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Friday, 29 March, 2024
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इंटरनेट बैन करने वाले नियमों का ‘घोर दुरुपयोग’ हुआ, इकॉनमी को पहुंचाया भारी नुकसानः संसदीय पैनल

बुधवार को सदन के पटल पर रखी गई रिपोर्ट में, IT पर संसद की स्थायी समिति ने नियमों की अस्पष्टता और सुरक्षा की कमी को लेकर, सरकार को फटकार लगाई है.

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नई दिल्ली: भारत में इंटरनेट बंदी को विनियमित करने वाले नियमों का ‘घोर दुरुपयोग’ किया गया है, जिससे न केवल भारी आर्थिक नुक़सान हुआ, और लोगों को अनकही पीड़ा झेलनी पड़ी है, बल्कि देश की ‘प्रतिष्ठा को भी भारी क्षति’ पहुंची है, ये विचार संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) पर बने संसदीय पैनल ने व्यक्त किए हैं.

पैनल ने सिफारिश की है कि संचार अथवा इंटरनेट बंदी के गुणों या उपयुक्तता पर फैसला करने के लिए, सरकार यथाशीघ्र एक उपयुक्त प्रणाली स्थापित करे.

संचार और आईटी पर बनी संसदीय स्थायी समिति ने, बुधवार को दूरसंचार अस्थायी सेवा निलंबन (लोक आपात या लोक सुरक्षा) नियम, 2017 पर एक रिपोर्ट पेश की.

‘दूरसंचार सेवाओं/इंटरनेट का अस्थायी निलंबन और उसके प्रभाव’ नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है, कि ऐसे समय में जब सरकार का ज़ोर डिजिटाइज़ेशन और ज्ञान अर्थव्यवस्था पर है, जिसके मूल में इंटरनेट तक मुफ्त और खुली पहुंच है, कमज़ोर आधार पर इंटरनेट का बार-बार स्थगन अनावश्यक है, और इससे बचना चाहिए.

संसदीय पैनल ने, जिसके अध्यक्ष वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर हैं, सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया का हवाला दिया, जिसके अनुसार, जिस क्षेत्र में भी सेवाएं बंद या प्रतिबंधित की जाती हैं, वहां टेलीकॉम ऑपरेटर्स को कथित तौर पर, 2.45 करोड़ रुपए प्रति घंटा का नुक़सान होता है.

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रिपोर्ट में कहा गया है, ‘दूसरे व्यवसाय जो इंटरनेट पर निर्भर होते हैं, उन्हें उपरोक्त राशि के 50 प्रतिशत का नुक़सान हो सकता है’. अपनी रिपोर्ट में पैनल ने कहा है कि इंटरनेट बंदी पर नज़र रखने की ज़रूरत है, ताकि इनके दुरुपयोग से ज़्यादातर लोगों को नुक़सान न पहुंचे.

जनवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में, इंटरनेट सेवाओं के स्थगन के खिलाफ याचिका पर कार्रवाई करते हुए, इंटरनेट बंदी को लेकर दिशा निर्देश जारी किए थे. इन गाइडलाइन्स में निर्देश दिए गए थे कि कोई भी अनिश्चितकालीन स्थगन, नियमित न्यायिक जांच के अधीन होगा, और सरकार को स्थगन के पीछे के विस्तृत कारण बताने होंगे, ताकि पीड़ित लोग उन्हें अदालत में चुनौती दे सकें.

उसके बाद, नवंबर 2020 में 2017 के नियमों में बदलाव करके अनिवार्य किया गया, कि कोई भी स्थगन आदेश 15 दिन से अधिक प्रभावी नहीं रहेगा, और ऐसे सभी आदेश प्रकाशित किए जाने चाहिए, जिससे कि प्रभावित लोग उसे हाईकोर्ट या किसी दूसरे उपयुक्त मंच पर चुनौती दे सकें.

नियमों में ये भी कहा गया है कि किसी भी स्थगन आदेश को आनुपातिकता के सिद्धांत का पालन करना होगा.


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राज्यों द्वारा की गई बंदी के रिकॉर्ड नहीं, अस्पष्ट नियम, राष्ट्रीय सुरक्षा

पैनल ने कहा कि बिहार जैसे सूबों, और केंद्र-शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में, 2019-20 में इंटरनेट सेवाएं बंद करने के आदेश दिए गए. इसके बावजूद, पैनल को यह देखकर ‘आश्चर्य’ हुआ कि संचार मंत्रालय के आधीन दूरसंचार विभाग (डीओटी), या केंद्रीय गृह मंत्रालय (एमएचए), अपने पास राज्यों द्वारा जारी बंदी के आदेशों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखते.

डीओटी और एमएचए के अधिकारियों ने पैनल को बताया, कि उनके पास कोई जानकारी नहीं है कि राज्यों ने कितनी मरतबा इंटरनेट सेवाएं बंद कीं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा तंत्र में, किसी बंदी के गुण अथवा औचित्य पर फैसला करने के लिए, कोई मानदंड निर्धारित नहीं किए गए हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘ऐसे किन्हीं निर्धारित मानदंडों के अभाव में इंटरनेट बंदी के आदेश, ज़िला स्तर के अधिकारियों द्वारा विशुद्ध रूप से, ज़मीनी हालात के व्यक्तिपरक आंकलन पर जारी किए गए हैं, और ये अधिकतर कार्यकारी निर्णय होते हैं’

नियमों के अंतर्गत, ‘सार्वजनिक आपातकाल’ और ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ एकमात्र आधार है, जिनके सहारे इंटरनेट बंदी को थोपा जा सकता है. लेकिन, रिपोर्ट में कहा गया है कि अभी तक इन शब्दों की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है.

हालांकि पैनल ने जम्मू-कश्मीर में लंबे समय तक चली इंटरनेट बंदी पर चिंता व्यक्त की, लेकिन उसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सरकार ने संकेत दिया था, कि ये क़दम राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों के चलते उठाया गया था.

केंद्र-शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधियों ने कमेटी को बताया था, कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश जारी किए जाने के बाद से, ऐसे कुल 93 आदेश जारी किए गए. इनमें 76 आदेश वो हैं जो सक्षम प्राधिकारी द्वारा, इंटरनेट बंद करने के अधिकृत अधिकारियों के निर्देशों की पुष्टि के लिए जारी किए गए.

‘2017 के स्थगन नियम अधूरे तथा अपर्याप्त हैं’

कमेटी ने ये आरोप लगाते हुए भी सरकार की खिंचाई की है कि सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बावजूद डीओटी ने, इंटरनेट बंदी को विनियमित करने के लिए, 2017 के स्थगन नियमों को पर्याप्त रूप से ‘मज़बूत’ नहीं किया है और बहुत से प्रावधानों को ‘खुला’ छोड़ दिया है.

कमेटी ने कहा कि उसे ये देखकर परेशानी हुई कि विभाग ने 2017 के नियम बेतरतीब ढंग से बनाए थे और प्रावधानों में विभिन्न सुरक्षा उपाय निर्धारित करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा था.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘हालांकि विभाग स्थगन के नियम लेकर आया, लेकिन वो अधूरे और बहुत ही अपर्याप्त थे. उनके कई पहलुओं में ख़ामियां थीं, जिनमें स्पष्टता और सूक्ष्मता की ज़रूरत थी.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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