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Thursday, 25 April, 2024
होमदेशदिल्ली की एक आशा वर्कर का दिन कैसे बीतता है- 400 घरों का सर्वेक्षण, कोविड मरीज़ों से करीब से मिलना

दिल्ली की एक आशा वर्कर का दिन कैसे बीतता है- 400 घरों का सर्वेक्षण, कोविड मरीज़ों से करीब से मिलना

रेखा बल्हारा 9 साल से आशा वर्कर का काम कर रही हैं. कोविड के दौरान वो अगले मोर्चे की योद्धा बन गई हैं. दिप्रिंट ने एक उनका पीछा किया, ये देखने के लिए, कि उनके जैसे लोगों का जीवन कैसा चल रहा है.

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नई दिल्ली: दिल्ली के नेब सराय इलाक़े में, एक एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट (आशा), 42 वर्षीय रेखा बल्हारा का दिन, सुबह 4.30 बजे शुरू होता है. सुबह के काम निपटा कर वो अपने छोटे से घर को छोड़ देती हैं- जहां वो अपने 7 सदस्यों के परिवार के साथ रहती हैं- और 8 से 10 बजे के बीच, पैदल मुआयने पर निकल जाती हैं.

बल्हारा लगभग 400 घर कवर करती हैं, जिनमें 2,000 से अधिक लोग रहते हैं लेकिन कोविड-19 महामारी ने उनके काम को, और भी कठिन बना दिया है, विशेष रूप से इसलिए कि 22 जून तक, नेब सराय एक कंटेनमेंट ज़ोन था.

आशा वर्कर्स को 2005 में लॉन्च किए गए, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनएचआरएम) के तहत भर्ती किया गया था. वो जन स्वास्थ्य सेवा और लोगों के बीच एक पुल का काम करती हैं, और आमतौर पर उनका काम होता है- जन्म से पहले और बाद में नवजात की देखभाल, टीकाकरण के लिए लोगों का प्रोत्साहन, परिवार नियोजन और बुनियादी बीमारियों का इलाज.

 

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पूरे देश में लगभग 9 लाख आशा वर्कर्स हैं, और इस महामारी में अग्रिम पंक्ति की कोविड योद्धाओं के तौर पर, वो बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई हैं.

बल्हारा के अनुसार, अपने सामान्य काम के अलावा, उन्हें कोविड मरीज़ों का भी पता रखना पड़ता है, संभावित लक्षण वाले लोगों को चेक करना होता है, अधिक मामलों वाले क्षेत्रों की घेराबंदी करानी होती है और होम क्वारेंटाइन कर रहे परिवारों पर नज़र रखनी होती है. उन्होंने कहा, ‘महामारी के बाद से हमारा काम चार गुना बढ़ गया है’.

‘आशा वर्कर के 9 साल के अपने किसी काम ने, मुझे कोरोनावायरस महामारी के लिए तैयार नहीं किया था’.


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हालांकि बल्हारा अभी भी जन्म पूर्व की सेवाएं, नवजात शिशुओं के टीकाकरण और वरिष्ठ नागरिकों की नियमित जांच आदि काम कर रही हैं, लेकिन वो मानती हैं कि कोविड-19 के कारण, सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं कहीं पीछे हो गईं हैं.

‘फिर भी, हम नवजात शिशुओं और उनकी माताओं के चेकअप के लिए, घर-घर जाते हैं, ताकि महिलाओं को प्रेगनेंसी के दौरान पर्याप्त पोषण मिल सके और जन्म के 45 दिन बाद तक शिशुओं की देखभाल हो सके. कभी-कभी आधी रात को कॉल आ जाती है, और हमें जाना पड़ता है. मेरा काम सुबह क़रीब 8 बजे शुरू होता है, और 2.30 से 6 बजे तक चलता रहता है’. कभी-कभी दिन का काम शुरू करने में उन्हें देर हो जाती है, लेकिन 10 बजे तक वो सड़क पर आ ही जाती हैं.

बल्हारा ने कहा कि काम बढ़ जाने के बाद भी, सरकार से मिलने वाली सहायता, उस अनुपात में नहीं रही है. उन्होंने कहा कि हालांकि आशा वर्कर्स, कोविड-19 मरीज़ों के लगातार संपर्क में रहती हैं, उन्हें पीपीई किट्स नहीं दी गई हैं, जिससे उन्हें अपना ख़याल खुद रखना पड़ता है.

उन्होंने कहा, ‘महामारी की शुरुआत से, सरकार ने हमें केवल एक एन-95 मास्क, और एक जोड़ी ग्लव्स दिए. मुझे भी सुरक्षित रहना है और अपना ख़याल रखना है, चूंकि मेरा भी एक परिवार है. इसलिए मैंने खुद से अपने लिए मास्क, ग्लव्स और सैनिटाइज़र्स ख़रीदे हैं.

बल्हारा ने उन सभी घरों का विवरण अपडेट करने के लिए एक रजिस्टर तैयार किया है, जहां वह जाती हैं | फोटो- मनीषा मोंडल, दिप्रिंट

‘बारिश हो या ओले- मेरा काम नहीं रुकेगा’

सरकार की उदासीनता ने भी बल्हारा को, उनके काम से विचलित नहीं किया है.

काम के लंबे दिन के लिए खुद को तैयार करने के लिए, वो सुबह कैल्शियम, ज़िंक और विटामिन-सी की गोलियां लेती हैं, और एक छोटे से बैग में कोविड रजिस्टर रखकर, सर पर दुपट्टा लपेटकर, और मास्क व ग्लव्ज़ से लैस होकर, घर से बाहर निकल जाती हैं.

बल्हारा एक दिन में 30 से 50 घरों का सर्वेक्षण कर लेती हैं. वो दूसरी आशा वर्कर्स और एक सहायक नर्स मिडवाइफ (एएमएम) के साथ, एक व्हाट्सएप ग्रुप का हिस्सा हैं, जिस पर इलाक़े के कोविड-19 मरीज़ों की लिस्ट आ जाती है.

जब वो घरों में चेक करने जाती हैं, कि किसी को कोविड लक्षण तो नहीं हैं, तो लोग उन्हें फौरन पहचान जाते हैं और उनसे सलाह मांगने लगते हैं, कुछ तो उन्हें चाय के लिए अंदर भी बुलाते हैं. लेकिन, बल्हारा सोशल डिस्टेंसिंग का बहुत ख़याल रखती हैं और मुस्कुराहट के साथ, लेकिन मज़बूती से, उन्हें मना कर देती हैं.

नेब सराय में सब घर आपस में जुड़े हुए हैं. तंग गलियों और ख़राब ड्रेनेज सिस्टम के चलते, आशा वर्कर को अपनी ड्यूटी पूरी करने के लिए, कभी-कभी घुटनों तक पानी में चलकर जाना होता है.

लेकिन वो चलती रहती हैं, उन लोगों को समर्पित, जो बिना कोई सवाल पूछे, उन पर भरोसा करने लगे हैं. ‘बारिश हो, ओले हों या बर्फ गिर जाए-मेरा काम नहीं रुकेगा. बहुत लोग हैं जो मुझ पर भरोसा करते हैं’.

लेकिन उन्हें जिस चीज़ की चिंता है, वो है पानी भरी गलियों में पैदा होने वाली बीमारियां. वो कहती हैं कि वो जहां जाती हैं, वहां उन्हें डेंगू, दस्त, और दूसरी बीमारियों का ख़तरा रहता है, जो वहां के निवासियों के लिए जानलेवा हो सकती हैं.

इससे बचने के लिए बल्हारा दिन के बीच में वापस घर जाती हैं, और अपने गीले रोगाणु भरे कपड़े बदलती हैं. वो अपने ग्लव्स और मास्क भी फेंक देती हैं, और फिर से बाहर निकलने से पहले, एक नया सेट लगा लेती हैं.

उन्होंने बताया, ‘मैं दिन में क़रीब चार बार नहाती हूं’.

बल्हारा अपनी दिनचर्या में नवजात शिशुओं के साथ-साथ गर्भवती महिलाओं को भी देखभाल करनी होती है | फोटो- मनीषा मोंडल, दिप्रिंट.

कम वेतन और पीपीई किट न मिलने से सरकार पर गुस्सा

बल्हारा को बतौर आशा वर्कर, अपना काम बेहद संतोषप्रद लगता है जिसमें उन्हें लोगों की सहायता करने को मिलता है, लेकिन वो दिल्ली सरकार से बहुत नाराज़ हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त सुरक्षा उपकरण नहीं दिए गए हैं.

उन्होंने कहा, ‘हम मरीज़ों के घरों में जाते हैं, ऑक्सीमीटर की मदद से उनके टेम्प्रेचर और सांस की जांच करते हैं और हमारे पास कोई पीपीई किट्स नहीं हैं. सेफ्टी बनाए रखने के लिए, मैं दो मास्क लगाती हूं, दो ग्लव्स पहनती हूं और चेहरे पर दुपट्टे को तीन बार लपेटती हूं. ये रजिस्टर और पेन जो मेरे पास है, मैंने ही ख़रीदा है’.

सरकार को लेकर ये गुस्सा सिर्फ बल्हारा में ही नहीं है. पिछले कुछ हफ्तों में देशभर की आशा वर्कर्स, संसाधनों के अभाव और कम वेतन के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं.

कर्नाटक में 40,000 से अधिक आशा वर्कर्स, वेतन बढ़ोतरी और बेहतर सुरक्षात्मक गियर की मांग करते हुए, दस दिन से हड़ताल पर हैं.

इसी तरह पंजाब के करतारपुर में, क़रीब 162 आशा वर्कर्स वेतन और पीपीईज़ की मांग के लिए प्रदर्शन कर रही हैं, ताकि वो सुरक्षित रूप से अपनी ड्यूटी अंजाम दे सकें.

दिल्ली आशा वर्कर्स एसोसिएशन ने भी, जिसकी बल्हारा सदस्य हैं, सुरक्षा उपकरण और वेतन वृद्धि की मांग करते हुए, 21 जुलाई को हड़ताल की.

दिल्ली सरकार के एक अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया कि आशा वर्कर्स आमतौर पर कम्यूनिटी में से ही चुनकर भर्ती की जाती हैं, और वेतन की बजाय उन्हें मानदेय दिया जाता है.

अप्रैल 2020 में, केंद्र सरकार ने कोविड ड्यूटी अंजाम दे रहीं आशा वर्कर्स के लिए, 1,000 रुपए मासिक की प्रोत्साहन राशि का ऐलान किया था लेकिन, बल्हारा का कहना है कि ये रक़म पर्याप्त नहीं है.

उन्होंने कहा कि एक सामान्य सफाई वर्कर को, क़रीब 750 रुपए रोज़ाना मिलता है, जबकि आशा वर्कर को, जिसे अब कोविड से जुड़ा व्यापक काम भी देखना होता है, सिर्फ 1,000 रुपए मासिक मिलता है.

उन्होंने कहा, ‘एक हज़ार रुपए में तो मेरा मास्क, सैनिटाइज़र और ग्लव्स का ख़र्च भी पूरा नहीं होता. हम लोगों के भी परिवार हैं और हम भी डरते हैं, लेकिन किसी को तो ये काम करना ही है. सरकार को कम से कम सबसे बुनियादी सुरक्षा उपकरण तो देने ही चाहिए’.

बल्हारा ने कहा कि वो ओवरटाइम काम करती हैं और महीने में बमुश्किल 5,000 से 6,000 रुपए कमा पाती हैं. अन्यथा, उनका बेसिक वेतन 4,000 रुपए मासिक है.

वह कहती हैं कि सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को पर्याप्त सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं कराए हैं | फोटो- मनीषा मोंडल, दिप्रिंट

दिल्ली के स्वास्थ्य विभाग के एक सीनियर अधिकारी ने, नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा कि आशा वर्कर्स को उनके काम के हिसाब से उपकरण दिए गए थे. उन्होंने ये भी कहा कि प्रोग्राम ऑफिसर उन्हें और सुरक्षा उपकरण देने पर विचार कर रहे हैं.


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इस सब के बावजूद, बल्हारा और अन्य आशा वर्कर्स निरंतर अपने काम में लगी रही हैं.

बल्हारा ने कहा, ‘मैं इसी कम्यूनिटी का हिस्सा हूं. अगर मैं कल काम करना बंद कर दूं तो बाद में काम पर लौटने पर, मैं किस मुंह से उनका सामना करूंगी, तब वो कहेंगे कि जब हमें तुम्हारी ज़रूरत थी, तुम हमारे पास नहीं थीं’.

बल्हारा की बहुत सी सहयोगी 27 जुलाई को, सिविल लाइन्स पर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के दफ्तर के बाहर, प्रदर्शन की योजना बना रहीं हैं लेकिन वह उसमें शामिल होने को लेकर संदेह में हैं.

‘मेरे पास बहुत ज़्यादा काम है. मैं ऐसा नहीं कर सकती कि एक दिन काम पर न जाऊं. बहुत लोग हैं जो मेरे सहारे हैं’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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