शामिल हैं.

डीएमके को ‘भ्रष्टाचार का द्रविड़ मॉडल’ कहते हुए, ऑर्गनाइज़र ने पार्टी पर भ्रष्टाचार को ‘संस्थागत’ करने का आरोप लगाया.

इसमें कहा गया है, ‘अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारत में पहली राजनीतिक पार्टी के रूप में देखा जा सकता है, जिसने जस्टिस सरकारिया (सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश) के कठिन परिश्रम को व्यवस्थित तरीके से भ्रष्टाचार विरोधी तंत्र को कमजोर कर दिया. डीएमके इतिहास में राज्य की राजनीति में भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देने वाली स्वतंत्र भारत की पहली राजनीतिक पार्टी के रूप में जाना जाएगा.’

इसने अन्नामलाई की तुलना भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा अन्ना हजारे से भी की. इसने कहा: ‘यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य-सहिष्णुता ने कानून प्रवर्तन एजेंसियों को भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने में शक्तिशाली के दबाव में नहीं आने के लिए प्रोत्साहित करना जारी रखा है. नरेंद्र मोदी के दृष्टिकोण ने अन्नामलाई जैसे नेताओं को सहारा दिया, जिन्हें लोग तमिलनाडु के अन्ना हजारे के रूप में देखते हैं, जिन्होंने अपने आंदोलनों के माध्यम से दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं, जिन्होंने सरकार की पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहिष्णुता की आवश्यकता पर जोर दिया.


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‘मन की बात’ की 100वीं कड़ी

ऑर्गनाइज़र ने अपने संपादकीय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात के मासिक प्रसारण की ‘सफलता’ पर प्रकाश डाला. मोदी सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद यह पहली बार 2014 में प्रसारित हुआ था लेकिन इस 30 अप्रैल को इसका 100वां एपिसोड प्रसारित किया जाएगा.

संपादकीय में कहा गया है कि प्रारंभिक संदेह और राजनीतिक विरोधियों की आलोचना के बावजूद, कार्यक्रम की गैर-राजनीतिक प्रकृति और लोगों को उनकी स्थानीय भाषाओं में जोड़ने पर ध्यान केंद्रित करने से इसे लोकप्रिय बनाने में मदद मिली.

‘दुनिया में कहीं भी सरकार के प्रमुख ने जनता के साथ इस तरह का संचार वर्षों तक नहीं किया है. कुंजी संचार के गैर-राजनीतिक चरित्र में निहित है. राजनीतिक उथल-पुथल, प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले और यहां तक कि भारत को बदनाम करने की अंतरराष्ट्रीय साजिशें भी हुई हैं, लेकिन नेता के रूप में मोदी ने इनमें से किसी भी घटनाक्रम पर कोई टिप्पणी करने से परहेज किया.’

केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने भी प्रकाशन में प्रसारण के बारे में एक अंश लिखा. ठाकुर ने इसे ‘लोगों के साथ निरंतर संवाद का गैर-अभिजात्य विचार’ कहा.

ठाकुर ने अपने लेख में लिखा, ‘मन की बात से पता चलता है कि हमारे पास दो मोदी हैं. एक मजबूत, शक्तिशाली, उद्देश्यपूर्ण प्रधान मंत्री मोदी. और दूसरे नरम, दयालु और सौम्य मोदी.’ उन्होंने लिखा, ‘अगर आप अपनी आंखें बंद करके मन की बात सुनें, तो आप सोचेंगे कि मोदी जी गांव की चौपाल पर बैठे हैं, लोगों से बातचीत कर रहे हैं. उन्हें सुन रहे हैं, उनसे बात कर रहे हैं, और जहां आवश्यक हो, बुद्धिमानी की सलाह दे रहे हैं, या किसी की तारीफ कर रहे हैं.’ 

वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स

अपनी मासिक पत्रिका स्वदेशी के संपादकीय में, आरएसएस की आर्थिक शाखा स्वदेशी जागरण मंच ने वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स की आलोचना की, जिसमें भारत 137 में से 126 स्थान पर है.

इसमें लिखा गया, ‘यद्यपि इस रिपोर्ट में भारत को 126वें स्थान पर रखा गया है जो पिछले साल के 136वें स्थान से बेहतर है लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि विभिन्न परिस्थितियों के कारण जो देश खुशहाली के मामले में भारत से बेहतर नहीं हो सकते, उन्हें भी भारत की तुलना में बेहतर स्थिति में दिखाया गया है. उदाहरण के लिए, सऊदी अरब, जिसमें एक तानाशाही व्यवस्था है, 30वें स्थान पर है. युद्ध से बर्बाद हुआ यूक्रेन 92वें स्थान पर है. महंगाई की मार से टूट चुका देश तुर्की 106वें स्थान पर है. दुनिया के सामने भीख का कटोरा लेकर खड़ा पाकिस्तान 108वें नंबर पर है. ऐसे में इस रिपोर्ट को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं.’

राहुल गांधी और बदनामी

दक्षिणपंथी प्रोफेसर मकरंद परांजपे ने दैनिक भास्कर में एक लेख में लिखा कि कैसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी 2019 की अपनी टिप्पणी के लिए एक चुनावी रैली में स्थिति को बढ़ाने के बजाय माफी मांग सकते थे.

रैली में, राहुल गांधी ने कहा था, ‘सभी चोरों के नाम में मोदी क्यों हैं, चाहे वह नीरव मोदी हों, ललित मोदी हों या नरेंद्र मोदी हों’

मार्च में, सूरत की एक अदालत ने गांधी को उनकी टिप्पणी के लिए एक आपराधिक मानहानि मामले में दोषी ठहराया था और दो साल की जेल की सजा सुनाई थी.

उन्होंने कहा, ‘राहुल ने जिस तरह अपनी बात के लिए माफी मांगने के बजाय अपने सही साबित करने पर जोर दिया, वह कानून और जनभावनाओं की समझ की कमी को दर्शाता है.’ परांजपे ने अपने लेख में कहा, वह आसानी से कह सकते थे कि उनका मतलब किसी का अपमान करना नहीं था और वह केवल राजनेताओं और व्यापारियों से बेहतर सार्वजनिक व्यवहार की उम्मीद कर रहे थे.

उन्होंने कहा कि मोदी सरनेम वाले लोगों को अनजाने में हुई चोट के लिए वह माफी मांग सकते थे.

उन्होंने आगे लिखा, ‘लेकिन उन्होंने इसके बजाय क्या किया? इसके विपरीत उन्होंने सावरकर पर निशाना साधा और कहा कि उनका उपनाम गांधी है और वह कभी माफी नहीं मांगेंगे.’

उन्होंने पूछा कि क्या राहुल गांधी राष्ट्रीय नेता बन गए थे.

‘शायद नहीं, वह केवल खुद को विभाजित कांग्रेस के उत्तराधिकारी-नेता के रूप में स्थापित करने में सफल रहे हैं. विदेश जाते समय उन्होंने जो बातें कहीं, उन्हें विदेशी शक्तियों से भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की अपील के रूप में आसानी से समझा गया. उनके सलाहकारों और शुभचिंतकों को उन्हें सलाह देनी चाहिए कि उन्हें बिना स्क्रिप्ट के कुछ नहीं बोलना चाहिए.

पुलवामा और सत्यपाल मलिक

दक्षिणपंथी झुकाव वाले पत्रकार और नया इंडिया के संपादक हरि शंकर व्यास ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के कथित सुरक्षा चूक के दावों पर सवाल उठाया, जिसके कारण 2019 में पुलवामा हमला हुआ.

वह द वायर के साथ मलिक के साक्षात्कार का जिक्र कर रहे थे, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि हमला इसलिए हुआ था क्योंकि गृह मंत्रालय (एमएचए) ने सीआरपीएफ की विमान की मांगों पर ध्यान देने से इनकार कर दिया. उन्होंने यह भी दावा किया था कि प्रधानमंत्री ने उनसे इस मुद्दे पर चुप रहने को कहा था.

नया इंडिया के एक संपादकीय लेख में, व्यास ने आश्चर्य व्यक्त किया कि मलिक ने राज्यपाल रहते हुए चुप्पी बनाए रखने का विकल्प क्यों चुना.

‘क्या उसका चुप रहना ठीक था? जब उन्हें पता था कि केंद्र की मोदी सरकार, दिल्ली में अजीत डोभाल-नरेंद्र मोदी की कमान लापरवाही, खुफिया विफलता, घोर चूक के लिए जिम्मेदार है और दोनों ने उन्हें चुप रहने के लिए कहा है, तो वो चुप क्यों रहें?’

वे आगे कहते हैं, ‘कल्पना कीजिए कि घटना के तुरंत अगर वह इसको लेकर प्रतिक्रिया देते, उन्होंने जो कुछ देखा, जाना, समझा, उसके बारे में मीडिया को सच बताया होता, तो लोकसभा चुनाव में क्या होता, क्या यह जनता को बेवकूफ बनाने के लिए किया जा रहा है? आज वे कह रहे हैं कि उन्हें अपनी जान की परवाह नहीं है. तो राज्यपाल की कुर्सी पर बैठने के दौरान इतनी निडरता क्यों नहीं थी?’

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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