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Thursday, 25 April, 2024
होमदेशक्या हिमंत योगी की नक़ल कर रहे हैं? 5 महीने में 27 ‘अपराधियों’ को गोली मारने के बाद चर्चा में असम पुलिस

क्या हिमंत योगी की नक़ल कर रहे हैं? 5 महीने में 27 ‘अपराधियों’ को गोली मारने के बाद चर्चा में असम पुलिस

CM हिमंता की अपराध के खिलाफ शून्य सहनशीलता के संकल्प की तुलना, योगी आदित्यनाथ से की गई है. लेकिन कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है, कि असम पुलिस का ‘उग्रवाद का ख़ुमार’ भी मुठभेड़ों में वृद्धि का ज़िम्मेदार है.

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नई दिल्ली/गुवाहाटी: छोटा सा वीडियो सख़्त और ख़ौफनाक था: लुंगी और बनियान पहने एक मरियल सा ग्रामीण, एक डंडा उठाए हुए पुलिस की तरफ दौड़ता हुआ, जिसके बाद उसे गोली मारी जाती है और लाठियों से पीटा जाता है, और उसके बाद एक फोटोग्राफर खेत में पड़े उसके निर्जीव शरीर को पैरों से कुचलता है.

ये वीडियो वायरल हो गया और इसने असम पुलिस तथा राज्य में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा की बीजेपी सरकार को, आलोचनाओं का निशाना बना दिया.

लेकिन, आलोचकों और राज्य के अधिकार समूहों का कहना है, कि धौलपुर गांव के इस वीडियो ने, राज्य पुलिस के उस नए निर्मम चेहरे को सामने किया है, जो इन गर्मियों में सरमा के सत्ता में आने, और अपराध समाप्त करने के संकल्प के बाद सामने आया है. उनका कहना है कि असम पुलिस ‘बात-बात पर गोली चलाने पर उतारू’ हो गई है, और सुबूत के तौर पर वो मई के शुरू से, पुलिस फायरिंग में क़रीब दो दर्जन मौतों का हवाला देते हैं.

मसलन, 12 सितंबर को एक संदिग्ध डाकू, जिसकी कथित रूप से कई मामलों में तलाश थी, धुबरी में ढेर कर दिया गया. हफ्ते के अंदर ही, 18 सितंबर को असम पुलिस ने कोकराझार में एक कथित गोलीबारी के बाद, दो संदिग्ध उग्रवादियों को गोली से उड़ा दिया.

28 अगस्त की रात गोलपाड़ा में असम पुलिस ने, एक और कथित गोलीबारी के बाद दो संदिग्ध डाकुओं को मार गिराया. उसी महीने, तीन संदिग्ध लुटेरे उस समय मार डाले गए, जब वो कथित रूप से एक बैंक को लूटने जा रहे थे.

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अगस्त में ही 24 घंटे के भीतर हुईं दो अन्य घटनाओं में, दो कथित अपराधियों को गोली मारकर घायल कर दिया गया- उनमें से एक जिस पर डकैती, ड्रग तस्करी, और ज़मीन हथियाने के काम में शामिल होने का शक था, उसे पुलिस की जवाबी फायरिंग में गोली मारी गई, और दूसरा जो हफ्ता वसूली और अपहरण का संदिग्ध था, वो हिरासत से भागने की कोशिश कर रहा था. दोनों की टांगों में गोलियां लगी थीं.

जुलाई में, एक और संदिग्ध डकैत को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराया गया. उसी समय के आसपास एक कथित मवेशी तस्कर को भी पैर में गोली मारी गई, जब वो कथित रूप से पुलिस कस्टडी से भागने की कोशिश कर रहा था.

असम पुलिस द्वारा साझा किए गए डेटा के अनुसार, 10 मई से 27 सितंबर के बीच मुठभेड़ की 50 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 27 लोग मारे गए और 40 घायल हुए.

पुलिस ने कहा कि मारे गए और घायल हुए अपराधियों में, अन्य के अलावा ‘आतंकवादी’, ‘नशीली दवाएं बेंचने वाले’ और ‘मवेशी तस्कर’ शामिल थे.

सरमा, जिन्होंने मई में सीएम का कार्यभार संभाला था, अपराध के खिलाफ शून्य सहनशीलता का संकल्प लिए हुए हैं, और उन्होंने ऐसे संदिग्धों की टांगों पर पुलिस फायरिंग का समर्थन किया—जो भागने की कोशिश करते हैं. कुछ आलोचकों ने उनकी तुलना उत्तर प्रदेश के उनके समकक्ष, योगी आदित्यनाथ से की है, जिनकी अपराधों के खिलाफ बहु-प्रचारित कार्रवाई, इन आरोपों के बाद संदेह के घेरे में आई है, कि बहुत सी मुठभेड़ें आयोजित की जाती हैं.

लेकिन असम जैसे राज्य में, जिसका इंसरजेंसी और बांग्लादेश से लगी अंतर्राष्ट्रीय सीमा से अवैध अप्रवास की वजह से अशांत इतिहास रहा है, पुलिस फायरिंग पर अतीत में भी चिंता ज़ाहिर की जाती रही है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के डेटा के अनुसार, पूर्ववर्त्ती सर्बानंद सोनोवाल के कार्यकाल में, जो सरमा के बीजेपी सहयोगी थे, पुलिस के हाथों 16 मौतें हुईं थीं, और 2016 में गोलीबारी की एक घटना हुई थी.

2017 में चार मौतें दुर्घटनावश पुलिस कार्रवाईयों/मुठभेड़ों में हुईं थीं, लेकिन 2018, 2019 और 2020 में ऐसी कोई घटना नहीं हुई.

पुलिस फायरिंग में नागरिकों की मौत पर एनसीआरबी आंकड़े केवल 2012 से उपलब्ध हैं, जब कांग्रेस के तरुण गोगोई सत्ता में थे. 2012 से 2015 के बीच असम में, पुलिस फायरिंग में चौदह लोग मारे गए. एनसीआरबी रिकॉर्ड्स से पता चलता है, कि इस अवधि में ऐसे 41 मौक़े आए, जब पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी- 2015 में 7, 2014 में 3, 2013 में 13, और 2012 में 18.

एनसीआरबी डेटा के अनुसार केवल एक राज्य उत्तर प्रदेश में, 2015 में पुलिस फायरिंग में ज़्यादा नागरिक मारे गए थे, जो असम के 7 के मुक़ाबले नौ थे. 2016 में असम (16) का स्थान हरियाणा (22) के बाद दूसरा था. 2017 में, जब एनसीआरबी ने ‘दुर्घटनावश पुलिस कार्रवाईयों/मुठभेड़ों में’ मारे गए नागरिकों के आंकड़े, अलग से जारी करने शुरू किए, तो असम चार मौतों के साथ तेलंगाना (10) और जेएंडके (7) के बाद तीसरे स्थान पर था.

जहां शीर्ष स्थानों पर हर साल राज्य बदल जाते हैं, वहीं 2018, 2019 और 2020 के सिवाय, असम कमोबेश लगातार बना रहा है.

हालांकि विपक्ष ने सरमा के अंतर्गत राज्य में ‘तानाशाही’ का आरोप लगाया है, लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि असम में पुलिस का ‘सैन्यकरण’ एक ऐसी वास्तविकता है, जो उनके सीएम कार्यकाल से पहले की है. राज्य के हंगामेदार इतिहास का हवाला देते हुए वो आगे कहते हैं, कि हालांकि प्रदेश में विद्रोह कम हो गया है, लेकिन पुलिस के आचरण में बदलाव नहीं आया है.

इस बीच पुलिस अपने तरीक़ों को अपराध के खिलाफ कार्रवाई कहकर उनका बचाव करती है.

दिप्रिंट ने इस रिपोर्ट पर टिप्पणी के लिए मुख्यमंत्री सरमा को ईमेल किया, लेकिन प्रकाशित होने के समय तक कोई जवाब नहीं मिला था.


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धौलपुर में क्या हुआ?

धौलपुर की घटना, जो असम के दरांग ज़िले का हिस्सा है, एक अतिक्रमण-विरोधी अभियान के दौरान हुई. धौलपुर गांव ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर स्थित है.

नदी के क़रीब के इस इलाक़े में मुख्य रूप से प्रवासी मुसलमान रहते हैं, जो तीन-चार दशकों से सरकारी ज़मीन पर रहते आ रहे हैं. हटाए गए लोगों के वकील शांतनु बोरठाकुर ने दिप्रिंट से कहा, ‘ये लोग नागांव, बारपेटा और कामरूप जैसे ज़िलों से यहां आए हैं, क्योंकि उनकी ज़मीन नदी ने काट ली थी.’

वकील ने कहा कि गांव में असम-भाषी मुसलमान और हिंदू आबादी भी है, जो नदी से थोड़ी और दूरी पर रहते हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘उनमें से कुछ लोगों ने अतिक्रमण जुर्माना भी भरा है, इसलिए इनके पास दिखाने के लिए कागज़ात भी हैं. उन्होंने राजस्व बोर्ड से पुनर्वास के लिए मांग की है, लेकिन उस मोर्चे पर कुछ नहीं हुआ है’.

उन्होंने कहा कि 2019 में, बीजेपी सरकार एक नीति लेकर आई, जिसमें भूमिहीनों को ज़मीन देने की बात की गई है, लेकिन केवल स्वदेशी लोगों को. बोरठाकुर ने कहा, ‘स्वदेशी व्यक्ति किसे माना जाएगा, इसे अभी तक परिभाषित नहीं किया गया है’.

लेकिन सरकार धौलपुर के वासियों को, अवैध बसने वालों के तौर पर परिभाषित करती है.

22 सितंबर की रात, गांव वासियों को वहां से निकलने के लिए नोटिस जारी कर दिया गया, जहां क़रीब 200 घर हैं.

जहां कुछ गांववालों ने कुछ घंटों के अंदर घर ख़ाली कर दिए, वहीं दूसरों ने इंतज़ार किया. उन्होंने कहा कि आख़िरकार उन्हें अपना सामान समेटना था, और बच्चों को जगाना था.

गांववासियों का दावा है कि बृहस्पतिवार दोपहर पुलिसकर्मियों का एक दल आया, और गांववालों पर हमला करना शुरू कर दिया.

28 वर्षीय फैज़ुर रहमान जो पास के एक गांव में रहता है, और जो पूरी घटना का चश्मदीद गवाह होने का दावा करता है, उसने पुलिस को बताया, ‘लोगों के घर तोड़े जा रहे थे, और उन पर हमले भी किए जा रहे थे. वो कैसे शांत रह सकते थे? उस समय पुलिसकर्मियों के एक दूसरे बैच, और गांववासियों के बीच तकरार हुई’.

रहमान ने, जो एक मोबाइल की दुकान चलाता है, कहा कि पुलिस कर्मियों ने ‘लोगों को मारने के इरादे से उनकी छाती पर गोलियां चलाईं’.

उधर पुलिस बाहरी लोगों पर गांव वालों को भड़काने का इल्ज़ाम लगा रही है.

पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) भास्कर ज्योति महंता ने दिप्रिंट से कहा, ‘पुलिस उसे बेहतर ढंग से संभाल सकती थी, अगर कुछ ‘बाहरी तत्व’ न होते जिन्होंने वहां घुसपैठ करके गांव वालों को भड़काया. लेकिन एक ऐसी स्थिति बन गई थी, जहां पुलिस को बल का सहारा लेना पड़ा.’ लेकिन उन्होंने ये पहचान करने से इनकार कर दिया, कि ये ‘बाहरी तत्व’ कौन हैं.

मुख्यमंत्री सरमा ने शनिवार को, एक केरल-स्थित मुस्लिम संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया की, एक तीसरी ताक़त के तौर पर पहचान की, जिसने ‘सरकारी ज़मीन पर अवैध तरीक़े से बसने वालों को’ भड़काया था.

सरमा ने धौलपुर में पुलिस कार्रवाई का बचाव तो नहीं किया, लेकिन बार-बार ये ज़रूर कहा, कि किस तरह लोगों ने बलों पर हमला किया. उन्होंने बृहस्पतिवार की घटनाओं को ‘आसामान्य’ बताया.

उन्होंने कहा, ‘हमने सीआईडी जांच का आदेश दे दिया है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम इस बात की जांच नहीं करेंगे, कि वहां 10,000 लोगों को किसने जमा किया…आपको पूरी वीडियो देखनी होगी…वीडियो के अनुसार उस विशेष व्यक्ति ने उस आदमी पर हमला किया था…हम उसे सही नहीं ठहराते. लेकिन…कृपया पूरा घटनाक्रम दीजिए’. उन्होंने आगे कहा, ‘पुलिस ने एक ग़लती की…लेकिन उसके कारण आप अतिक्रमण को उचित नहीं ठहरा सकते’.

टकराव में 11 पुलिसकर्मी घायल हुए, और सरमा ने कहा कि वो अभियान ‘सहमत सिद्धांत’ के आधार पर चलाया गया था, और इस तरह के विरोध की अपेक्षा नहीं की गई थी.

उन्होंने कहा, ‘क़रीब 10,000 लोगों ने असम पुलिस का घेराव कर लिया और हिंसा का सहारा लिया, जिसके बाद पुलिस ने जवाबी कार्रवाई की’.

पुलिस की आलोचना के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा, कि ‘जल्दबाज़ी में निष्कर्षों पर पहुंचना बहुत आसान होता है’.

‘वीडियो में एक अकेली घटना दिखाई गई है. उससे ठीक पहले एक भारी भीड़ को ‘बाहरी तत्वों’ द्वारा उकसाया गया था, जो पुलिस पर हमला कर रहे थे’.

उन्होंने आगे कहा कि वहां से हटाए जाने वाले लोगों की संख्या बहुत कम थी, लेकिन वहां 10,000 लोगों की भीड़ मौजूद थी.

उन्होंने कहा, ‘वो बहुत संगठित था, और उसे कुछ बहुत अच्छे से प्रशिक्षित लोगों ने अंजाम दिया था. हम जानते हैं कि वो लोग कौन हैं, और ये जल्द ही सामने आ जाएगा, लेकिन उचित प्रक्रिया के बाद.’

राज्य सरकार ने बृहस्पतिवार की घटनाओं की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं- जिसकी अध्यक्षता गुवाहाटी हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज करेंगे.

जुलाई के शुरू में सरमा ने, जिनके पास गृह विभाग भी है, असम पुलिस के शीर्ष नेतृत्व से कहा था, कि जो अभियुक्त पुलिस की गिरफ्त से भागने की कोशिश करता है, उस पर गोली चलाना एक पैटर्न बन जाना चाहिए.

संदिग्धों को गोली मारने की बार-बार ख़बरें आने के बाद, उठ रहे सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था, ‘पुलिस को उनके सीने पर गोली नहीं चलानी चाहिए, लेकिन क़ानून उनके पैर पर गोली चलाने की इजाज़त देता है. असम में पुलिस को (अपराधियों के खिलाफ) ऐसी कार्रवाई से डरना नहीं चाहिए, लेकिन बेगुनाह लोगों के खिलाफ ऐसी कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए.’

33 वर्षीय मोईनुल हक़, जो धौलपुर में मरने वाले दो लोगों में से एक था, उसके सीने पर गोली का घाव था.

महंता ने कहा कि कमर के ऊपर गोली चलाना यक़ीनन प्रोटोकोल नहीं है, लेकिन ये ‘मामला कोर्ट के विचाराधीन है’.

धौलपुर क्लिप का हवाला देते हुए एक पूर्व डीजीपी ने, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, कहा, ‘कोई ज़िम्मेदार अधिकारी पुलिस बल की अगुवाई नहीं कर रहा था, और उस क्लिप में कोई मजिस्ट्रेट भी मौजूद नहीं था, हालांकि मैं पुलिस दल की ओर से लगातार फायरिंग की आवाज़ें सुन सकता था.’

पूर्व डीजीपी ने आगे कहा, ‘इतना बड़ा सशस्त्र बल आसानी के साथ, क्रूर हमले का सहारा लिए बिना, उसे (आदमी को) रोक सकता था. सरमा का पुलिसकर्मियों को लोगों के पैरों पर गोलियां चलाने के लिए प्रोत्साहित करना, परोक्ष रूप से ऐसी बेरहमी का समर्थन करना है, और ऐसा लगता है कि वो अल्पसंख्यक क्षेत्रों में लक्षित ‘अपराधियों’ और तथाकथित असामाजिक संदिग्धों पर, बंदूक़ आदि के चयनात्मक इस्तेमाल को बढ़ावा दे रहे हैं.’


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मुठभेड़ों से जुड़े आरोप

बहुत सी मौतें जो हाल के महीनों में हुई हैं, उनमें फर्ज़ी मुठभेड़ किए जाने के आरोप लगाए गए हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की एक ख़बर के मुताबिक़, डकैती और सशस्त्र डकैती के एक संदिध 47 वर्षीय जॉयनल आबिदीन को, 11 जुलाई की सुबह सवेरे गोली मारी गई. पुलिस का कहना था कि जब उसके घर को घेरकर उसे आवाज़ लगाई गई, तो उसने पुलिस पर फायर किए.

लेकिन, जॉयनल के परिवार का आरोप है, कि जिस समय पुलिस उसे लेकर गई वो हथकड़ी में था, और बाद में ‘उसे मार दिया गया’. उन्होंने कहा है कि उन्हें उसके मारे जाने का पता सुबह 6 बजे चला, जब गांव प्रमुख को सूचित किया गया.

18 सितंबर की मुठभेड़ भी अवैध होने के आरोपों से घिरी है, जिसमें एक नए संगठन के दो संदिग्ध उग्रवादी शामिल थे.

17 सितंबर को पकड़े गए ब्रह्मा और मुशाहरी को, कोकराझार ज़िले में हुई एक गोलीबारी में गोली मारी गई, जो उस समय शुरू हो गई जब वो पुलिस को एक उग्रवादी कैंप ले गए थे. घटना की जांच की जा रही है.

असम मानवाधिकार आयोग (एएचआरसी) ने पुलिस कार्रवाइयों में हुईं हत्याओं का स्वत: संज्ञान लिया है. 7 जुलाई को उसने राज्य सरकार के गृह एवं राजनीतिक विभागों के प्रमुख सचिव को, परिस्थितियों की जांच कराने के लिए कहा. 17 अगस्त की समय सीमा में कई बार विस्तार दिए जाने के बाद भी, रिपोर्ट अभी तक पेश नहीं की गई है. इसी महीने समय सीमा को 1 नवंबर तक फिर बढ़ाया गया.

14 सितंबर को, जब दिल्ली स्थित एक वकील ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) का दरवाज़ा खटखटाया, तब जाकर पैनल ने राज्य सरकार से चार सप्ताह के भीतर, कार्रवाई की रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा.

घटनाओं के बारे में पूछे जाने पर- जिनमें अपराधियों पर बहुत अलग अलग अपराधों के आरोप हैं- असम पुलिस अपराध के प्रति शून्य-सहनशीलता की बात करती है.

अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (क़ानून व्यवस्था) जीपी सिंह ने दिप्रिंट को बताया, कि मई में सत्ता संभालते ही सरमा ने सात मुख्य मुद्दे सूचीबद्ध किए, जिन पर ‘कोई सहनशीलता नहीं’ होनी थी. उन्होंने कहा कि ये मुद्दे हैं मवेशी तस्करी, ड्रग्स, मानव तस्करी, आतंकवाद, गैंडे का शिकार, महिलाओं तथा बच्चों के प्रति अपराध, और कच्चे तेल की चोरी.

सिंह ने कहा, ‘ऐसे मामलों के सामने आने पर कार्रवाई की जाएगी, और पुलिस कोई सहनशीलता नहीं बरतेगी’.

सिंह ने आगे कहा कि किसी अपराधी के ख़िलाफ बंदूक़ आदि का इस्तेमाल, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (सीआरपीसी) की धारा 46 और 129-132, तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 96-103 के अंतर्गत, वैध बल प्रयोग माना जाता है.

लेकिन, ऊपर हवाला दिए गए डीजीपी ने कहा, ‘असामान्य हालात में निजी सुरक्षा के लिए गोली चलाने की अनुमति है, जब जीवन और संपत्ति पर ख़तरा क़रीब हो’

उन्होंने आगे कहा, ‘और तब भी बल प्रयोग कम से कम होना चाहिए. केवल इन मानदंडों के अंतर्गत ही पैरों पर गोली चलाने को जायज़ ठहराया जा सकता है’.


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असम के इतिहास की देन?

शिवसागर विधायक अखिल गोगोई ने, जो सीएए-विरोधी रायजोर डोल (पीपुल्स पार्टी) प्रमुख हैं, सरमा पर उंगली उठाते हुए कहा कि उनके ‘शब्द, फैसले, और क़दम सांप्रदायिक प्रतिशोध से भरे हैं…वो यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ से भी आगे निकल गए हैं’.

विपक्ष के दूसरे लोगों ने मौजूदा व्यवस्था को तानाशाही की तरह बताया.

कांग्रेस सांसद अब्दुल ख़ालिक़ ने दिप्रिंट से कहा, ‘गोलीबारी तानाशाही की तरह है. हम मुक़दमा चाहते हैं गोलीबारी नहीं. क्योंकि गोलीबारी में बेगुनाह भी शिकार हो सकते हैं.’

गुवाहाटी उच्च न्यायालय में प्रेक्टिस करने वाले, मानवाधिकार वकील अमन वदूद ने कहा कि सरमा के सत्ता संभालने के बाद, बहुत से मोर्चे हैं जिन पर क़ानून प्रवर्त्तन में बदलाव हुआ है. उन्होंने आगे कहा कि ‘सरमा बस अपनी ये छवि प्रचारित करना चाहते हैं, कि वो एक सख़्त प्रशासक हैं.’ उन्होंने कहा कि पैर में गोली मारने जैसा बयान देकर वो यही संकेत देना चाहते हैं.

असम आफ्टर इंडिपेंडेंस एंड पोस्ट-कलोनियल असम (1947-2019) के लेखक, मृणाल तालुकदार ने कहा कि सरमा ‘अपराधियों पर गोली चलाना एक पैटर्न बन जाना चाहिए’ जैसे बयान देकर, पुलिस को एक संकेत दे रहे हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘ये सीधा यूपी में योगी आदित्यनाथ की नियमावली से लिया गया है. चुना हुआ कोई सीएम क़ानून की अदालत में ऐसा कुछ नहीं करेगा’.

लेकिन, कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है कि असम में इंसर्जेंसी का इतिहास भी, असम पुलिस के व्यवहार में एक भूमिका अदा करता है.

एक अकादमिक और कार्यकर्ता अंकुर तमूली फूकन का मानना है, कि ‘बात बात पर गोली चलाने पर उतारू’ पुलिस नेचर की जड़ें, 1990 और शुरू 2000 के दशक तक जाती हैं.

फूकन ने दिप्रिंट से कहा, ‘असम पुलिस बटालियन के जवान तब तक ऐसे आचरण के लिए प्रशिक्षित हो चुके थे, जो भारतीय सेना का युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा, एक विद्रोही गुट) के साथ था. ये पुलिस के सैन्यकरण का मामला है. वो तरुण गोगोई सरकार के दौरान भी ऐसे ही रहे हैं, लेकिन तब इंसरजेंसी की समस्या भी बनी हुई थी. उसमें तो काफी कमी आई है, लेकिन पुलिस का व्यवहार आज भी वैसा ही है’. उन्होंने आगे ये भी कहा कि ये बीजेपी बनाम कांग्रेस मुद्दा नहीं है’.

असम के एक और पूर्व डीजीपी जयंतो चौधरी ने, सिविल और सशस्त्र पुलिस के नज़रिए और रवैये में अंतर की ओर, ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की.

उन्होंने कहा, ‘20-25 वर्षों से असम पुलिस इंसरजेंसी से निपट रही थी, और उसका ज़ोर उग्रवादी-विरोधी कौशल विकसित करने पर था. पुलिसिंग की नागरिक शैली पर वापस लौटने के लिए, हमें और ज़्यादा ट्रेनिंग की ज़रूरत है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वो बहुत मुश्किल काम होगा’.

उन्होंने आगे कहा कि जब सूबा इंसरजेंसी से जूझ रहा था, तो पुलिस की एंटी-इंसरजेंसी ट्रेनिंग के लिए, केंद्र सरकार धन मुहैया कराती थी.

उन्होंने आगे कहा, ‘गृह मंत्रालय के पास बहुत सी स्कीमें हैं, जिनके तहत वो सशस्त्र पुलिस बटालियनें खड़ी करने में राज्यों की सहायता करता है, लेकिन ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं है जो सिविलियन मामलों में पुलिस की मदद करता हो. जो बदलाव लाया गया था, उसे उलटने में सहायता के लिए फंडिंग की ज़रूरत है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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