scorecardresearch
Wednesday, 17 April, 2024
होमसमाज-संस्कृति‘वे जब मेरी हत्या करने आएंगे तो कोई भी नहीं बचा पाएगा’

‘वे जब मेरी हत्या करने आएंगे तो कोई भी नहीं बचा पाएगा’

Text Size:

इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर सागरिका घोष की किताब ‘इंदिरा: भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ का एक अंश.

उस सुबह वे सधे कदमों से उद्देश्यपूर्ण तरीके से घर से बाहर आई थीं. वह 31 अक्तूबर 1984 की तारीख थी. अगले दिन, एक नवंबर की सुबह के अखबारों की सुर्खी थी, ‘इंदिरा गांधी की गोली मार कर हत्या, ‘सिख सुरक्षाकर्मियों ने छाती-पेट में गोलियां दागीं.’ अपनी मृत्यु की पूर्व संध्या को उन्होंने भुवनेश्वर में सभा को संबोधित किया था और जबर्दस्त भीड़ के सामने आर्तनाद किया था, ‘आज मैं यहां हूं, कल मैं शायद यहां न रहूं…मेरे मरने पर मेरे खून की एक-एक बूंद भारत को ऊर्जा देगी और शक्तिशाली बनाएगी.’

भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के पूर्व अधिकारी और तब इंदिरा गांधी के सचिवालय के निदेशक वजाहत हबीबुल्ला, भुवनेश्वर में उनके साथ ही थे. वजाहत, उनके सचिवालय में 1982 में ही शामिल हुए थे. उनके अनुसार, ‘वो भाषण तेरा-तुझको अर्पण के अंदाज में था, मानो वे भारत को वापस जनता को समर्पित कर रही थीं. मानो वे यह कह रही थीं कि मैं जो कुछ भी कर सकती थी, कर चुकी, अब इसे आप खुद संभालिए.’

साधु लक्ष्मणजु ने, जिनसे वे श्रीनगर के अपने अंतिम दौरे में मिली थीं, याद करते हुए बताया, ‘मौत उनके बहुत करीब थी.’ उन्होंने जब उनसे किसी इमारत का उद्घाटन करने को कहा तो उनका जवाब था, ‘यदि मैं जिंदा रही तो जरूर आऊंगी;.’ उनकी मृत्यु के बाद बेलूर मठ स्थित रामकृष्ण मिशन के एक साधु ने याद किया कि इंदिरा गांधी ने उन्हें भी उसी अक्टूबर में आसन्न मृत्यु के बारे में कुछ ऐसा ही पत्र लिखा था.

मृत्यु का शिकंजा करीब आता दिख रहा था, भले ही शरीर ऊर्जा से भरपूर था. उनकी इच्छाशक्ति डूब रही थी, शायद शून्य में विलीन होने को आतुर थी!

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

31 तारीख की सुबह ठंडी और धूप से भरपूर थी. उनका पूरा दिन बेहद व्यस्त था. सुबह के समय उनके इंटरव्यू की वीडियोग्राफी के लिए अपनी टीवी टीम के साथ अभिनेता, स्तंभकार और प्रसारक पीटर उस्तिनोव इंतजार कर रहे थे. दोपहर को ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री जेम्स कैलेहन के साथ मुलाकात तय थी और फिर उन्हें प्रिंसेज़ ऐन के साथ औपचारिक रात्रिभोज करना था.

‘मैं उस दिन सुबह उनसे, उस समय मिला जब वे इंटरव्यू देने के लिए तैयार हो रही थीं और उनकी ब्यूटीशियन उनका मेकअप करने में जुटी हुई थीं,’ डॉ. कृष्ण प्रसाद माथुर ने अपनी याद्दाश्त को टटोलते हुए बताया. वे 1966 में उनके प्रधानमंत्री बनने के समय से ही उनके डॉक्टर थे और बिला नागा, हर सुबह उनकी जांच करने जाते थे.

डॉक्टर ने बताया कि वे हमेशा एकदम चुस्त-दुरुस्त रहती थीं और उन्हें ऐसा याद नहीं पड़ता कि कभी वे बीमार पड़ी हों. ‘उनका स्वास्थ्य इतना बढ़िया था कि मेडिकल समस्याओं की चर्चा के बजाए हम लोग अन्य बातें कर लिया करते थे. उस दिन मैंने कहा कि टाइम पत्रिका में पढ़ा था कि रोनाल्ड रीगन अपने टीवी इ़ंटरव्यूज़ के लिए मेकअप कराने से मना कर दिया था. उन्होंने इस बात का जोरदार खंडन किया और बताया कि रीगन मेकअप तो करते ही थे, साथ ही कान में एक इयरपीस भी लगाते थे, जिसके जरिए उन्हें उन सवालों के जवाब मुहैया किए जाते थे जो पत्रकार उनसे पूछते थे.’

माथुर को लगता है कि उन्हें अपनी मुत्यु का पूर्वाभास हो गया था. ‘वो मुझसे कहा करती थीं, ‘मैं अचानक मरूंगी, किसी दुर्घटना में.’’

सवेरे नौ बजे के जरा देर बाद वे तैयार थीं और अपने निवास 1 सफदरजंग रोड से तेजी से चलते हुए अपने दफ्तर, बगल के 1 अकबर रोड स्थित बंगले की ओर घुमावदार रास्ते पर लंबे डग भरती हुई चल पड़ीं, जहां उस्तिनोव की टेलीविज़न टीम उनका इंतज़ार कर रही थी. उन्हें सूरज की तेज़ किरणों से बचाने के लिए पुलिस वाला उनके सिर पर छाता ताने साथ-साथ चल रहा था. उनके पीछे निजी सहायक आरके धवन चल रहे थे और उनके भी पीछे, उनके सेवक तथा उनकी सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस सब-इंस्पेक्टर थे.

सागरिका की किताब

वे हमेशा की तरह सुसज्जित और ताजा दम लग रही थीं. हमेशा इकहरी, जतन से संभाली हुई सुठौल काठी की मालकिन इंदिरा गांधी उस दिन तो खासकर बेहतरीन स्वास्थ्य से दमकतीं, तरोताजा और सुंदर लग रही थीं. उन्होंने काली पट्टी वाली केसरिया रंग की साड़ी पहनी हुई थी और उससे, मिलती-जुलती नाजुक सी काले रंग की सैंडल उनके पैरों में थीं और उनके कंधे पर था कसीदाकारी वाली लाल झोला. कैमरे पर अपने व्यक्तित्व को आकर्षण देने के लिए, उन्होंने उस दिन बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं पहन रखी थी (अपनी जान पर बार-बार गंभीर खतरे के कारण वे उसे पहनने को मजबूर हो गई थीं).

वे दरवाजे से बाहर निकलीं और झाड़ियों की कतारों, लिली के फूलों से पटे तालाब और बगीचे को पार करते हुए अपने अकबर रोड स्थित दफ्तर को ले जाने वाले छोटे से गेट की तरफ बढ़ीं. इस रास्ते से वे रोज़ गुज़रती थीं. वे जब छोटे गेट के पास पहुंची तो वहां सब-इंस्पेक्टर बेअंत सिंह निगाहों में आया. बेअंत सिंह उनके अंगरक्षक दस्ते में पिछले नौ साल से शामिल था और उनके साथ विदेश भी गया था जिसमें उनकी हालिया लंदन यात्रा भी शामिल थी.

ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद उसे सिख होने के कारण उनके सुरक्षा दस्ते कुछ ही समय पहले हटाया गया था लेकिन इंदिरा ने उसे वापस बुलवा कर ही दम लिया. उन्होंने हमेशा की तरह उसका अभिवादन, ‘नमस्ते’ से किया. बेअंत सिंह ने जवाब में अपना रिवॉल्वर उठाया और उन पर निशाना साध दिया. उन्होंने पूछा, ‘क्या कर रहे हो तुम?’

इंदिरा गांधी व्यावहारिक थीं, सहज बोध से सोचती थीं. कल्पनाओं की उड़ान भरना उन्हें नहीं आता था. उनके दिमाग में यह बात जरूर कौंधी होगी कि बेअंत सिंह क्या करने पर उतारू है. वो भी ऐसे दिन जब सूर्य की सुनहली किरणों ने मृत्यु संबंधी सभी विचारों को ठिकाने लगा दिया था और बेहद व्यस्त दिन अपने छोटे से छोटे कामों के बखूबी निबट जाने के इंतजार में था.

हवा में पलभर की खामोशी रही. फिर उसने गोलियां चलाईं. एकदम करीब से एक के एक बाद पांच गोलियां. तभी बेअंत की दूसरी तरफ, लॉन से एक और युवा सिख सिपाही सतवंत सिंह नमूदार हुआ. बाईस साल का सतवंत सिंह गुरदासपुर में लंबी छुट्टी बिता कर बस लौटा ही था. गुरदासपुर तब सिख उग्रवाद की पौधशाला बना हुआ था. सतवंत सिंह के पांव घबराहट के मारे मानो जमीन से चिपक गए. तभी बेअंत चिल्लाया, गोली चला. यह सुनते ही सतवंत ने लरजते हाथों से अपनी ऑटोमेटिक स्टेनगन से दनादन 25 गोलियां दाग दीं. इंदिरा गांधी पर मानो गोलियों का छोटा सा चक्रवात टूट पड़ा.

‘मुझे एक के बाद एक तीन गोलियां चलने की आवाज़ सुनाई दी,’ पीटर उस्तिनोव ने बताया. ‘दफ्तर में लोग कहने लगे कि यह पक्का पटाखे होंगे. उसके बाद स्वचालित हथियार से तड़ातड़ गोलियां दगने की आवाज आई, मानो हमलावर कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. मुझे नहीं उनके बचने की कोई भी गुंजाइश नहीं लगी.’

अपनी सुरक्षा में प्रत्यक्ष खामियों के प्रति ऐसा लगता है कि वे खुद भी बेहद लापरवाह हो गई थीं. ‘वे जब मेरी हत्या करने आएंगे तो कोई भी नहीं बचा पाएगा,’ उन्होंने लगभग असहाय भाग्यवादी की तरह ऐसा कहा था.

प्रधानमंत्री के घर पर तैनात एंबुलेंस का ड्राइवर चूंकि चाय पीने गया था, इसलिए एंबुलेंस काम नहीं आ सकी. उन्हें उठाकर सफेद अंबेसेडर कार में डाला जा रहा था.

उसी दोपहर को लगभग दो बजकर बीस मिनट पर इंदिरा गांधी की मौत की घोषणा कर दी गई. उस समय उनके 67वें जन्मदिन में महज तीन हफ्ते बाकी थे. हालांकि बीबीसी पर उनकी मृत्यु की घोषणा कई घंटे पहले ही कर दी गई थी.

संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार पद पर ही प्रधानमंत्री की मृत्यु हो जाने पर उनके उत्तराधिकारी को तत्काल शपथ दिलाना आवश्यक होता है, क्योंकि प्रधानमंत्री के नहीं रहने से सरकार का अस्तित्व खत्म हो जाता है. इसलिए आकाशवाणी पर प्रधानमंत्री की मृत्यु की घोषणा राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने से चंद मिनट पूर्व ही की गई. आकाशवाणी पर कांपते हुए औपचारिक सुर में बस इतनी भर घोषणा की गई, ‘हम खेदपूर्वक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु की घोषणा करते हैं.’

डॉ. माथुर बताते हैं, ‘उनपर हुआ वार इतना घातक था कि अंततः जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके स्वास्थ्य की 20 साल से देखभाल करने के बावजूद मेरे पास उनके लिए कोई इलाज ही नहीं था.’

तीन मूर्ति भवन में तिरंगे में लिपटे उनके शव का अंतिम दर्शन करने मानो जनसैलाब उमड़ पड़ा था. उन्होंने इसी भवन में अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में स़त्रह साल बिताए थे. दर्शनाथियों के नारे, ‘इंदिरा गांधी अमर रहें’ वहां गूंज रहे थे. शोकग्रस्त भीड़ के बीच से तभी खून जमा देने वाली चीख गूंजी, ‘खून का बदला खून से लेंगे.’

(ये अंश सागरिका घोष की पुस्तक ‘इंदिरा: भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ से, प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित किया गया है.)

share & View comments