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Wednesday, 24 April, 2024
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महिलाओं पर राय बनाने को लेकर भारतीय अदालतों पर क्यों लगते हैं लिंगभेद के आरोप

दहेज उत्पीड़न मामले में इलाहबाद हाई कोर्ट का जून का आदेश, जिसमें कहा गया कि महिला को कोई ‘शर्म’ नहीं थी और उसके दिमाग में ‘द्वेष और जहर’ भरा था, सबसे ताज़ा फैसला है जिसकी लिंग असंवेदनशीलता के लिए आलोचना हो रही है.

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नई दिल्ली: पिछले सप्ताह इलाहबाद हाई कोर्ट के एक आदेश ने, जिसमें एक पत्नी द्वारा अपने पति पर लगाए गए आरोपों की भाषा और व्यवहार की भर्त्सना की गई थी, कुछ जजों द्वारा फैसला सुनाते हुए ‘पुरुष-प्रधान’ और ‘लिंग असंवेदनशील’ भाषा के इस्तेमाल पर फिर से सवाल खड़े कर दिए हैं.

हाई कोर्ट 13 जून को कथित यौन हिंसा और दहेज उत्पीड़न से जुड़े एक मामले की सुनवाई कर रहा था. फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी ने कहा कि महिला ने घटना को बढ़ा-चढ़ाकर बताया था.

शिकायतकर्ता ने अपने पति और ससुराल वालों पर दहेज उत्पीड़न और ‘अप्राकृतिक’ सेक्स का आरोप लगाया था.

जस्टिस चतुर्वेदी का फैसला पिछले कुछ महीनों या सालों में अकेला फैसला नहीं है, जिसकी ‘लिंगभेद’ के लिए आलोचना हुई है.

देश भर की अदालतों पर कथित रूप से लकीर की फकीर बने रहने, नैतिक पुलिसिंग करने, पीड़िताओं के चरित्र हनन और ‘आदर्श रेप पीड़िता’ की छवि बनाने की कोशिश और स्त्री-द्वेष, पितृसत्ता, तथा आकस्मिक सेक्स के प्रति नरम रुख रखने को लेकर आरोप लगाए जाते रहे हैं.

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अधिवक्ता अपर्णा भट, जिन्होंने पिछले साल मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसने छेड़खानी के एक मामले में एक अभियुक्त को इस शर्त पर जमानत दे दी थी कि वो शिकायतकर्ता के हाथ से राखी बंधवाएगा. उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि बहुत जरूरी है कि जजों को जेंडर मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं.

उस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए, जिसने एमपी हाई कोर्ट के आदेश को खारिज करते हुए इस तरह के ट्रेनिंग सत्र कराने की आवश्यकता पर बल दिया था, भट ने कहा, ‘कुछ राज्यों में न्यायिक प्रशिक्षण अकादमियां शुरू हुई हैं लेकिन इन्हें और अधिक कराया जाना चाहिए’.


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इलाहबाद हाई कोर्ट मामला

इलाहबाद केस में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि उसके ससुर और देवर उससे यौन संबंध बनाना चाहते थे और उसके पति ने कई मौकों पर उसे बाथरूम में बंद कर दिया था और एक बार उसे गर्भपात कराने के लिए भी मजबूर किया गया था.

अपने आदेश में कोर्ट ने शिकायतकर्ता की मानसिक स्थिति पर कटाक्ष किया और कहा कि उसे ‘किसी तरह की शर्म या हिचक नहीं थी’.

जस्टिस चतुर्वेदी ने कहा, ‘किसी तरह की शर्म या हिचक के बगैर घटना का चित्रात्मक और ज्वलंत विवरण मानसिक स्थिति के बारे में बहुत कुछ कहता है और बताता है कि सूचना देने वाले के मन में कितना द्वेष और जहर भरा हुआ है’.

आदेश के अनुसार, ‘एफआईआर की भाषा शालीन होनी चाहिए और सूचना देने वाली ने भले कितनी भी प्रताड़ना झेली हो लेकिन इससे उसकी कठोर अभिव्यक्ति को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता’.

‘हमारे परंपरागत भारतीय परिवार में, जहां वो एक संयुक्त परिवार में एक गैर-शादीशुदा बेटे के साथ रह रहे हैं, इन आरोपों को हज़म करने की संभावना असंभव और मुश्किल है कि ससुर और देवर ने बहू के साथ यौन संबंध बनाने की मांग की होगी’, ये कहते हुए फैसले में ससुर को बरी कर दिया गया लेकिन पति के खिलाफ केस जारी रखने की अनुमति दे दी गई.

दिप्रिंट से बात करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता विभा दत्ता मखीजा ने न्याय को लेकर एफआईआर की भूमिका पर बात की और कहा कि टिप्पणियां करते समय अदालतों को संयम बरतना चाहिए.

मखीजा ने कहा, ‘एफआईआर की सच्चाई जांच और मुकदमे के अधिकार-क्षेत्र में आती है. मानहानि की कार्रवाई के रूप में झूठी और दुर्भावनापूर्ण एफआईआर के खिलाफ, कानून अभियुक्त को एक उपाय प्रदान करता है. अदालतों की ओर से अधिक व्यापक टिप्पणियां, जो पाड़ितों को सच्चे और सही तथ्यों को सामने रखने से रोकती हैं, चाहे वो मानवीय संवेदनाओं के प्रति कितनी भी घृणित हों, वास्तविक मामलों की रिपोर्टिंग को रोकने का काम करेंगी’.


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‘हमारी संस्कृति के लिहाज से अप्राकृतिक’

इसी साल, इलाहबाद हाई कोर्ट ने बलात्कार के एक मामले में एक ससुर को अग्रिम जमानत दी थी और कहा था कि ये ‘अप्राकृतिक’ था कि यौन हिंसा के किसी मामले में परिवार का कोई सदस्य शामिल हो.

उस मामले में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि वो अपने भाई के घर पर अकेली थी, जब दो अभियुक्त जिनमें एक उसका ससुर था, वहां आए और उससे पूछा कि उसका भाई कहां है. ये बताने पर कि उसका भाई घर पर नहीं है, दोनों लोगों ने कथित रूप से उसका बलात्कार किया.

पहली नज़र में कोर्ट ने कहा था, ‘हमारी भारतीय संस्कृति में बहुत अस्वाभाविक है कि कोई ससुर किसी दूसरे व्यक्ति के साथ मिलकर अपनी बहू का बलात्कार करेगा’.

लेकिन, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े इस विचार का खंडन करते हैं कि ऐसी हरकतें अस्वाभाविक हैं और लगातार इस बात का संकेत देते हैं कि बलात्कार के 93.1 प्रतिशत मामलों में अभियुक्त पीड़िता की पहचान का व्यक्ति होता है.


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‘राज्य की भावी संपत्ति’

एक बलात्कार मामले में कर्नाटक हाई कोर्ट ने 2020 में टिप्पणी की थी कि अपराध को अंजाम दिए जाने के बाद पीड़िता का सो जाना, किसी ‘भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है’.

जज ने कहा था, ‘हमारी महिलाओं के साथ जब बलात्कार होता है, तो उनकी प्रतिक्रिया इस तरह की नहीं होती’.

गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने पिछले साल एक रेप मामले में, ‘पृथम दृष्टया केस’ होने के बावजूद अभियुक्त को इस आधार पर जमानत दे दी थी कि वो ‘राज्य की भावी संपत्ति’ है.

हाई कोर्ट ने कहा था कि ‘प्रतिभावान छात्र होने के नाते, जो आईआईटी गुवाहाटी से तकनीकी कोर्स कर रहे हैं और केवल 19 से 21 वर्ष के युवा आयु वर्ग में हैं और दोनों का संबंध दो अलग प्रांतों से है, पीड़ित लड़की और अभियुक्त दोनों राज्य की भावी संपत्ति हैं. अगर आरोप तय हो गए हैं तो केस की सुनवाई के हित में, अभियुक्त का हिरासत में बने रहना आवश्यक नहीं है’.

2019 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने तीन रेप अभियुक्तों को तब तक के लिए जमानत दे दी जब तक दोषसिद्धि के खिलाफ उनकी अपील लंबित रहती है. कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता का बयान ‘एक कामुकतापूर्ण रवैये और कामप्रेमी मन की उपज नज़र आता है’.

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अपहरण और बलात्कार के एक मामले में कहा था कि चूंकि पीड़िता एक ‘परेशान, अपमानित हालत में वापस घर नहीं गई थी’ इसलिए ये ‘अस्वाभाविक’ था और उसके बयान की सच्चाई संदिग्ध थी.

2009 के एक सुप्रीम कोर्ट फैसले में, जो 1995 में एक नाबालिग लड़की के अपहरण और रेप के मामले में आया था, अपीलकर्ता को एक ‘अय्याश महिला’ और एक ‘व्यभिचारी महिला’ कहा गया था.

ऐसे भी मामले रहे हैं जिनमें अदालतों ने अभियुक्तों से पूछा है कि क्या वो पीड़िता से शादी करेगा या एक मामले में एक अभियुक्त को जो एक धोबी था, छेड़ख़ानी के मामले में इस शर्त पर जमानत दे दी कि सामुदायिक सेवा के तौर पर वो गांव की सभी महिलाओं के कपड़े धोकर इस्त्री करेगा.

मखीजा ने कहा, ‘अदालतों को सावधान रहना चाहिए कि व्यक्तिगत निष्कर्ष आदेशों न बनें, जिससे दंड प्रक्रिया संहिता में उपलब्ध विस्तृत प्रक्रिया को लागू करने में भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है’.

(अक्षत जैन दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्र हैं और दिप्रिंट के साथ बतौर इंटर्न जुड़े हैं)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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