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Thursday, 25 April, 2024
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विदेशों से MBBS करने वाले 80% स्टूडेंट भारत में नहीं कर पाते FMGE पास तो चुनते हैं ये रास्ते

साल 2019 में, विदेशों से मेडिकल की डिग्री लेकर भारत लौटने वाले 25.79 फीसदी छात्र-छात्राएं ही फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जाम पास कर पाए. साल 2020 में यह आंकड़ा 14.68 फीसदी और 2021 में 23.83 फीसदी रहा. भारत ने यह नियम बना रखा है कि कुछ खास देशों से मेडिकल की डिग्री पाने वाले छात्र-छात्राओं को भारत में प्रैक्टिस करने के लिए यह परीक्षा पास करनी होगी.

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नई दिल्ली: हर साल विदेश के विश्वविद्यालयों से मेडिकल की डिग्री लेने वाले हजारों छात्र फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जाम (एफएमजीई) में शामिल होते हैं. नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन के आंकड़ों के मुताबिक, औसतन करीब 20 फीसदी छात्र ही यह परीक्षा पास कर पाते हैं. विदेशों से मेडिकल डिग्री हासिल करने वाले लोगों को भारत में प्रैक्टिस करने के लिए यह परीक्षा पास करना ज़रूरी है. यह परीक्षा एनबीई लेता है. नेशनल मेडिकल कमिशन (पहले मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) इसे मैंडेट करता है.

रूस, यूक्रेन, चीन, फिलीपींस, बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों से मेडिकल की पढ़ाई करके लौटे छात्र भारत में तभी प्रैक्टिस शुरू कर सकते हैं जब वह FMGE की परीक्षा पास कर लेते हैं. हालांकि, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड से पढ़ाई पूरी करने वाले मेडिकल ग्रेजुएट को इस परीक्षा में शामिल होने की ज़रूरत नहीं होती है. साल 2019 में विदेश से मेडिकल डिग्री लेने वाले 25.79 फीसदी छात्रों ने यह परीक्षा पास की. साल 2020 में यही आंकड़ा घटकर 14.68 फीसदी हो गया और 2021 में यह 23.83 फीसदी रहा. साल 2019 के बाद से इस परीक्षा में सफलता पाने वालों की संख्या लगातार घटती रही है.

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि टेस्ट पास नहीं कर पाने वाले करीब 80 फीसदी ग्रेजुएट क्या करते हैं? कुछ डॉक्टर बनने का सपना छोड़ देते हैं और अलग-अलग तरह के काम शुरू करते हैं. वहीं, कई लोग बार-बार प्रयास करते हैं. FMGE की परीक्षा साल में दो बार होती है और यह परीक्षा ग्रेजुएट, जितनी बार चाहें दे सकते हैं.

दिप्रिंट ने विदेश से मेडिकल में ग्रेजुएट करने वाले छात्रों से नाम नहीं छापने की शर्त पर बात की है, क्योंकि इन्होंने एनबीई के साथ नॉन-डिस्क्लोजर एग्रीमेंट साइन किया है.

‘सपना टूटा नहीं है’

मुंबई की एक 32 वर्षीय मेडिकल ग्रेजुएट ने करीब आठ साल पहले रूस के रियाज़ान क्षेत्र के एक संस्थान से MBBS (बैचलर ऑफ़ मेडिसिन एंड बैचलर ऑफ़ सर्जरी) की डिग्री हासिल की थी. उन्होंने कहा कि वह 10 प्रयासों के बावजूद FMGE पास नहीं कर सकीं. अब वह मुंबई के एक संस्थान में अस्पताल प्रबंधन की पढ़ाई कर रही हैं.

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उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं अस्पताल प्रबंधन की पढ़ाई कर रही हूं, लेकिन मैंने अब भी प्रैक्टिस करने के अपने सपने को छोड़ा नहीं है. मैं इस साल भी FMGE की परीक्षा में बैठी थी और नतीजे का इंतजार कर रही हूं.’

उन्होंने दावा किया कि इस साल प्रश्न-पत्र में गड़बड़ियां थीं और कुल 12 नंबर के सवाल गलत थे. इसके लिए छात्रों को नंबर मिलने चाहिए थे. छात्रों ने इसको लेकर एनबीई के पास याचिका दायर की है. यह पूछे जाने पर कि मेडिकल की पढाई करने के लिए रूस की यूनिवर्सिटी को क्यों चुना. इसके जवाब में उन्होंने कहा कि जब वह इस उहापोह में थी कि कहां आवेदन किया जाए, तो उन्हें बताया गया कि वह संस्थान उस देश के बेहतरीन संस्थानों में से एक है.

उन्होंने कहा, ‘चूंकि कई साल बीत गए हैं, इसलिए मुझे अच्छी तरह से याद नहीं है कि मैंने कितनी फीस दी थी, लेकिन यह पक्का है कि भारत के प्राइवेट कॉलेज से फीस ज़रूर कम थी, और यही वजह थी कि मैं वहां गई.’

यह पूछे जाने पर कि क्या पिछले 10 सालों में परीक्षा आसान हुई है. उन्होंने कहा, ‘FMGE का सिलेबस तय नहीं है, वे कुछ भी पूछ सकते हैं, न सिर्फ़ यूजी लेवल का बल्कि पीजी लेवल का भी. चाहे हम कितनी भी पढ़ाई कर लें, इसे पास कर पाना नामुमकिन है. सिर्फ़ यही बात नहीं है कि यह काफी मुश्किल है, इस परीक्षा में कोई पारदर्शिता भी नहीं है.’

उन्होंने कहा, ‘कोई उम्मीदवार दोबारा मूल्यांकन या रीचेकिंग के लिए आवेदन नहीं कर सकता है और न ही आंसर-शीट ही पा सकता है… यह सब इसे और भी ज्यादा मुश्किल बना देता है.’

‘कोई तय सिलेबस नहीं’

चीन के शांडोंग की एक यूनिवर्सिटी से चार साल पहले MBBS की डिग्री लेने वाले एक ग्रेजुएट हर साल FMGE की परीक्षा में बैठ रही हैं, लेकिन उन्हें अबतक सफलता नहीं मिल पाई है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने तय किया है कि वह अपनी उर्जा किसी भी चीज में बर्बाद नहीं करेंगी और अगली परीक्षा की तैयारी में अपना पूरा ध्यान लगाएंगी.

नोएडा में रहने वाली 27 साल की उस ग्रेजुएट ने बताया, ‘पिछले चार प्रयासों में हर बार मेरा स्कोर बेहतर हुआ है. मुझे विश्वास है कि मैं इस बार यह परीक्षा पास कर लूंगी.’

उन्होंने भी कोई सिलेबस तय नहीं होने की बात कही.

उन्होंने कहा, ‘एनबीई ने हमें कोई किताब पढ़ने की सलाह नहीं दी है. परीक्षा की तैयार करने के लिए कोई तय सिलेबस नहीं है, जिसके आधार पर हम परीक्षा की तैयारी कर सकें. यह सब इस परीक्षा को हमारे लिए मुश्किल बना देते हैं.’

‘समय बर्बाद करने के बजाय अपना करियर बदल लिया’

इस परीक्षा को पास करने में बार-बार असफल होने के बाद हर कोई इस प्रोफेशन से मोह कायम नहीं रख पाता है. हरियाणा के जींद के 35 साल के कारोबारी इसके उदाहरण हैं.

रूस की राजधानी मास्को से साल 2014 में MBBS की डिग्री लेने वाले इस कारोबारी ने पांच बार FMGE की परीक्षा दी और हर बार असफल रहे. तीन साल पहले उन्होंने डॉक्टर बनने का इरादा छोड़ दिया. अब वह परफ्यूम बनाने के अपने पारिवारिक कारोबार को संभाल रहे हैं.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मेरे पिता मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे. उन्होंने मुझे रूस भेजा, क्योंकि मैं भारत में मेडिकल की सीट पाने में कामयाब नहीं रहा था. मैंने स्क्रीनिंग टेस्ट पास करने की बहुत कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो पाया. इसलिए, मैं और ज़्यादा समय बर्बाद करने के बजाय फैमिली बिजनेस में लग गया.’

दिप्रिंट ने कुछ कंसल्टेंट से भी बात की. उन लोगों ने भी कहा कि इस परीक्षा में बार-बार असफल होने के बाद ज़्यादातर लोगों के पास कोई दूसरा पेशा चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है.

विनीत तिवारी दिल्ली में कंस्लटेंसी सेवा चलाते हैं और छात्रों को मेडिकल कॉलेज चुनने और उनके आवेदन को तैयार करने में मदद करते हैं. उन्होंने कहा, ‘विदेशी से ग्रेजुएट की डिग्री पाने वाले भारत में प्रैक्टिस नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे उस देश में प्रैक्टिस कर सकते हैं जहां से उन्होंने पढ़ाई पूरी की है. जिनके पास साधन और कनेक्शन है वे चीन और रूस में इंटर्नशिप का मौका पा जाते हैं और उसके बाद वहां पर प्रैक्टिस शुरू कर देते हैं. हालांकि, यह महामारी से पहले ही संभव था.’

नोएडा के कंसलटेंट नीरज चौरसिया ने कहा कि कई ग्रेजुएट सफल होने के लिए बार-बार इस परीक्षा में बैठते हैं.

उन्होंने कहा, ‘ज़्यादातर लोग परीक्षा पास करने के लिए, बार-बार प्रयास करते हैं, लेकिन जो लोग इसे पास नहीं कर पाते हैं वह भारत में रहने पर कोई दूसरा करियर चुन लेते हैं. जो पाते हैं वे ऐसे देशों में जाते हैं जहां वे प्रैक्टिस कर सकें.’

उन्होंने कहा, ‘ऐसे लोग जिन्हें यह अवसर नहीं मिल पाता है, वह कोई दूसरा कैरियर चुनेंगे या किसी ऐसे क्लिनिक या दूर-दराज के इलाकों, गांव या छोटे शहरों में काम करेंगे है जहां पर लाइसेंस की ज़रूरत नहीं पड़ती है.’

एनबीई के पूर्व एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर डॉक्टर विपिन बत्रा ने कहा कि स्क्रीनिंग एग्जाम की शुरुआत साल 1998-99 के आसपास हुई. सरकार मेडिकल की पीजी की पढ़ाई के लिए छात्रों को मनोनीत करके सोवियत संघ और सीआईएस (कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट) के देश भेजती थी. यह सब कूटनीतिक प्रयासों के तहत होता था. फिर इसने कारोबारी रूप ले लिया और यहां के ज़्यादा कॉलेजों ने भारतीय छात्रों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए.

डॉक्टर बत्रा ने दिप्रिंट को बताया, ‘भारत में मेडिकल की शिक्षा में मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर हमेशा से रहा है. शुरुआत में सोवियत संघ में मेडिकल की पढ़ाई कूटनीतिक का हिस्सा थी, तब सरकार (छात्रों) को मनोनीत करती थी. 1998 में एमसीआई ने पहली बार एक प्रस्ताव पारित करके फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट की मान्यता रद्द कर दी.’

उन्होंने कहा, ‘लेकिन इसे वापस लेना पड़ा और 1998 में पोखरण न्यूक्लियर टेस्ट हुआ और रूस एकमात्र देश था जो प्रतिबंधों के दौरान भारत के साथ खड़ा रहा. ऐसे समय में जो देश भारत के साथ खड़ा था वहां की डिग्री को खारिज करने के फैसले के खिलाफ बड़ा कूटनीतिक दबाव बन गया था. अंत में 2001 में बीच का रास्ता निकाला गया. यहां से स्क्रीनिंग टेस्ट की शुरुआत हुई.’

टेस्ट के खिलाफ लोगों का विरोध भी सामने आया. इसको लेकर कुछ मेडिकल ग्रेजुएट ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. उनकी मांग थी कि परीक्षा के दायरों को छोटा किया जाए और चिकित्सा के विषयों से ही सवाल पूछे जाएं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कुछ राहत दी और प्रयासों की तय संख्या को खत्म कर दिया.

उन्होंने कहा, ‘मार्च 2004 में पहली बार FMGE आयोजित किया गया और यह पिछले 16 सालों से चल रहा है. इस मिलेनियम दशक में कई अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी मैदान में आ गए हैं, इसके साथ ही चीन और फिलीपींस जैसे देशों ने भी भारतीय छात्रों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं.

फिलहाल हम, चीन में भी उतने ही छात्रों को मेडिकल की पढ़ाई के लिए भेज रहे हैं जितने कि पूर्व के सीआईएस देशों में भेजते हैं.

फिलीपींस के साथ एक फायदा यह है कि वहां पर अंग्रेजी बोली जाती है.’

FMGE पास करने के बाद भी बेसिक स्किल की कमी

विदेशों से मेडिकल डिग्री लेने वालों के साथ काम करने वाले डॉक्टरों का मानना है कि जो स्क्रीनिंग टेस्ट पास कर लेते हैं उनमें भी क्लिनिकल और प्रैक्टिस स्किल की कमी रहती है

दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के एक सीनियर डॉक्टर ने दिप्रिंट को बताया, ‘ऐसा कई बार होता है कि ऐसे ग्रेजुएट हमें मिलते हैं जो मरीज को कैनूला भी नहीं लगा सकते.

जानकारों के मुताबिक, यही वजह है कि यह परीक्षा इतना मुश्किल है और भारत में ही विदेशों से स्नातक की डिग्री लेने वाले लोगों के लिए स्क्रीनिंग टेस्ट नहीं है.

केरल के पूर्व चीफ सेक्रेटरी डॉक्टर विश्वास मेहता अपने कार्यकाल के दौरान केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में ज्वाइंट सेक्रेटरी भी रह चुके हैं. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मैं अर्मेनिया, जॉर्जिया और रूस गया हूं. वहां पर कोई एंट्रेंस एग्जाम नहीं होता है और वहां पर फीस भी उचित है, इसलिए बहुत से लोग वहां पर पहुंचते हैं. वहां पर बहुत कड़े कानून हैं, इसलिए छात्रों को कभी भी मरीज को छूने नहीं दिया जाता है, ऐसे में आमतौर पर उन्हें कैथेटर लगाना या सूई देना या डिलीवरी के बारे में पता नहीं होता है.

उन्होंने कहा, ‘स्टैण्डर्ड बहुत अलग है. साथ ही, इन देशों में आपसी सहमति नहीं है, ताकि उनके डिग्री को मान्यता दी जा सके. यहां तक कि अमेरिका में भी भारत के मेडिकल ग्रेजुएट को USMLE (United States Medical Licensing Examination) की परीक्षा पास करनी होती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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